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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 66/ मन्त्र 2
    ऋषिः - विश्वमनाः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६६
    31

    ए॒वा नू॒नमुप॑ स्तुहि॒ वैय॑श्व दश॒मं नव॑म्। सुवि॑द्वांसं च॒र्कृत्यं॑ च॒रणी॑नाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । नू॒नम् । उप॑ । स्तु॒हि॒ । वैय॑श्व । द॒श॒मम् । नव॑म् ॥ सुऽवि॑द्वांसम् । च॒र्कृत्य॑म् । च॒रणी॑नाम् ॥६६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा नूनमुप स्तुहि वैयश्व दशमं नवम्। सुविद्वांसं चर्कृत्यं चरणीनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । नूनम् । उप । स्तुहि । वैयश्व । दशमम् । नवम् ॥ सुऽविद्वांसम् । चर्कृत्यम् । चरणीनाम् ॥६६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 66; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ऐश्वर्यवान् पुरुष के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (वैयश्व) हे विविध वेगवाले पुरुष ! (दशमम्) प्रकाशमान [अथवा जीवन के दसवें काल तक] (नवम्) स्तुतियोग्य [वा नवीन अर्थात् बलवान्], (सुविद्वांसम्) बड़े विद्वान् और (चरणीनाम्) चलनेवाले मनुष्यों में (चर्कृत्यम्) अत्यन्त करने योग्य कर्मों में चतुर की (एव) निश्चय करके (नूनम्) अवश्य (उप) आदर से (स्तुहि) तू स्तुति कर ॥२॥

    भावार्थ

    जो पुरुष बड़े प्रतापी, जीवन के सौ वर्ष में से नब्बे वर्ष के ऊपर भी अर्थात् अन्त काल तक आत्मिक और शारीरिक बलवाले कर्मकुशल वीर होवें, उनके गुणों को सब मनुष्य ग्रहण करें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(एव) निश्चयेन (नूनम्) अवश्यम् (उप) पूजायाम् (स्तुहि) प्रशंस (वैयश्व) वि+अश्व-अण्। न य्वाभ्यां पदान्ताभ्यां पूर्वौ तु ताभ्यामैच्। पा० ७।३।३। इति ऐकारागमः। अश्वो वेगः। हे विविधवेगवन् पुरुष (दशमम्) प्रथेरमच्। उ० ।६८। दशि भाषायां दीप्तौ च-अमच्, नकारलोपः। दीप्यमानम्। यद्वा दशानां पूरणः, डटि मुडागमः। पुरुषाणां शतायुष्यनियमात् तस्यायुषो दशधा विभागे नवत्यधिकायामवस्थायां वर्तमानम्। अतिवृद्धावस्थापर्यन्तम् (नवम्) स्तुत्यम्। नवीनं बलवन्तम् (सुविद्वांसम्) अतिशयेन ज्ञानिनम् (चर्कृत्यम्) अ० ६।९८।१। यङ्लुगन्तात् करोतेः-क्त, ततः साध्वर्थे-यत्। चर्कृतेषु अतिशयेन कर्तव्येषु कर्मसु कुशलम् (चरणीनाम्) अतिसृधृ०। उ० २।१०२। चर गतिभक्षणयोः-अनि। चर्षणीनां गमनशीलानां मनुष्याणाम् ॥

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    विषय

    दशमं नवम्

    पदार्थ

    १. (एवा) = गतिशीलता के द्वारा कर्तव्यकर्मों को करने के द्वारा हे (वैयश्व) = उत्तम इन्द्रियाश्यों वाले स्तोता! तू (नूनम्) = निश्चय से (उपस्तुहि) = उस प्रभु का स्तवन कर जोकि (दशमम्) = [दश्यन्ते शत्रवः अनेन]-हमारे शत्रुओं का विध्वंस करनेवाले हैं और अतएव (नवम्) = [नु स्तुतौ] स्तुति के योग्य हैं। २. उस प्रभु का स्तवन कर जोकि (सुविद्वांसम्) = उत्तम ज्ञानी हैं और (चरणीनाम्) = कर्तव्य-कर्मों के करने में तत्पर मनुष्यों के (चर्कत्यम्) = फिर-फिर नमस्कार करने योग्य हैं। वस्तुत: यह प्रभु-नमस्कार ही उन्हें 'चरणि' बनाता है। प्रभु-नमस्कार से शक्ति-सम्पन्न बनकर वे कर्तव्यकर्म कर पाते हैं।

    भावार्थ

    हम 'दशम-नव-सुविद्वान-नमस्करणीय' प्रभु का स्तवन करते हुए उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाले व शक्ति-सम्पन्न बनकर कर्तव्यकर्म करने में तत्पर रहें।

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    भाषार्थ

    (वैयश्व) इन्द्रियरूपी अश्वों की चञ्चलताओं और मनरूपी अश्व के संकल्प-विकल्पों से विगत हुए हे उपासक! तू (नूनम्) निश्चयपूर्वक (दशमम्) १० लक्ष्मियोंवाले, (नवम्) स्तुत्य तथा सदा नवीन, (सुविद्वांसम्) सम्यक्-वेत्ता, (चरणीनाम्) और गगनसंचारी लोक-लोकान्तरों के (चर्कृत्यम्) कर्त्ता की (एव) ही (उप स्तुहि) उपासनाविधि द्वारा स्तुति किया कर।

    टिप्पणी

    [वैयश्व=व्यश्व=वि+अश्व। अश्व=इन्द्रियाँ और मन। दशमम्=दश+मा (लक्ष्मी, सम्पत्ति)। दश=धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धीः, विद्या, सत्य, अक्रोध (मनु০)। चर्कृत्यम्=कृञ् करणे। नवम्=नु स्तुतौ; तथा नवीन। चरणीनाम्=विचरनेवाले, गतिशील।]

