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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 83 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 83/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शंयुः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-८३
    47

    ये ग॑व्य॒ता मन॑सा॒ शत्रु॑माद॒भुर॑भिप्र॒घ्नन्ति॑ धृष्णु॒या। अध॑ स्मा नो मघवन्निन्द्र गिर्वणस्तनू॒पा अन्त॑मो भव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । ग॒व्य॒ता । मन॑सा । शत्रु॑म् । आ॒ऽद॒भु: । अ॒भि॒ऽप्र॒घ्नन्ति॑ । धृ॒ष्णु॒ऽया ॥ अघ॑ । स्म॒ । न॒: । म॒घ॒ऽव॒न् । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒ण॒: । त॒नू॒ऽपा: । अन्त॑म: । भ॒व॒ ॥८३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये गव्यता मनसा शत्रुमादभुरभिप्रघ्नन्ति धृष्णुया। अध स्मा नो मघवन्निन्द्र गिर्वणस्तनूपा अन्तमो भव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । गव्यता । मनसा । शत्रुम् । आऽदभु: । अभिऽप्रघ्नन्ति । धृष्णुऽया ॥ अघ । स्म । न: । मघऽवन् । इन्द्र । गिर्वण: । तनूऽपा: । अन्तम: । भव ॥८३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 83; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो (धृष्णुया) निर्भय मनुष्य (गव्यता) भूमि चाहनेवाले (मनसा) मन से (शत्रुम्) वैरी को (अभिप्रघ्नन्ति) घेर लेते हैं और (आदभुः) मार डालते हैं, (मघवन्) हे महाधनी ! (गिर्वणः) हे स्तुतियों से सेवनीय (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (अध स्म) अवश्य ही (नः) हमारे (तनूपाः) शरीरों का रक्षक और (अन्तमः) अत्यन्त समीपवाला (भव) हो ॥२॥

    भावार्थ

    जो शूर वीर पुरुष राज्य की वृद्धि चाहनेवाले शत्रुनाशक होवें, राजा उनके विश्वास से प्रजापालन करे ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(ये) जनाः (गव्यता) गो-क्यच्, शतृ। गां भूमिमिच्छता (मनसा) चित्तेन (शत्रुम्) (आदभुः) लडर्थे लिट्। आदेभुः। समन्ताद् हिंसन्ति (अभिप्रघ्नन्ति) हन हिंसागत्योः। सर्वतः प्रगच्छन्ति। प्राप्नुवन्ति (धृष्णुया) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेर्याच्। धृष्णवः। प्रगल्भाः (अध) अवश्यम् (स्म) एव (नः) अस्माकम् (मघवन्) हे बहुधनयुक्त (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (गिर्वणः) हे स्तुतिभिः सेवनीय (तनूपाः) शरीराणां रक्षकः (अन्तमः) अन्तिकतमः। अतिसमीपस्थः (भव) ॥

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    विषय

    तनूपा:-अन्तम:

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार उत्तम घरों में रहते हुए हम वे बनें (ये) = जो (गव्यता मनसा) = ज्ञान की वाणियों को अपनाने की कामनावाले मन से शत्रुम् (आदभुः) = कामरूप शत्रु को हिंसित करते हैं और (धृष्णुया) = शत्रुधर्षण शक्ति के द्वारा (अभिप्रघ्नन्ति) = इन वासनारूप शत्रुओं का समन्तात् विनाश करते हैं। २. (अध) = अब हे (मघवन् इन्द्र) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो! शत्रु-विद्रावक प्रभो! आप (स्म) = निश्चय से (न:) = हमारे होइए हम आपकी ओर झुकाववाले हों। हे (गिर्वण:) = ज्ञान की वाणियों से सम्भजनीय प्रभो! आप हमारे (तनूपा:) = शरीरों के रक्षक (अन्तमः) = अन्तिकतम मित्र (भव) = होइए।

    भावार्थ

    हम ज्ञान की वाणियों की कामनाबाले होते हुए शत्रुओं का धर्षण करें। प्रभु के मित्र बनें। प्रभु हमारे रक्षक व अन्तिकतम मित्र हों। रभु की मित्रता में शत्रुओं का धर्षण करनेवाला होते हुए हम मधुर इच्छाओंवाले 'मधुच्छन्दाः' बनें। मधुच्छन्दा ही अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (ये) जो उपाासक, (गव्यता) स्तुतिप्रिय तथा (धृष्णुया) पराभवशील (मनसा) मन द्वारा, मनोबल द्वारा, (शत्रुम्) शत्रुरूप अविद्या को (आदभुः) दबा चुके हैं, (अभिप्रघ्नन्ति) और साक्षात् उसका हनन करते हैं, (अध) तदनन्तर (मघवन् गिर्वणः इन्द्र) हे ऐश्वर्यशाली, तथा वेदवाणियों द्वारा भजनीय परमेश्वर! आप, (नः) ऐसे हम उपासकों के (तनूपाः) शरीरों के रक्षक हो जाते हैं, और (अन्तमः) अधिक समीप तथा अन्तिम-लक्ष्य (भव) हो जाते हैं।

