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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 52/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त-५२
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    व॒यं घ॑ त्वा सु॒ताव॑न्त॒ आपो॒ न वृ॒क्तब॑र्हिषः। प॒वित्र॑स्य प्र॒स्रव॑णेषु वृत्रह॒न्परि॑ स्तो॒तार॑ आसते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒यम् । घ॒ । त्वा॒ । सु॒तऽव॑न्त: । आप॑: । न वृ॒क्तऽब॑र्हिष: ॥ प॒वित्र॑स्य । प्र॒ऽस्रव॑णेषु । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । परि॑ । स्तो॒तार॑: । आ॒स॒ते॒ ॥५२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयं घ त्वा सुतावन्त आपो न वृक्तबर्हिषः। पवित्रस्य प्रस्रवणेषु वृत्रहन्परि स्तोतार आसते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वयम् । घ । त्वा । सुतऽवन्त: । आप: । न वृक्तऽबर्हिष: ॥ पवित्रस्य । प्रऽस्रवणेषु । वृत्रऽहन् । परि । स्तोतार: । आसते ॥५२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 52; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (वृत्रहन्) हे शत्रुनाशक ! [परमात्मन्] (सुतवन्तः) तत्त्व के धारण करनेवाले, (वृक्तबर्हिषः) हिंसा त्यागनेवाले [अथवा वृद्धि पानेवाले विद्वान्], (स्तोतारः) स्तुति करनेवाले (वयम्) हम लोग (घ) निश्चय करके (त्वाम्) तुझको (परि आसते) सेवते हैं, (पवित्रस्य) शुद्ध स्थान के (प्रस्रवणेषु) झरनों में (आपः न) जैसे जल [ठहरते हैं] ॥१॥

    भावार्थ

    तत्त्वग्राही विद्वान् लोग उस परमात्मा के ही ध्यान में शान्ति पाते हैं, जैसे बहता हुआ पानी शुद्ध चौरस स्थान में आकर ठहर जाता है ॥१॥

    टिप्पणी

    यह तृच ऋग्वेद में है-८।३३।१-३; सामवेद उ० २।२। तृच १२ और आगे है-अथर्व० २०।७।१४-१६, तथा मन्त्र १ साम० पू० ३।७।९ ॥ १−(वयम्) उपासकाः (घ) एव (त्वा) त्वाम् (सुतवन्तः) तत्त्वस्य धारकाः (आपः) जलानि (न) यथा (वृक्तबर्हिषः) वृजी वर्जने-क्त। श्वीदितो निष्ठायाम्-इट्प्रतिषेधः। बृंहेर्नलोपश्च। उ० २।१०९। बर्ह परिभाषणहिंसाच्छादनेषु-इसि यद्वा वृक आदाने-क्त+बृहि वृद्धौ-इसि, नलोपः। त्यक्तहिंसाः। प्राप्तवृद्धयः। ऋत्विजः-निघ० ३।१८। (पवित्रस्य) शुद्धदेशस्य (प्रस्रवणेषु) निर्झरेषु (वृत्रहन्) हे शत्रुनाशक (परि) सर्वतः (स्तोतारः) स्तावकाः (परि आसते) उत्तमपुरुषस्य प्रथमपुरुषः। उपास्महे। सेवामहे ॥

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    विषय

    सुतावन्तः-वृक्तबर्हिषः

    पदार्थ

    १. हे (वृत्रहन्) = वासनाविनाशक प्रभो! (वयम्) = हम (घ) = निश्चय से (सुतावन्त:) = सोम का सम्पादन करनेवाले व यज्ञशील बनकर (आपः न) = जलों के समान निरन्तर शान्तभाव से कर्मों में प्रवाहित होते हुए (वृक्तबर्हिषः) = वासनाशून्य हृदयान्तरिक्षवाले (स्तोतार:) = स्तोता बनकर त्वा परि आसते आपका सेवन करनेवाले हों। २. आपकी उपासना करते हुए हम (पवित्रस्य) = ज्ञान के [नहि ज्ञानेन सदशं पवित्रमिह विद्यते] (प्रस्त्रवणेष) = प्रवाहों में अपने को पवित्र कर पाते हैं। आपकी उपासना हमें ज्ञान-जलों में स्नान के द्वारा पवित्र करनेवाली होती है।

    भावार्थ

    हम सोम का सम्पादन करते हुए प्रभु का उपासन करते हैं। ज्ञान-जलों के प्रवाहों में अपने को पवित्र करते हैं।

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    भाषार्थ

    (वयम्) हम (वृक्तबर्हिषः) भक्तियज्ञों के ऋत्विक् (घ) निश्चय से, (सुतावन्तः) भक्तिरस को निष्पादित किये हुए हैं, और भक्तिरस (आपः न) जलों के सदृश (त्वा) आपकी ओर प्रवाहित हो रहे हैं। (वृत्रहन्) हे अविद्यादि आवरणों को छिन्न-भिन्न करनेवाले! (पवित्रस्य) पवित्र भक्तिरस के (प्रस्रवणेषु) प्रवाहों में बहते हुए (स्तोतारः) स्तोता लोग, आसन लगाये (परि) सब ओर (आसते) बैठे हुए हैं।

    टिप्पणी

    [वृक्तबर्हिषः=ऋत्विजः (निघं০ ३.१८)।]

