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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 50/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मेधातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-५०
    36

    कदु॑ स्तु॒वन्त॑ ऋतयन्त दे॒वत॒ ऋषिः॒ को विप्र॑ ओहते। क॒दा हवं॑ मघवन्निन्द्र सुन्व॒तः कदु॑ स्तुव॒त आ ग॑मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कत् । ऊं॒ इति॑ । स्तु॒वन्त॑: । ऋ॒त॒ऽय॒न्त॒ । दे॒वता॑ । ऋषि॑: । क: । विप्र॑: । ओ॒ह॒ ते॒ ॥ क॒दा । हव॑म् । म॒घ॒ऽव॒न् । इ॒न्द्र॒ । सु॒न्व॒त: । कत् । ऊं॒ इति॑ । स्तु॒व॒त: । आ । ग॒म॒: ॥५०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कदु स्तुवन्त ऋतयन्त देवत ऋषिः को विप्र ओहते। कदा हवं मघवन्निन्द्र सुन्वतः कदु स्तुवत आ गमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कत् । ऊं इति । स्तुवन्त: । ऋतऽयन्त । देवता । ऋषि: । क: । विप्र: । ओह ते ॥ कदा । हवम् । मघऽवन् । इन्द्र । सुन्वत: । कत् । ऊं इति । स्तुवत: । आ । गम: ॥५०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 50; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (कत् उ) कैसे ही (स्तुवन्तः) स्तुति करनेवाले लोगों ने (ऋतयन्त) सत्य धर्म को चाहा है ? (देवता) विद्वानों में (कः) कौन (ऋषिः) ऋषि [धर्म का साक्षात् करनेवाला], (विप्र) बुद्धिमान् पुरुष (ओहते) सब-प्रकार से विचार करे ? (मघवन्) हे अति पूजनीय ! (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (सुन्वतः) तत्त्व निचोड़नेवाले, (स्तुवतः) स्तुति करनेवाले की (हवम्) पुकार को (कदा) कब और (कत्) कैसे (उ) निश्चय करके (आ) सब प्रकार से (गमः) तू पहुँचा है ॥२॥

    भावार्थ

    जब ऋषि महात्मा भी परमात्मा को ठीक-ठीक नहीं पहुँचते, तो हम अल्पज्ञ होकर उस तक कैसे पहुँचे ? हम ऐसी शङ्का करने लगते हैं। परन्तु परमात्मा अपनी शक्तिमत्ता से अपने भक्तों की पुकार सदा सुनता है, यह सोचकर हम अवश्य उसके लिये पुरुषार्थ करें ॥२॥

    टिप्पणी

    भगवान् यास्कमुनि ने कहा है−धर्म के साक्षात् करनेवाले ऋषि हुए, उन्होंने छोटों, धर्म के साक्षात् न करनेवालों को उपदेश द्वारा मन्त्र दिये थे-निरु० १।२० ॥ २−(कत्) कथम् (उ) एव (स्तुवन्तः) स्तुतिं कुर्वन्तः (ऋतयन्त) सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। ऋत-क्यच्, आत्मनेपदत्त्वम्, ईत्वं दीर्घाभावोऽडभावश्च च्छान्दसः। अर्तीयन्। ऋतं सत्यधर्ममैच्छन् (देवता) देवतासु। विद्वत्सु (ऋषिः) मन्त्रार्थद्रष्टा। ऋषिर्दर्शनात्-निरु० १।११। साक्षात्कृतधर्म्माण ऋषयो बभूवुस्तेऽवरेभ्योऽसाक्षात्कृतधर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान्त्सम्प्रादुः-निरु० १।२० (कः) (विप्रः) मेधावी (ओहते) समन्तादूहते तर्कयति (कदा) कस्मिन् काले (हवम्) आह्वानम् (मघवन्)। हे बहुपूजनीय (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (सुन्वतः) तत्त्वरसं संस्कुर्वतः (कत्) कथम् (उ) एव (स्तुवतः) स्तुतिं कुर्वतः पुरुषस्य (आ) समन्तात् (गमः) अगमः। प्राप्तवानसि ॥