    टिप्पणी

    [गव्यता=गो (स्तुति)+क्यच् (इच्छा)+शतृ+तृतीयैकवचन।]

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    विषय

    राजा।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) राजन् ! (ये) जो पुरुष (गव्यता मनसा) भूमि और गौ आदि पशु लेने की इच्छा वाले मन से (शत्रुम्) शत्रु को (आदमुः) मारने में समर्थ हैं और जो (धृष्णुया) शत्रु को घर्षण करने वाली शक्ति से (अभि प्र घ्नन्ति) मार डालते हैं ऐसे पुरुषों के होते हुए हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! हे (गिर्वणः) स्तुत्य ! (इन्द्र) हे शत्रुनाशक ! तू (तनूपाः) हमारे शरीरों का रक्षक होकर (नः अन्तमः) हमारा अति समीपतम मित्र एवं रक्षक होकर (भव) रह।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयु ऋषिः। इन्द्रो देवता। १ बृहती, २ पंक्तिः। द्वयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    India Devata

    Meaning

    Indra, lord of peace and power, exalted by words of adoration, give us warriors who, with their love of cows, lands and speech, and with the force of their mind and strength of arm and courage, press down the enemies and destroy their arms and armies, and then, also, O lord protector of our person and body politic, be with us at the closest, deep within.

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    Translation

    O Almighty God, O worshipable Lord, Praiseworthy one even in spite of the men who smite the foes with the mind intending land and cows and who- kill the enemies with surprassing power, you are the guardian of my body and you become my nearest -one.

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    Translation

    O Almighty God, O worshipable Lord, Praiseworthy one even in spite of the men who smite the foes with the mind intending land and cows and who kill the enemies with surpassing power, you arc the guardian of my body and you become my nearest one.

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    Translation

    O Adorable, Mighty Lord of Destruction and Fortunes, there being people, who completely annihilate their overpowering force, with a mind to grab the lands and cattle of their enemy, latest Thee be the closest Protector of bodies.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(ये) जनाः (गव्यता) गो-क्यच्, शतृ। गां भूमिमिच्छता (मनसा) चित्तेन (शत्रुम्) (आदभुः) लडर्थे लिट्। आदेभुः। समन्ताद् हिंसन्ति (अभिप्रघ्नन्ति) हन हिंसागत्योः। सर्वतः प्रगच्छन्ति। प्राप्नुवन्ति (धृष्णुया) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेर्याच्। धृष्णवः। प्रगल्भाः (अध) अवश्यम् (स्म) एव (नः) अस्माकम् (मघवन्) हे बहुधनयुक्त (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (गिर्वणः) हे स्तुतिभिः सेवनीय (तनूपाः) शरीराणां रक्षकः (अन्तमः) अन्तिकतमः। अतिसमीपस्थः (भव) ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যে) যে (ধৃষ্ণুয়া) নির্ভয় মনুষ্য (গব্যতা) ভূমি কামনাকারী (মনসা) মনযুক্ত (শত্রুম্) শত্রুকে (অভিপ্রঘ্নন্তি) চতুর্দিকে ঘিরে ফেলে এবং (আদভুঃ) বিনাশ করে, (মঘবন্) হে মহাধনী ! (গির্বণঃ) হে স্তুতি দ্বারা সেবনীয় (ইন্দ্র) ইন্দ্র ! [পরম ঐশ্বর্যবান্ রাজন্] (অধ স্ম) অবশ্যই (নঃ) আমাদের (তনূপাঃ) শরীরের রক্ষক এবং (অন্তমঃ) অত্যন্ত সমীপযুক্ত (ভব) হও ॥২॥

    भावार्थ

    যে সকল বীর পুরুষ রাজ্যের বৃদ্ধি কামনাকারী শত্রুনাশক হয়, রাজা তাঁদের বিশ্বাস দ্বারা প্রজাপালন করে ॥২॥

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    भाषार्थ

    (যে) যে উপাসক, (গব্যতা) স্তুতিপ্রিয় তথা (ধৃষ্ণুয়া) পরাভবশীল (মনসা) মন দ্বারা, মনোবল দ্বারা, (শত্রুম্) শত্রুরূপ অবিদ্যাকে (আদভুঃ) দমন করেছে, (অভিপ্রঘ্নন্তি) এবং সাক্ষাৎ উহার হনন করে, (অধ) তদনন্তর (মঘবন্ গির্বণঃ ইন্দ্র) হে ঐশ্বর্যশালী, তথা বেদবাণী দ্বারা ভজনীয় পরমেশ্বর! আপনি, (নঃ) এমন আমাদের উপাসকদের (তনূপাঃ) শরীরের রক্ষক হন, এবং (অন্তমঃ) অধিক সমীপ তথা অন্তিম-লক্ষ্য (ভব) হন।

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