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    विषय

    परमेश्वर और राजा।

    भावार्थ

    (नूनम्) निश्चय से, हे (वैयश्व) विनीत इन्द्रियरूप अश्वों बाले ! जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (दशमं) नवों दिशाओं से भी ऊपर दशवें और (नवम्) सदा नवीन सदा तरुण एवं स्तुति योग्य (सुविद्वासं) उत्तम ज्ञानवान् सब कुछ जानने वाले (चरणीनाम्) चरणशील, सदाचारी साधकों के लिये (चर्कृत्यम्) सदा उपासना करने योग्य परमेश्वर और (एवं) उसी प्रकार (दशमं) दशमी अवस्था को प्राप्त ९० वर्ष से भी अधिक शायु वाले (नवम) सदा स्तुत्य उत्तम विद्वान (चरणीनाम्) व्रतचर्याओं के (चर्कृत्यम्) नित्य आचरण करने वाले (सुविद्वांसं) उत्तम विद्वान् गुरु की भी (उप स्तुहि) स्तुति और आदर करो। यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिताह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः॥ राजा के पक्ष में—हे (वैयश्व) साधारण पुरुष ! अश्चरहित पदाते ! तू विद्वान् (चरणीनां) सेनाओं के बनाने वाले विद्वान् (दशमं) नव प्राणों पर विराजमान १० वें आत्मा के समान नवों पदों के ऊपर विराजमान दशवें सेनापति का (स्तुहि) गुण वर्णन कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमनाः वैयश्व ऋषिः। इन्द्रो देवता। उष्णिहः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    O child of the holy sage of mental and moral discipline, verily worship Indra only, the lord ever new though eternal, worshipped as the tenth supreme over all among humans, lord omniscient solely worthy of the worship of dynamic humanity.

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    Translation

    O controller of organs and carnal huntings you invoke God Almighty alone who is self-refulgent (Dashruvah). adorable, all-knowledge and inpelling of all the moving forces.

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    Translation

    O controller of organs and carnal hunting’s you invoke God Almighty alone who is self-refulgent (Dashruvah) adorable, all-knowledge and impelling of all the moving forces.

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    Translation

    O man, who has all sense-organs under full control, verily do praise Him, Who is the Tenth One above all the nine directions and Who is ever the New One and knows all full well and Who is ever Worthy to be worshipped by the devotees, practising deep meditation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(एव) निश्चयेन (नूनम्) अवश्यम् (उप) पूजायाम् (स्तुहि) प्रशंस (वैयश्व) वि+अश्व-अण्। न य्वाभ्यां पदान्ताभ्यां पूर्वौ तु ताभ्यामैच्। पा० ७।३।३। इति ऐकारागमः। अश्वो वेगः। हे विविधवेगवन् पुरुष (दशमम्) प्रथेरमच्। उ० ।६८। दशि भाषायां दीप्तौ च-अमच्, नकारलोपः। दीप्यमानम्। यद्वा दशानां पूरणः, डटि मुडागमः। पुरुषाणां शतायुष्यनियमात् तस्यायुषो दशधा विभागे नवत्यधिकायामवस्थायां वर्तमानम्। अतिवृद्धावस्थापर्यन्तम् (नवम्) स्तुत्यम्। नवीनं बलवन्तम् (सुविद्वांसम्) अतिशयेन ज्ञानिनम् (चर्कृत्यम्) अ० ६।९८।१। यङ्लुगन्तात् करोतेः-क्त, ततः साध्वर्थे-यत्। चर्कृतेषु अतिशयेन कर्तव्येषु कर्मसु कुशलम् (चरणीनाम्) अतिसृधृ०। उ० २।१०२। चर गतिभक्षणयोः-अनि। चर्षणीनां गमनशीलानां मनुष्याणाम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ঐশ্বর্যবতঃ পুরুষস্য লক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বৈয়শ্ব) হে বিবিধ বেগবান্ পুরুষ ! (দশমম্) প্রকাশমান [অথবা জীবনের দশম কাল পর্যন্ত] (নবম্) স্তুতিযোগ্য [বা নবীন অর্থাৎ বলবান্], (সুবিদ্বাংসম্) পরম বিদ্বান্ ও (চরণীনাম্) চলনশীল মনুষ্যদের মধ্যে (চর্কৃত্যম্) কর্তব্যকর্মকুশল পুরুষের (এব) নিশ্চিতরূপে, (নূনম্) অবশ্যই (উপ) আদরপূর্বক (স্তুহি) তুমি স্তুতি করো॥২॥

    भावार्थ

    যে পুরুষ প্রতাপী, শতায়ু জীবনকালের মধ্যে নব্বই বর্ষের অধিক অর্থাৎ অন্তকাল পর্যন্ত আত্মিক ও শারীরিক বলযুক্ত, কর্মকুশল, বীর রূপে জীবন অতিবাহিত করেছেন, তাঁর গুণ-সমূহ সকল মনুষ্য গ্রহণ করুক ॥২॥

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    भाषार्थ

    (বৈয়শ্ব) ইন্দ্রিয়রূপী অশ্বের চঞ্চলতা এবং মনরূপী অশ্বের সঙ্কল্প-বিকল্প হতে বিগত হে উপাসক! তুমি (নূনম্) নিশ্চয়পূর্বক (দশমম্) ১০ লক্ষ্মীযুক্ত, (নবম্) স্তুত্য তথা সদা নবীন, (সুবিদ্বাংসম্) সম্যক্-বেত্তা, (চরণীনাম্) এবং গগনসঞ্চারী লোক-লোকান্তরের (চর্কৃত্যম্) কর্ত্তার (এব)(উপ স্তুহি) উপাসনাবিধি দ্বারা স্তুতি করো।

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