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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भृगुः देवता - मित्रावरुणौ, कामबाणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कामबाण सूक्त
    89

    शु॒चा वि॒द्धा व्यो॑षया॒ शुष्का॑स्या॒भि स॑र्प मा। मृ॒दुर्निम॑न्युः॒ केव॑ली प्रियवा॒दिन्यनु॑व्रता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒चा । वि॒ध्दा । विऽओ॑षया । शुष्क॑ऽआस्या । अ॒भि । स॒र्प॒ । मा॒ । मृ॒दु: । निऽम॑न्यु: । केव॑ली । प्रि॒य॒ऽवा॒दिनी॑ । अनु॑ऽव्रता॥२५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुचा विद्धा व्योषया शुष्कास्याभि सर्प मा। मृदुर्निमन्युः केवली प्रियवादिन्यनुव्रता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुचा । विध्दा । विऽओषया । शुष्कऽआस्या । अभि । सर्प । मा । मृदु: । निऽमन्यु: । केवली । प्रियऽवादिनी । अनुऽव्रता॥२५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 25; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अविद्या के नाश से विद्या की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्या] (व्योषया) विशेष दाह करनेवाली (शुचा) पीड़ा से (विद्धा) बिंधी हुई, (शुष्कास्या) सूखे मुखवाली, (मृदुः) कोमल स्वभाववाली (निमन्युः) निरभिमान, (केवली) सेवनीया, (प्रियवादिनी) प्रिय बोलनेवाली और (अनुव्रता) अनुकूल आचरणवाली [पतिव्रता स्त्री के समान] तू (मा अभि) मेरी ओर (सर्प) चली आ ॥४॥

    भावार्थ

    यहाँ से तीन मन्त्र विद्यापरक हैं। मन्त्र का आशय यह है, जो ब्रह्मचारी विद्या के लिए पूरी लालसा से यत्नपूर्वक परिश्रम करता है, विद्या शीघ्र ही उसको मिलकर हितकारिणी होती है, जैसे सती गुणवती स्त्री मन, वचन और कर्म से अपने पति की सेवा करती है ॥४॥ ऋग्वेद के परमब्रह्मज्ञान सूक्त वा विद्यासूक्त में भी विद्या की उपमा पतिव्रता स्त्री से दी है। उ॒त त्वः॒ पश्य॒न्न द॑दर्श॒ वाच॑मु॒त त्वः॑ शृ॒ण्वन्न शृ॑णोत्येनाम्। उतो त्व॑स्मै तन्वं१ विस॑स्रे जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासाः॑ ॥ ऋ० १०।७१।४ ॥ (त्वः) एक पुरुष ने (पश्यन् उत) देखते हुए भी (वाचम्) वेद वाणी को (न ददर्श) नहीं देखा है, (त्वः) एक पुरुष (शृण्वन् उत) सुनता हुआ भी (एनाम्) इसको (न शृणोति) नहीं सुनता है। (उतो) किन्तु (त्वस्मै) एक पुरुष को [अपना] (तन्वम्) स्वरूप [परमज्ञान] (विसस्रे) उसने दिखाया है, (इव) जैसे (उशती) अनुरागवती (सुवासाः) सुन्दर वस्त्रवाली (जाया) पत्नी [अपने] (पत्ये) पति को ॥

    टिप्पणी

    ४−(शुचा) शुच शोके-क्विप्। शोकेन। पीडया (विद्धा) ताडिता (व्योषया) म० ३। विशेषेण दाहशीलया (शुष्कास्या) शुष्कमुखयुक्ता (अभि) अभिगत्य। उपेत्य (सर्प) गच्छ (मृदुः) प्रथिम्रदिभ्रस्जां० उ० १।२८। इति म्रद क्षोदे-कु। संप्रसारणं च। कोमलस्वभावा (निमन्युः) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। इति मन गर्वे-युच्। निरभिमाना (केवली) अ० ३।१८।२। केवलमामक०। पा० ४।१।३०। इति ङीप्। सेवनीया। सेवमाना वा (प्रियवादिनी) हितभाषिणी (अनुव्रता) अनुकूलाचरणपरा ॥

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    विषय

    मृदुः, निमन्युः, केवली

    पदार्थ

    १. (व्योषया) = विशेष दाह करनेवाले, (शुचा) = शोकवर्धक बाण से (विद्धा) = बिंधी हुई तू (शुष्कास्या) = शोक के कारण शुष्क मुखवाली (मा अभिसर्प) = मुझे प्रास हो। अब तू (मृदुः) = मृदुस्वभावा, (निमन्यु:) = क्रोधरहित [न्यक्कृतप्रणय-कलहा] (केवली) = असाधारणा-केवल मेरी कामनावाली, (प्रियवादिनी) = प्रिय शब्दों को बोलनेवाली व (अनुव्रता) = अनुकूल कर्मों को करनेवाली हो।

    भावार्थ

    काम का बाण पति के प्रति पत्नी के प्रेम को बढ़ानेवाला हो। यह उसे अधिक मृदु व पतिव्रता बनाये।

