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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 95/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सुदाः पैजवनः देवता - इन्द्रः छन्दः - शक्वरी सूक्तम् - सूक्त-९५
    38

    प्रो ष्व॑स्मै पुरोर॒थमिन्द्रा॑य शू॒षम॑र्चत। अ॒भीके॑ चिदु लोक॒कृत्सं॒गे स॒मत्सु॑ वृत्र॒हास्माकं॑ बोधि चोदि॒ता नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रो इति॑ । सु । अ॒स्मै॒ । पु॒र॒:ऽर॒थम् । इन्द्रा॑य । शू॒षम् । अ॒र्च॒त॒ ॥ अ॒भीके॑ । चि॒त् । ऊं॒ इति॑ । लो॒क॒ऽकृत् । स॒म्ऽगे । स॒मत्ऽसु॑ । वृ॒त्र॒ऽहा । अ॒स्माक॑म् । बो॒धि॒ । चो॒दि॒ता । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒केषा॑म् । ज्या॒का: । अधि॑ । धन्व॑ऽसु ॥९५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रो ष्वस्मै पुरोरथमिन्द्राय शूषमर्चत। अभीके चिदु लोककृत्संगे समत्सु वृत्रहास्माकं बोधि चोदिता नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रो इति । सु । अस्मै । पुर:ऽरथम् । इन्द्राय । शूषम् । अर्चत ॥ अभीके । चित् । ऊं इति । लोकऽकृत् । सम्ऽगे । समत्ऽसु । वृत्रऽहा । अस्माकम् । बोधि । चोदिता । नभन्ताम् । अन्यकेषाम् । ज्याका: । अधि । धन्वऽसु ॥९५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 95; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्यो !] (अस्मै) इस (इन्द्राय) इन्द्र [महाप्रतापी राजा] के लिये (पुरोरथम्) रथ को आगे रखनेवाले (शूषम्) शत्रुओं के सुखानेवाले बल का (सु) भले प्रकार से (प्रो) अवश्य ही (अर्चत) आदर करो। (अभीके) समीप में (चित् उ) ही (संगे) मिलने पर (समत्सु) परस्पर खाने के स्थान सङ्ग्रामों में (वृत्रहा) शत्रुनाशक (अस्माकम्) हमारा (चोदिता) प्रेरक [उत्साह बढ़ानेवाला] और (लोककृत्) स्थान करनेवाला (बोधि) जाना गया है। (अन्यकेषाम्) दूसरे खोटे लोगों की (ज्याकाः) निर्बल डोरियाँ (धन्वसु अधि) धनुषों पर चढ़ी हुई (नभन्ताम्) टूट जावें ॥२॥

    भावार्थ

    जिस शूर राजा के प्रताप से उपद्रवी शत्रु लोग हार मानें और प्रजागण आगे बढ़ें, विद्वान् पुरुष उस वीर का सदा मान करें ॥२॥

    टिप्पणी

    मन्त्र २-४ ऋग्वेद में हैं-१०।१३३।१-३। और सामवेद-उ० ९।१। तृच १४ ॥ २−(प्रो) प्र उ इति निपातसमुदायः। ओत्। पा० १।१।१। इति प्रगृह्यम्। प्रकर्षेणैव। अवश्यमेव (सु) सुष्ठु (अस्मै) (पुरोरथम्) अग्रे रथयुक्तम् (इन्द्राय) महाप्रतापिने राज्ञे (शूषम्) अ० २०।७१।१६। शत्रुशोषकं बलम् (अर्चत) सत्कुरुत (अभीके) अलीकादयश्च। उ० ४।२। अभि+इण् गतौ-कीकन्। धातोर्लोपः। आसन्ने-निरु० ३।२०। (चित्) एव (उ) अवधारणे (लोककृत्) स्थानस्य कर्ता (संगे) संगमे (समत्सु) परस्परादनस्थानेषु संग्रामेषु (वृत्रहा) शत्रुनाशकः (अस्माकम्) (बोधि) अबोधि। ज्ञायते (चोदिता) प्रेरकः। उत्साहवर्धकः (नभन्ताम्) नभतेर्वधकर्मा-निघ० २।१९। हिंस्यन्ताम्। नश्यन्तु (अन्यकेषाम्) अव्ययसर्वनाम्नामकच् प्राक् टेः। पा० ।३।७१। अन्य-अकच्। कुत्सितानामन्येषां शत्रूणाम् (ज्याकाः) कुत्सिते। पा० ।३।७४। ज्या-क प्रत्ययः। कुत्सितो निर्बला ज्याः (अधि) उपरि (धन्वसु) धनुःषु ॥

