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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 6
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - गौः छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् सूक्तम् - गोष्ठ सूक्त
    79

    मया॑ गावो॒ गोप॑तिना सचध्वम॒यं वो॑ गो॒ष्ठ इ॒ह पो॑षयि॒ष्णुः। रा॒यस्पोषे॑ण बहु॒ला भव॑न्तीर्जी॒वा जीव॑न्ती॒रुप॑ वः सदेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मया॑ । गा॒व॒: । गोऽप॑तिना । स॒च॒ध्व॒म् । अ॒यम् । व॒: । गो॒ऽस्थ: । इ॒ह । पो॒ष॒यि॒ष्णु: । रा॒य: । पोषे॑ण । ब॒हु॒ला: । भव॑न्ती: । जी॒वा: । जीव॑न्ती: । उप॑ । व॒: । स॒दे॒म॒ ॥१४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मया गावो गोपतिना सचध्वमयं वो गोष्ठ इह पोषयिष्णुः। रायस्पोषेण बहुला भवन्तीर्जीवा जीवन्तीरुप वः सदेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मया । गाव: । गोऽपतिना । सचध्वम् । अयम् । व: । गोऽस्थ: । इह । पोषयिष्णु: । राय: । पोषेण । बहुला: । भवन्ती: । जीवा: । जीवन्ती: । उप । व: । सदेम ॥१४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 14; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गोरक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (गावः) हे गौओं ! (मया गोपतिना) मुझ गोपति से (सचध्वम्) मिली रहो। (इह) यहाँ (अयम्) यह (पोषयिष्णुः) पोषण करनेवाली (वः) तुम्हारी (गोष्ठः) गोशाला है। (रायः) धन की (पोषेण) पुष्टि से (बहुलाः) बहुत पदार्थ देनेवाली अथवा वृद्धि करनेवाली (भवन्तीः) होती हुई और (जीवन्तीः) जीती हुई (वः) तुमको (जीवाः) जीते हुए हम लोग (उप) आदर से (सदेम) प्राप्त करते रहें ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्य गौओं की सेवा से दुग्ध, घृत, कृषि आदि की उन्नति करके बहुत काल तक जीते और सुख भोगते रहें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(गावः)। हे धेनवः। (गोपतिना)। गोरक्षकेण। (सचध्वम्)। षच समवाये। समवेता भवत। संगच्छध्वम्। (पोषयिष्णुः)। णेश्छन्दसि। पा० ३।२।१३७। इति पोषयतेः-इष्णुच्। पोषकः। (बहुलाः)। बहु+ला दाने क, टाप्। यद्वा। हृषेरुलच्। उ० १।९६। इति बहि वृद्धौ-उलच्। न लोपः। यद्वा, वह प्रापणे-उलच्। टाप्। बहुपदार्थदात्रीः। वृद्धिशीलाः। (भवन्तीः)। भू सत्तायाम्-शतृ, ङीप्। वर्त्तमानाः। (जीवाः)। चिरजीविनो वयम्। (जीवन्तीः)। बहुकालजीवनोपेताः। (उप)। आदरेण। (वः)। युष्मान्। (सदेम)। सदेराशीर्लिङि। गच्छेम। प्राप्नुयाम। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    गोपति के साथ गौओं का मेल

    पदार्थ

    १. हे (गाव:) = गौओ! (गोपतिना) = गौओं के रक्षक (मया) = मेरे साथ (सचध्वम्) = तुम्हारा मेल हो (इह) = इस घर में (अयं गोष्ठ:) = यह गोष्ठ (वः, पोषयिष्णु:) = तुम्हारा पोषक हो। २. (रायस्पोषेण) = धन के पोषण से (बहुला:) = बहुत संख्यावाली (भवन्ती:) = होती हुई (जीवन्ती:) = जीवन शक्ति से युक्त (व:) = तुम्हें (जीवा:) = जीवनशक्ति से युक्त हम (उपसदेम) = समीपता से प्राप्त हों। जितना हमारा धन का पोषण हो उतना ही हम गौओं के बढ़ानेवाले हों। गौएँ ही हमें जीवनशक्ति प्राप्त कराएँगी।