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    विषय

    सन्वतः स्तुवतः

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! (सतुवन्त:) = स्तुति करनेवाले लोग (उ) = निश्चय से (कत्) = कैसे (ऋतयन्त) = ऋत की कामनावाले होते हैं। प्रभु के सच्चे स्तोता अवश्य अपने जीवन को ऋतवाला बनाते हैं। (क:) = कोई विरला ही (देवता) = दिव्यगुणोंवाला, (ऋषिः) = तत्त्वद्रष्टा (विप्रः) = अपना पूरण करनेवाला ज्ञानी (ओहते) = आपका विचार करता है। २. हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् ! (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (कदा) = कब (सुन्वत:) = इस यज्ञशील पुरुष की (हवम्) = पुकार को आप सुनते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु का स्तोता ऋत का आचरण करता है। ज्ञानीदेव प्रभु का विचार करते हैं। प्रभु यज्ञशील स्तोताओं की पुकार को सुनते हैं। यह प्रभु का स्तोता 'प्रस्कण्व' मेधावी बनता है। यह पुष्ट इन्द्रियोंवाला 'पुष्टिगु' होता है। यह प्रस्कण्व ही अगले सूक्त के १-२ मन्त्रों का ऋषि है, ३-४ मन्त्रों का पुष्टिा। ये कहते हैं कि -

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    भाषार्थ

    (देवते) हे परमेश्वर! (ऋतयन्तः) सत्यस्वरूप आपको चाहनेवाली, और आपकी (स्तुवन्तः) स्तुतियाँ करनेवाले (कत् उ) कितने ही हैं, परन्तु (कः) कोई (विप्रः) मेधावी (ऋषिः) ऋषि ही, अपने जीवन में (ओहते) आपका वहन करता है। (मघवन् इन्द्र) हे ऐश्वर्यशाली परमेश्वर! (कदा) कब (सुन्वतः) भक्तिरसवाले उपासक की (हवम्) पुकार की ओर (आ गमः) आप आते हैं, और (कत् उ) किस ही (स्तुवतः) स्तोता की (हवम्) पुकार की ओर (आ गमः) आप आते हैं, [इसे कोई नहीं जानता।]

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    विषय

    ईश्वरोपासना।

    भावार्थ

    (ऋतयन्तः) सत्य ज्ञान को प्राप्त करने की इच्छा करने वाले जिज्ञासु पुरुष (कत् उ स्तुवन्तः) तेरी कब स्तुति करते हैं ? और (देवेषु) देव-विद्वानों के बीच में (कः) कोई ही (विप्रः) मेधावी (ऋषिः) मन्त्र द्रष्टा पुरुष (ओहते) उसकी तर्कना करता है ? हे (मघवन् इन्द्र) ऐश्वर्यवन् इन्द्र परमेश्वर ! (सुन्वतः) तेरा स्मरण करनेहारे पुरुष के (हवम्) पुकार को तू (कदा) कब सुनता और (स्तुवतः) स्तुति करते हुए पुरुष के पास तू (कत् उ) कभी (आगमः) प्राप्त होजाता है ? यह सब रहस्य हम नहीं कह सकते। विद्वान् ज्ञानी लोग तुझे कब स्तुति करते हैं विद्वान् तुझे क्या कल्पना करता है ? और योगी तुझे कब स्मरण करता है और तू उसे कब प्राप्त होता है ? ये सब रहस्य गुप्त हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—मेध्यातिथिः॥ देवता—इन्द्रः॥ छन्दः- बार्हतः प्रगाथः (बृहती+सतोबृहती)॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Who is the seer and scholar among those who adore you, honour you by yajna, or do homage to your refulgence, that can deliberate on you and understand you? When would you, O lord of honour and glory, Indra, respond to the call of the sage who presses the soma for you? When would you grace the yajnic home of the celebrant?

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    Translation

    How do the men adoring and translating in to action the righteousness attain you, O mighty God, who, the wise one among the persons enlightened, as a seer try to understand you through the process of reasoning? O master of all wealth when you attend the call of the man who performs Yajna. When you come to the devotee praying you?

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    Translation

    How do the men adoring and translating in to action the righteousness attain you, O mighty God, who, the wise one among the persons enlightened, as a seer try to understand you through the process of reasoning? O master of all wealth when you attend the call of the man who performs Yajna. When you come to the devotee praying you?

