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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 94 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 94/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९४
    27

    एन्द्र॒वाहो॑ नृ॒पतिं॒ वज्र॑बाहुमु॒ग्रमु॒ग्रास॑स्तवि॒षास॑ एनम्। प्रत्व॑क्षसं वृष॒भं स॒त्यशु॑ष्म॒मेम॑स्म॒त्रा स॑ध॒मादो॑ वहन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒न्द्र॒ऽवाह॑: । नृ॒ऽपति॑म् । वज्र॑ऽबाहुम् । उ॒ग्रम् । उ॒ग्रास॑: । त॒वि॒षास॑: । ए॒न॒म् ॥ प्रऽत्व॑क्षसम् । वृ॒ष॒भम् । स॒त्यऽशु॑ष्मम् । आ । ई॒म् । अ॒स्म॒ऽत्रा । स॒ध॒ऽमाद॑: । व॒ह॒न्तु॒ ॥९४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एन्द्रवाहो नृपतिं वज्रबाहुमुग्रमुग्रासस्तविषास एनम्। प्रत्वक्षसं वृषभं सत्यशुष्ममेमस्मत्रा सधमादो वहन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इन्द्रऽवाह: । नृऽपतिम् । वज्रऽबाहुम् । उग्रम् । उग्रास: । तविषास: । एनम् ॥ प्रऽत्वक्षसम् । वृषभम् । सत्यऽशुष्मम् । आ । ईम् । अस्मऽत्रा । सधऽमाद: । वहन्तु ॥९४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 94; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (नृपतिम्) मनुष्यों के स्वामी, (वज्रबाहुम्) भुजा पर वज्र रखनेवाले, (उग्रम्) प्रचण्ड (प्रत्वक्षसम्) [शत्रुओं के] रेत डालनेवाले, (वृषभम्) सुख की बरसा करनेवाले, (ईम्) प्राप्तियोग्य (एनम्) इस (सत्यशुष्मम्) सच्चे बल रखनेवाले [राजा] को (उग्रासः) प्रचण्ड, (तविषासः) बलवान् (सधमादः) मिलकर उत्सव मनानेवाले, (इन्द्रवाहः) ऐश्वर्यवान् राजा के वाहन [घोड़ा हाथी आदि] (अस्मत्रा) हमारे बीच में (आ आ वहन्तु) अवश्य ही लावें ॥३॥

    भावार्थ

    राजा अपने बलवान् सैनिकों के साथ शत्रुओं के मारने के उद्यत होवे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(आ) समन्तात् (इन्द्रवाहः) वह प्रापणे-ण्वि इन्द्रस्य वोढारोऽश्वगजादयः (नृपतिम्) (वज्रबाहुम्) हस्ते वज्रयुक्तम् (उग्रम्) प्रचण्डम् (उग्रासः) उग्राः (तविषासः) तवेर्णिद्वा। उ० १।४८। तव वृद्धौ-डिषच्, असुक् च। तविषाः। बलवन्तः (एनम्) (प्रत्वक्षसम्) गतिकारकोपपदयोः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं च। उ० ४।२२७। प्र+त्वक्षू तनूकरणे-असि। शत्रूणां प्रकर्षेण तनूकर्तारम् (वृषभम्) सुखस्य वर्षकम् (सत्यशुष्मम्) यथार्थवज्रोपेतम् (आ) समन्तात् (ईम्) प्राप्तव्यम् (अस्मत्रा) अस्मासु (सधमादः) सहमादयन्तः (वहन्तु) प्रापयन्तु ॥

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    विषय

    उग्र-प्रत्वक्षस-सत्यशुष्म

    पदार्थ

    १. प्राण जीवात्मा के साथ रहते हैं-उपनिषद् के शब्दों में उसी प्रकार जैसेकि पुरुष के साथ छाया। छाया पुरुष का साथ नहीं छोड़ती, प्राण आत्मा का साथ नहीं छोड़ते, इसीलिए प्राणों को यहाँ 'सधमाद:' जीव के साथ आनन्दित होनेवाला कहा गया है। ये प्राण जितेन्द्रिय पुरुष को प्रभु के प्रति ले-चलनेवाले हैं, अत: 'इन्द्रवाहः' कहलाते हैं। शक्तिशाली होने से 'उनासः' हैं और अत्यन्त बढ़े हुए होने से सब उन्नतियों का कारण होने से 'तविषासः' कहे जाते हैं। २. इन प्राणों से कहते हैं कि (सधमाद:) = जीव को प्रभु के साथ आनन्द का अनुभव करानेवाले, (इन्द्रवाह:) = जितेन्द्रिय पुरुष को प्रभु के समीप प्राप्त करानेवाले, (उग्रास:) = तेजस्वी, (तविषास:) = प्रवृद्ध व बलसम्पन्न प्राणो! आप (एनम्) = इस जीव को (ईम्) = निश्चय से (अस्मत्रा) = हमारे समीप (आवहन्तु) = ले-आओ। उस जीव को जोकि (नपतिम्) = उन्नतिशील पुरुषों का प्रमुख है। (वज्रबाहुम्) = बाहुओं में क्रियाशीलतारूप वन को लिये हुए है। (उग्रम्) = तेजस्वी है। (प्रत्वक्षसम्) = अपनी बुद्धि को बड़ा सूक्ष्म बनानेवाला है। (वृषभम्) = शक्तिशाली होता हुआ सब पर सुखों का वर्षण करनेवाला है और इन गुणों को उत्पन्न करके प्राण इस साधक को प्रभु के समीप प्रास कराते हैं।