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    विषय

    पुरोरथम् शूषम्

    पदार्थ

    १. (अस्मै) = इस इन्द्राय शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले सेनापति के लिए (उ) = निश्चय से (सु) = अच्छी प्रकार (पुरोरथम्) = अप्रगतिवाले रथ को तथा (शूषम्) = शत्रुशोषक बल को (प्र अर्चत) = सम्यक् आदर दो। उस सेनापति को उचित आदर प्राप्त हो, जिसका रथ सदा आगे ही बढ़ता है, जो रणाङ्गण से कभी पराङ्गमुख नहीं होता। उस सेनापति को आदर दो जिसका बल शत्रुओं का शोषण करनेवाला है। २. यह इन्द्र (अभीके) = संग्राम में (चित् उ) = निश्चय से (लोककृत्) = अपना स्थान बनानेवाला है। (समत्सु) = संग्रामों में (संगे) = शत्रुओं के साथ मुठभेड़ होने पर यह (वृत्रहा) = वृत्र का हनन करनेवाला है। राष्ट्र को घेरनेवाले शत्रुओं को समाप्त करनेवाला होता है [वृ-घेरना] ३. हे इन्द्र ! इसप्रकार शत्रु-हनन करता हुआ तू (अस्माकम्) = हमारा (चोदिता) = प्रेरक (बोधि) = अपने को जान। इसप्रकार ही तू प्रजाओं के अन्दर उत्साह का संचार करता है। तेरी वीरता के सामने (अन्यकेषाम्) = [कुत्सिते कन्] इन अधर्म के पक्षवाले शत्रुओं की (ज्याका:) = धनुष की डोरियाँ (अधिधन्वसु) = धनुषों पर नभन्ताम् नष्ट हो जाएँ। उनका उत्साह मन्द पड़ जाए। उनके अस्त्र कुण्ठित हो जाएँ।

    भावार्थ

    सेनापति का रथ आगे-ही-आगे बढ़नेवाला हो, उसका बल शत्रुओं का शोषण कर दे। सेनापति शत्रुओं का हनन करता हुआ प्रजाओं के उत्साह को बढ़ाए और शत्रुओं के अस्त्र कुण्ठित हो जाएँ।

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    भाषार्थ

    हे उपासको! (अस्मै इन्द्राय) इस परमेश्वर के प्रति, तुम अपने (पुरोरथम्) पुरस्कृत शरीर-रथों को, और (शूषम्) शक्तियों को (सु) पूर्णरूप में तथा सम्यक् विधि से (उ) अवश्य (प्र अर्चत) प्रकृष्ट मात्रा में समर्पित कर दो। क्योंकि परमेश्वर (अभीके चित्) हृदय के समीपवर्ती होकर (उ) अवश्य (लोककृत्) आलोक पैदा कर देता है। (संगे) और उसके मेल हो जाने पर (समत्सु) देवासुर-संग्रामों में वह (वृत्रहा) हमारे पाप-वृत्रों का हनन कर देता है, और (चोदिता) हमें प्रेरणाएँ देता है, और (अस्माकम्) हमारी कामनाओं को (बोधि) अवगत कर लेता है, ये कामना कि (अन्यकेषाम्) दिव्य भावनाओं से भिन्न आसुरी भावनाओं के (धन्वसु) धनुषों पर चढ़ी (ज्याकाः) डोरियाँ (नभन्ताम्) टूट-फूट जाएँ।