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    विषय

    ईश्वर स्तुति।

    भावार्थ

    हे (वृत्रहन्) आवरणकारी अन्धकार के नाशक ! (पवित्रस्य) पवित्र, पावन जल और ज्ञान के (प्रस्रवणेषु) झरनों के तटों पर (स्तोतारः) तेरे स्तुति कर्त्ता लोग (परि आसते) विराजते हैं। और (वयं ध) हम भी (सुतावन्तः) गुरु शिष्य के वादों द्वारा निर्णीत ज्ञान से सम्पन्न (आपः नः) जल जिस प्रकार (वृक्तबर्हिषः) वृद्धिशील धान्यों को अपने वेग से गिरा देते हैं उसी प्रकार (वृक्तबर्हिषः) वृद्धिशील काम राग का उच्छेद करने वाले असंग पुरुष भी (त्वा परि आस्महे) तेरे आश्रय होकर बैठते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेध्या तिथि ऋषिः। इन्दो देवता। बृहत्यः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Indra, destroyer of evil, darkness and suffering, we, your celebrants, having distilled the soma, spread and occupied the holy grass, sit and wait on the vedi for your presence in the flux of life as holy performers, while the flow of pure immortality continues all round in the dynamics of existence.

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    Translation

    O destroyer of intellectual darkness, we blessed with children and free form nescience and violence sit in communion of yours like the waters in the streams of clear place.

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    Translation

    O destroyer of intellectual darkness, we blessed with children and free form nescience and violence sit in communion of yours like the waters in the streams of clear place.

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    Translation

    O Destroyer of forces of evil and ignorance, we, the devotee having shed off feelings of hatred and attachment, and gained some inkling of realisation of Thy knowledge, have now fully entrusted ourselves to Thee, just as waters, felling off the growing paddy, find their permanent abode in springs of pure water.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह तृच ऋग्वेद में है-८।३३।१-३; सामवेद उ० २।२। तृच १२ और आगे है-अथर्व० २०।७।१४-१६, तथा मन्त्र १ साम० पू० ३।७।९ ॥ १−(वयम्) उपासकाः (घ) एव (त्वा) त्वाम् (सुतवन्तः) तत्त्वस्य धारकाः (आपः) जलानि (न) यथा (वृक्तबर्हिषः) वृजी वर्जने-क्त। श्वीदितो निष्ठायाम्-इट्प्रतिषेधः। बृंहेर्नलोपश्च। उ० २।१०९। बर्ह परिभाषणहिंसाच्छादनेषु-इसि यद्वा वृक आदाने-क्त+बृहि वृद्धौ-इसि, नलोपः। त्यक्तहिंसाः। प्राप्तवृद्धयः। ऋत्विजः-निघ० ३।१८। (पवित्रस्य) शुद्धदेशस्य (प्रस्रवणेषु) निर्झरेषु (वृत्रहन्) हे शत्रुनाशक (परि) सर्वतः (स्तोतारः) स्तावकाः (परि आसते) उत्तमपुरुषस्य प्रथमपुरुषः। उपास्महे। सेवामहे ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমাত্মোপাসনোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বৃত্রহন্) হে শত্রুনাশক! [পরমাত্মন্] (সুতবন্তঃ) তত্ত্ব ধারক/ধারণকারী, (বৃক্তবর্হিষঃ) হিংসা ত্যাগকারী [অথবা বৃদ্ধি লাভকারী বিদ্বান], (স্তোতারঃ) স্তোতা (বয়ম্) আমরা (ঘ) নিশ্চিতরূপে (ত্বাম্) আপনাকে (পরি আসতে) সেবন-উপাসনা করি, (পবিত্রস্য) শুদ্ধ স্থানের (প্রস্রবণেষু) প্রস্রবণে/ঝরনায় (আপঃ ন) যেমন জল [স্থির হয়]।।১।।

    भावार्थ

    যেমন প্রবাহমান জল শুদ্ধ সমতল স্থানে এসে স্থির হয়, তেমনই তত্ত্বগ্রাহী বিদ্বানগণ পরমাত্মার ধ্যানে শান্তি লাভ করেন ॥১॥ এই তৃচ ঋগ্বেদে আছে-৮।৩৩।১-৩; সামবেদ উ০ ২।২। তৃচ ১২ এবং আছে-অথর্ব০ ২০।৫৭।১৪-১৬, তথা মন্ত্র ১ সাম০ পূ০ ৩।৭।৯ ॥

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    भाषार्थ

    (বয়ম্) আমরা (বৃক্তবর্হিষঃ) ভক্তিযজ্ঞের ঋত্বিক্ (ঘ) নিশ্চিতরূপে, (সুতাবন্তঃ) ভক্তিরস নিষ্পাদিত করেছি, এবং ভক্তিরস (আপঃ ন) জলের সদৃশ (ত্বা) আপনার দিকে প্রবাহিত হচ্ছে। (বৃত্রহন্) হে অবিদ্যাদি আবরণ ছিন্ন-ভিন্নকারী! (পবিত্রস্য) পবিত্র ভক্তিরসের (প্রস্রবণেষু) প্রবাহে প্রবাহমান (স্তোতারঃ) স্তোতাগণ, আসন করে (পরি) সবদিকে (আসতে) বসে আছে।

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