    भावार्थ

    प्राणसाधना से जीव शक्तिशाली व सत्य के बलवाला और सूक्ष्मबुद्धि से युक्त होता है। इन तीनों बातों का सम्पादन करके यह प्रभु के समीप पहुँचता है।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रवाहः) परमेश्वर को अपने शरीर-रथों में वहन करनेवाले, (उग्रासः) कर्त्तव्यों में सुदृढ़, (सधमादः) परमेश्वर के साथ रह कर आनन्द भोगनेवाले, (तविषासः) महान् आत्माएँ—(नृपतिम्) नर-नारियों के स्वामी, (वज्रबाहुम्) न्यायवज्र द्वारा पापों को विलोडनेवाले, या वज्रहस्त राजा के समान न्यायवज्रधारी, (उग्रम्) पापों के प्रति उग्ररूप, (प्रत्वक्षसम्) अविद्या-रागद्वेष को तनूकृत करनेवाले, (वृषभम्) आनन्दरसवर्षी, (सत्यशुष्मम्) वास्तव में अविद्या आदि का शोषण करनेवाले (एनम्) इस परमेश्वर को—(अस्मत्रा) हम शिष्य उपासकों में (आ वहन्तु) प्राप्त कराएँ, उसका प्रत्यक्ष दर्शन कराएँ।

    टिप्पणी

    [इम्=पदपूरणः (निरु০ १.३.९)। प्रत्वक्षसम्=त्वक्षू तनूकरणे। बाहुः=बाध्यन्ते विलोड्ययन्ते पदार्था येन सः (उणादि कोष, १.२७, रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    May the mighty, blazing, penetrating, vigorous and refining radiations of this Indra, protector and promoter of humanity, thunder armed, virile and generous, indomitable upholder of truth, come in unison with inspiring strength and bring him to us for our social and spiritual good. May the mighty, blazing, penetrating, vigorous and refining radiations of this Indra, protector and promoter of humanity, thunder armed, virile and generous, indomitable upholder of truth, come in unison with inspiring strength and bring him to us for our social and spiritual good.

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    Translation

    Let the bearers of king who are strong enough, active and co-participants in enjoyment, bring amongst us this king who is the sovereign of men, holder of thunder like weapon, mighty, bigorous, possessor of conquering might and endowed with real vigour.

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    Translation

    Let the bearers of king who are strong enough, active and co-participants in enjoyment, bring amongst us this king who is the sovereign of men, holder of thunder like weapon, mighty, bigorous, possessor of conquering might and endowed with real vigor.

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    Translation

    O king or soul, thus thou fosters under thy administration the person, who is the protector, domicile of the state, ever vigilant pillar of energy and valour, muster up courage and daring, completely take up reins of the administration in thy own hands and be thyself the lord for the prosperity and progress of the wise.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(आ) समन्तात् (इन्द्रवाहः) वह प्रापणे-ण्वि इन्द्रस्य वोढारोऽश्वगजादयः (नृपतिम्) (वज्रबाहुम्) हस्ते वज्रयुक्तम् (उग्रम्) प्रचण्डम् (उग्रासः) उग्राः (तविषासः) तवेर्णिद्वा। उ० १।४८। तव वृद्धौ-डिषच्, असुक् च। तविषाः। बलवन्तः (एनम्) (प्रत्वक्षसम्) गतिकारकोपपदयोः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं च। उ० ४।२२७। प्र+त्वक्षू तनूकरणे-असि। शत्रूणां प्रकर्षेण तनूकर्तारम् (वृषभम्) सुखस्य वर्षकम् (सत्यशुष्मम्) यथार्थवज्रोपेतम् (आ) समन्तात् (ईम्) प्राप्तव्यम् (अस्मत्रा) अस्मासु (सधमादः) सहमादयन्तः (वहन्तु) प्रापयन्तु ॥

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