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    विषय

    राजा,आत्मा और परमेश्वर।

    भावार्थ

    (अस्मै) इस (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् राजा को (पुरोरथम्) रथ के आगे वर्त्तमान (शूषम्) बल की (प्रो अर्चत) स्तुति करो। (अभीके) भय रहित (संगे) परस्पर के मेल मिलाप में (लोककृत्) समस्त लोकों का उपकार करने वाला, और (समत्सु वृत्रहा) संग्रामों के अवसरों में शत्रुओं का नाश करने वाला होकर (अस्माकं चोदिता) हमें न्यायपथ में लेजानेहारा, हमारा हित (बोधि) जानता है। (अन्यकेषां) क्षुद्र अन्य शत्रुओं के (धन्वसु अधि) धनुषों पर (ज्याकाः) डोरियें (नभन्ताम्) टूट जायें। अध्यात्म में—(पुरोरथम् इन्द्राय शूषम् अर्चतः) रसदर्शन के समक्ष इन्द्र, आत्मा के बल का वर्णन करो। वह (अभीके संगे) साक्षात् संग लाभ होने पर ही (चित्) मानो (लोक कृत्) अपने दर्शन कराता है या आश्रय प्रदान करता है। (समत्सु) परम आनन्द के अवसरों पर (वृत्रहा) आवरक अज्ञानों का नाशक है। वही (चोदिता) इन्द्रियगण का चालक होकर (बोधि) परम ज्ञान प्राप्त करता है। (अन्यकेषां अधि धन्वसु) अन्य क्षुद्र शत्रुओं के धनुषों की (ज्याकाः) डोरियां भी (नभन्ताम्) टूट जाती हैं अर्थात् आत्मिक बल के समक्ष शत्रुओं के हथियार निकम्मे होजाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ गृत्समद ऋषिः। २-४ सुदाः पैजवनः। १ अष्टिः। ३-४ शकृर्यः। इन्द्रो देवता। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥ इंदं सूक्तं षडृचमनुक्रमणिकायां पट्यते। तत्र आद्यानां तिसृणां गृत्समद ऋषिः अन्त्यानां तिसृणां सुदाः पैजवन ऋषिः। उपलब्धसंहितासु चतुर्ऋचमिदं सूक्तमुपलभ्यते। अनुक्रमणिकायां ‘अधत्विषीमान०’ ‘साकं जातः०’ इति ऋग्द्वयं (ऋ० २। २२। २, ३) अधिकं पठ्यते, तच्च समीचीनमेव। त्रिकद्रुकेष्विति तृचस्य सामवेदेपि तथैवोपलम्भात्। ऋग्द्वयस्यानुपलम्भः प्रमादात् शाखाभेदाद्वा विज्ञेयः॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    Offer a song of abundant praise in honour of this ruling lord Indra for his mighty force and front rank chariot. He, destroyer of darkness and evil, inspires us in our battles of life at the closest and enlightens us in our struggle for universal freedom. Let the strings of the alien enemy bows be snapped by the strike of the forces of Indra.

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    Translation

    O people, you appreciate the power of this mighty ruler which makes the strength of foe-men vanish and set thee chariot in the foremost place. He gives us room and encourages us is closest place, in get together and in the battles. He has been known as the dispeller of foe men. Let the weak bow-strings of wicked break upon the bow.

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    Translation

    O people, you appreciate the power of this mighty ruler which makes the strength of foe-men vanish and set the chariot in the foremost place. He gives us room and encourages us in closest place, in get together and in the battles. He has been known as the dispeller of foe men. Let the weak bow-strings of wicked break upon the bow.

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    Translation

    O Mighty king, thou channelisest the waters of the great rivers to flow down into canals (to irrigate the landside). Killing the enemy, just as the Sun shatters the cloud, thou art known to be foe-less. Thou pushest up all objects worth achieving. We, therefore, embrace and endear the self-same thee. Let the bow-strings, enemies, break down. (