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    Translation

    O God, how do the truth-seekers praise Thee? Who is the wise person, capable of realising the real import of the Vedic verses, that discusses about Thee. When dost Thou, the Lord of all fortunes, hear the call of Thy devotee? When dost Thou come to him who sings Thy praises?

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    भगवान् यास्कमुनि ने कहा है−धर्म के साक्षात् करनेवाले ऋषि हुए, उन्होंने छोटों, धर्म के साक्षात् न करनेवालों को उपदेश द्वारा मन्त्र दिये थे-निरु० १।२० ॥ २−(कत्) कथम् (उ) एव (स्तुवन्तः) स्तुतिं कुर्वन्तः (ऋतयन्त) सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। ऋत-क्यच्, आत्मनेपदत्त्वम्, ईत्वं दीर्घाभावोऽडभावश्च च्छान्दसः। अर्तीयन्। ऋतं सत्यधर्ममैच्छन् (देवता) देवतासु। विद्वत्सु (ऋषिः) मन्त्रार्थद्रष्टा। ऋषिर्दर्शनात्-निरु० १।११। साक्षात्कृतधर्म्माण ऋषयो बभूवुस्तेऽवरेभ्योऽसाक्षात्कृतधर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान्त्सम्प्रादुः-निरु० १।२० (कः) (विप्रः) मेधावी (ओहते) समन्तादूहते तर्कयति (कदा) कस्मिन् काले (हवम्) आह्वानम् (मघवन्)। हे बहुपूजनीय (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (सुन्वतः) तत्त्वरसं संस्कुर्वतः (कत्) कथम् (उ) एव (स्तुवतः) स्तुतिं कुर्वतः पुरुषस्य (आ) समन्तात् (गमः) अगमः। प्राप्तवानसि ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরস্য মহিমোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (কৎ উ) কিভাবে (স্তুবন্তঃ) স্তোতাগণ (ঋতয়ন্ত) সত্যধর্মকে চেয়েছেন ? (দেবতা) বিদ্বানদের মধ্যে (কঃ) কোন (ঋষিঃ) ঋষি [ধর্মের সাক্ষাৎকারী], (বিপ্র) বুদ্ধিমান পুরুষ (ওহতে) সকল প্রকারে বিচার করে ? (মঘবন্) হে অতিপূজনীয় ! (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [পরম ঐশ্বর্যবান পরমাত্মা] (সুন্বতঃ) তত্ত্ব নিষ্পাদনকারী, (স্তুবতঃ) স্তোতার (হবম্) আহ্বান (কদা) কখন ও (কৎ) কিভাবে (উ) নিশ্চিতরূপে (আ) সব প্রকারে (গমঃ) তোমার প্রতি পৌঁছেছে ॥২॥

    भावार्थ

    যখন ঋষি-মহাত্মাগণও পরমাত্মা পর্যন্ত সঠিকভাবে পৌঁছতে পারে না, তো আমরা অল্পজ্ঞ হয়ে সে পর্যন্ত কীভাবে পারব ? আমরা এমন শঙ্কা করছি। কিন্তু পরমাত্মা নিজের শক্তিমত্তাতে নিজের আহ্বান সদা শ্রবণ করেন, এটা ভেবে আমরা অবশ্যই পুরুষার্থ করি ॥২॥

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    भाषार्थ

    (দেবতে) হে পরমেশ্বর! (ঋতয়ন্তঃ) সত্যস্বরূপ আপনার কামনাকারী, এবং আপনার (স্তুবন্তঃ) স্তোতা (কৎ উ) কতই আছে, কিন্তু (কঃ) কোনো (বিপ্রঃ) মেধাবী (ঋষিঃ) ঋষিই, নিজের জীবনে (ওহতে) আপনার বহন করে। (মঘবন্ ইন্দ্র) হে ঐশ্বর্যশালী পরমেশ্বর! (কদা) কখন (সুন্বতঃ) ভক্তিরসসম্পন্ন উপাসকের (হবম্) আহ্বানের দিকে (আ গমঃ) আপনি আসেন, এবং (কৎ উ) কোন (স্তুবতঃ) স্তোতার (হবম্) আহ্বানের দিকে (আ গমঃ) আপনি আসেন, [তা কেউ জানে না।]

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