    भावार्थ

    हमारे गोष्ठ में गौओं का पोषण हो और गौएँ हमारा पोषण करनेवाली हों।

    विशेष

    अगले सूक्त का विषय वाणिज्य है। इसका ऋषि 'अथर्वा' है, जो प्रलोभनवश डौंवाडोल नहीं हो जाता [न थर्वति]। यह धर्म के मार्ग से ही धन कमाता है। वह कामना करता है -

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    भाषार्थ

    (गाव:) है गौओ! (मया गोपतिना) मुझ गोपति के साथ (सचध्यम्) तुम सम्बद्ध रहो, (इह) इस स्थान में (व: गोष्ठः) तुम्हारी गोशाला है, (अयम्) यह गोष्ठ अर्थात् गोशाला (व:) तुम्हारी (पोषयिष्णुः) पोषिका है। (रायस्पोषेण) धन की पुष्टि द्वारा (बहुला भवन्तीः) बहुत होती हुई, (जीवन्तीः) तथा चिरकाल तक जीवित रहती हुई (व:) तुम्हारे (उप) समीप (जीवाः) जीवित हम (सदेम) स्थित रहे।

    टिप्पणी

    [रायस्पोषेण=धन की पुष्टि है, धन की समृद्धि। गौओं के घृतादि के विक्रय द्वारा धन का आधिक्य हो जाता है और धनाधिक्य से गौओं को खरीद कर गौओं का बाहुल्य हो जाता है। जीवा: मनुष्यों का जीवन, गौओं के दुग्ध, दधि तथा घृत के सेवन से बढ़ता है और वे दीर्घायु हो जाते हैं। दुग्धादि शरीर की परिपुष्टि करते हैं। गौओं का दुग्धादि सात्त्विक होता है, सत्त्व के बढ़ने से आयु दीर्घ हो जाती है।]

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    विषय

    गौओं और प्रजाओं की वृद्धि का उपदेश ।

    भावार्थ

    (मया गोपतिना) मुझ गोपाल के साथ हे (गावः) गौओं ! (सचध्वं) प्रेम से मिलकर रहो । (अयं वः गोष्ठः) यह तुम्हारे रहने की शाला है । (इह) यहां ही (पोषयिष्णुः) यह उत्तम रीति से पोषण करने हारा स्वामी रहता है। हम (जीवाः) जीवनसम्पन्न होकर (रायस्पोषेण) धन, सम्पत्ति और पुष्टि से (बहुलाः भवन्तीः) बहुत संख्या में बढ़ती हुई (जीवन्तीः) सुखपूर्वक जीवन विताती हुई (वः) तुम गौधों को (उपसदेम) प्राप्त हों । इसी प्रकार राजा अपनी प्रजायों के प्रति कहे ।

    टिप्पणी

    ‘बहुला भवन्तः’ इति ह्विटनिकामितः पाठः। (प्र०) ‘गावो गोपत्या’ इति पैप्प० सं०। (च०) ‘उप वः सदाम’ इति रोकवेल लैन्मेनकामितः पाठः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः । गावो देवताः उत गोष्ठो देवता। १, ६ अनुष्टुभः । ६ आर्षी त्रिष्टुप् । षडृर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cows and Cow Development

    Meaning

    Let the cows love me and live with me, their master, protector and promoter. Let this stall, goshala, be good and auspicious for their growth and development. Abundantly growing and developing in number by wealth of milk, health and breed, living and growing with joy and prosperity, as the cows are, let us all, living beings, be close to the cows and improve their breed and quality.

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    Translation

    O cows, may you be attached to me, your master. This is your cow-stall. Here I am your nourisher. May we attend on you multiplying in richness and nourishment and living long.

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    Translation

    Let these cows live with me who is the master of the cattle and let this stable be the place of their growth and prosperity. May we living approach the cows living and ever-increasing with growth of riches.