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र २-४ ऋग्वेद में हैं-१०।१३३।१-३। और सामवेद-उ० ९।१। तृच १४ ॥ २−(प्रो) प्र उ इति निपातसमुदायः। ओत्। पा० १।१।१। इति प्रगृह्यम्। प्रकर्षेणैव। अवश्यमेव (सु) सुष्ठु (अस्मै) (पुरोरथम्) अग्रे रथयुक्तम् (इन्द्राय) महाप्रतापिने राज्ञे (शूषम्) अ० २०।७१।१६। शत्रुशोषकं बलम् (अर्चत) सत्कुरुत (अभीके) अलीकादयश्च। उ० ४।२। अभि+इण् गतौ-कीकन्। धातोर्लोपः। आसन्ने-निरु० ३।२०। (चित्) एव (उ) अवधारणे (लोककृत्) स्थानस्य कर्ता (संगे) संगमे (समत्सु) परस्परादनस्थानेषु संग्रामेषु (वृत्रहा) शत्रुनाशकः (अस्माकम्) (बोधि) अबोधि। ज्ञायते (चोदिता) प्रेरकः। उत्साहवर्धकः (नभन्ताम्) नभतेर्वधकर्मा-निघ० २।१९। हिंस्यन्ताम्। नश्यन्तु (अन्यकेषाम्) अव्ययसर्वनाम्नामकच् प्राक् टेः। पा० ।३।७१। अन्य-अकच्। कुत्सितानामन्येषां शत्रूणाम् (ज्याकाः) कुत्सिते। पा० ।३।७४। ज्या-क प्रत्ययः। कुत्सितो निर्बला ज्याः (अधि) उपरि (धन्वसु) धनुःषु ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে মনুষ্যগণ !] (অস্মৈ) এই (ইন্দ্রায়) ইন্দ্রের [মহাপ্রতাপী রাজার] জন্য (পুরোরথম্) অগ্রে রথ স্থাপনকারী (শূষম্) শত্রু শোষক বলের (সু) উত্তমরূপে (প্রো) অবশ্যই (অর্চত) আদর করো। (অভীকে) সম্মুখে (চিৎ উ)(সঙ্গে) মিলিত হলে (সমৎসু) পরস্পরকে বিনাশের স্থান সংগ্রামে (বৃত্রহা) শত্রুনাশক (অস্মাকম্) আমাদের (চোদিতা) প্রেরক [উৎসাহ বৃদ্ধিকারী] এবং (লোককৃৎ) স্থান কর্তা হিসেবে (বোধি) সুপরিচিত/জ্ঞাত। (অন্যকেষাম্) অন্য কুৎসিত শত্রুর (জ্যাকাঃ) নির্বল জ্যা (ধন্বসু অধি) ধনুকে সংযোগের পূর্বেই (নভন্তাম্) বিছিন্ন হোক॥২॥

    भावार्थ

    যে বীর রাজার প্রতাপে উপদ্রবকারী শত্রু পরাজয় স্বীকার করে এবং প্রজাগণ সম্মুখে অগ্রসর হয়, বিদ্বান্ পুরুষ সেই বীরপুরুষের সদা সম্মান করুক ॥২॥ মন্ত্র ২-৪ ঋগ্বেদ আছে -১০।১৩৩।১-৩। এবং সামবেদ-উ০ ৯।১। তৃচ ১৪ ॥

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    भाषार्थ

    হে উপাসকগণ! (অস্মৈ ইন্দ্রায়) এই পরমেশ্বরের প্রতি, তোমরা নিজেদের (পুরোরথম্) পুরস্কৃত শরীর-রথকে, এবং (শূষম্) শক্তিকে (সু) পূর্ণরূপে তথা সম্যক্ বিধিতে (উ) অবশ্যই (প্র অর্চত) প্রকৃষ্ট মাত্রায় সমর্পিত করো। কারণ পরমেশ্বর (অভীকে চিৎ) হৃদয়ের সমীপবর্তী হয়ে (উ) অবশ্যই (লোককৃৎ) আলোক উৎপন্ন করেন। (সঙ্গে) এবং সঙ্গম হলে (সমৎসু) দেবাসুর-সংগ্রামে তিনি (বৃত্রহা) আমাদের পাপ-বৃত্রের হনন করেন, এবং (চোদিতা) আমাদের প্রেরণা প্রদান করেন, এবং (অস্মাকম্) আমাদের কামনা (বোধি) অবগত করে নেন, এই কামনা (অন্যকেষাম্) দিব্য ভাবনা থেকে ভিন্ন আসুরিক ভাবনার (ধন্বসু) ধনুকে থাকা (জ্যাকাঃ) দড়ি (নভন্তাম্) নষ্ট হোক।

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