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    Translation

    Follow me, cow, as master of the cattle. Here may this cow-pen make you grow and proposer. Still while we live may we approach you living, ever increasing with me growth of fodder.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(गावः)। हे धेनवः। (गोपतिना)। गोरक्षकेण। (सचध्वम्)। षच समवाये। समवेता भवत। संगच्छध्वम्। (पोषयिष्णुः)। णेश्छन्दसि। पा० ३।२।१३७। इति पोषयतेः-इष्णुच्। पोषकः। (बहुलाः)। बहु+ला दाने क, टाप्। यद्वा। हृषेरुलच्। उ० १।९६। इति बहि वृद्धौ-उलच्। न लोपः। यद्वा, वह प्रापणे-उलच्। टाप्। बहुपदार्थदात्रीः। वृद्धिशीलाः। (भवन्तीः)। भू सत्तायाम्-शतृ, ङीप्। वर्त्तमानाः। (जीवाः)। चिरजीविनो वयम्। (जीवन्तीः)। बहुकालजीवनोपेताः। (उप)। आदरेण। (वः)। युष्मान्। (सदेम)। सदेराशीर्लिङि। गच्छेम। प्राप्नुयाम। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (গাবঃ) হে গাভী-সমূহ ! (ময়া গোপতিনা) আমার গোপতির সাথে (সচধ্বম্) তোমরা সম্বদ্ধযুক্ত থাকো, (ইহ) এই স্থানে (বঃ গোষ্ঠঃ) তোমাদের গোশালা আছে, (অয়ম্) এই গোষ্ঠ অর্থাৎ গোশালা হলো (বঃ) তোমাদের (পোষয়িষ্ণুঃ) পোষিকা। (রায়স্পোষেণ) ধনের পূর্ণতা দ্বারা (বহুলা ভবন্তিঃ) বহুল হয়ে, (জীবন্তীঃ) এবং চিরকাল পর্যন্ত জীবিত থেকে (বঃ) তোমাদের (উপ) কাছে (জীবাঃ) জীবিত আমরা যেন (সদেম) স্থিত থাকি।

    टिप्पणी

    [রায়স্পোষেণ= ধনের পূর্ণতা হলো, ধনের সমৃদ্ধি। গাভীদের ঘৃতাদির বিক্রয় দ্বারা ধনের আধিক্য হয় এবং ধনাধিক্য থেকে গাভী ক্রয় করে গাভীর বাহুল্য হয়। জীবাঃ মনুষ্যের জীবন, গোরুর দুগ্ধ, দধি ও ঘৃতের সেবনে বর্ধিত/সমৃদ্ধ হয় এবং সে দীর্ঘায়ু হয়ে যায়। দুগ্ধাদি শরীরকে পরিপুষ্ট করে। গোরুর দুগ্ধাদি হল সাত্ত্বিক, সাত্ত্বিকতা বৃদ্ধি হলে আয়ু দীর্ঘ হয়।]

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    मन्त्र विषय

    গোরক্ষোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (গাবঃ) হে গাভীসমূহ ! (ময়া গোপতিনা) আমার গোপতির সাথে (সচধ্বম্) মিলিত/একসাথে/সমবেত/সংযুক্ত থাকো। (ইহ) এখানে (অয়ম্) ইহা/এটি (পোষয়িষ্ণুঃ) পোষণকারী (বঃ) তোমাদের (গোষ্ঠঃ) গো-শালা। (রায়ঃ) ধন-সম্পদের (পোষেণ) পুষ্টি সহ (বহুলাঃ) বহু পদার্থ প্রদানকারী অথবা বৃদ্ধিকারক (ভবন্তীঃ) হয়ে এবং (জীবন্তীঃ) জীবন্ত (বঃ) তোমাকে (জীবাঃ) জীবিত আমরা (উপ) আদরপূর্বক (সদেম) প্রাপ্ত করতে থাকি ॥৬॥

    भावार्थ

    মনুষ্য গাভীদের সেবার মাধ্যমে দুগ্ধ, ঘৃত, কৃষি প্রভৃতির উন্নতি করে বহু কাল পর্যন্ত জীবন ধারণ করুক এবং সুখ ভোগ করতে থাকুক ॥৬॥

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