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    भाषार्थ

    (व्योषया शुचा) विदाहयुक्त शोक द्वारा (विद्धा) बींधी हुई, (शुष्कास्या) दाह के कारण रुद्ध गलेवाली तू (मा अभि) मेरी ओर (सर्प) आ। और तू (मृदुः) मृदुभाषिणी, (निमन्युः) मन्युरहित, (प्रियवादिनी) प्रिय बोलनेवाली, (अनुव्रता) मेरे अनुकूल कर्मोवाली हुई, (केवली) केवल मेरी हो जा।

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    विषय

    काम-शास्त्र और स्वयंवर का उपदेश ।

    भावार्थ

    इस प्रकार परस्पर प्रेम भाव बंध जाने पर, प्रथम वर, पतिंवरा कन्या के प्रति यह भाव प्रकट करे कि हे प्रियतमे ! तू (व्योषया) नाना प्रकार से या विशेष रूप से दहन करने या तपाने वाले (शुचा) शोक से (विद्धा) संतापित, पीड़ित होकर (शुष्क-आस्या) विरह वेदना में अन्न और जल छोड़ देने के कारण मुरझाए मुंह वाली होकर (केवली) एकमात्र तू ही (प्रिय वादिनी) प्रिय वचनों को बोलती हुई सुमधुर-भाषिणी और (अनुव्रता) मेरे मनोनुकूल सब गृह कार्य और गृहस्थव्रतों का पालन करती हुई (मृदुः) अति कोमल शरीर वाली, मृद्वंगी, शिरीष-कुमुम-कोमलाङ्गी (नि-मन्युः) हार्दिक क्रोध को परित्याग करके (मा अभि सर्प) मेरे समक्ष, मुझे वरने के लिये सभा में उपस्थित हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जयकामो भृगुऋषिः। मैत्रावरुणौ कामेषुश्च देवता। १-६ अनुष्टुभः। षडृर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Love and Passion: Fidelity

    Meaning

    O love lorn maiden, afflicted with burning fiery passion, your lips parched and mouth dry, soft and sweet of manner and speech, free from anger and pride, attached to my sole love, come vow bound to me and join in the sacramental bond of matrimony.

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    Translation

    Pierced with that burning and sex-stimulating arrow, may you come stealthily to me dry-mouthed, softened, free from anger, solely mine, sweet-tongued and devoted to me.

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    Translation

    O dear wife, you pierced with dreadfully-burning heat, parched-lips, gentle-tongued, concordant with me, tender, angerless and alone approach me.

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    Translation

    O Knowledge, steal to me, just as goes to her husband, a wife, pierced through with fiercely-burning heat, with parched lips, gentle and humble, serviceable, devoted with sweet words of love.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(शुचा) शुच शोके-क्विप्। शोकेन। पीडया (विद्धा) ताडिता (व्योषया) म० ३। विशेषेण दाहशीलया (शुष्कास्या) शुष्कमुखयुक्ता (अभि) अभिगत्य। उपेत्य (सर्प) गच्छ (मृदुः) प्रथिम्रदिभ्रस्जां० उ० १।२८। इति म्रद क्षोदे-कु। संप्रसारणं च। कोमलस्वभावा (निमन्युः) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। इति मन गर्वे-युच्। निरभिमाना (केवली) अ० ३।१८।२। केवलमामक०। पा० ४।१।३०। इति ङीप्। सेवनीया। सेवमाना वा (प्रियवादिनी) हितभाषिणी (अनुव्रता) अनुकूलाचरणपरा ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (ব্যোষয়া শুচা) বিদাহযুক্ত শোক দ্বারা (বিদ্ধা) বিদ্ধ, (শুষ্কাস্যা) দাহের কারণে রুদ্ধ গলার অধিকারিনী তুমি (মা অভি) আমার দিকে (সর্প) এগিয়ে এসো। এবং তুমি (মৃদুঃ) মৃদুভাষিণী, (নিমন্যুঃ) মন্যুরহিত, (প্রিয়বাদিনী) প্রিয় ব্যক্তকারী, (অনুব্রতা) আমার অনুকূল কর্ত্রী হয়ে, (কেবলী) কেবল আমারই হও।

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    मन्त्र विषय

    অবিদ্যানাশেন বিদ্যালাভোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে বিদ্যা] (ব্যোষয়া) বিশেষ দাহকারী (শুচা) পীড়া দ্বারা (বিদ্ধা) বিদ্ধ, (শুষ্কাস্যা) শুষ্ক মুখযুক্তা, (মৃদুঃ) কোমল স্বভাবযুক্তা (নিমন্যুঃ) নিরভিমান, (কেবলী) সেবনীয়া, (প্রিয়বাদিনী) প্রিয় বাদিনী এবং (অনুব্রতা) অনুকূল আচারযুক্তা [পতিব্রতা স্ত্রী এর সমান] তুমি (মা অভি) আমার দিকে (সর্প) চলে এসো ॥৪॥

    भावार्थ

    এখান থেকে তিনটি মন্ত্র বিদ্যাপরক। মন্ত্রের উদ্দেশ্য হলো, যে ব্রহ্মচারী বিদ্যার জন্য পরিপূর্ণভাবে যত্নপূর্বক পরিশ্রম করে, বিদ্যা শীঘ্রই তাঁকে প্রাপ্ত করে হিতকারিণী হয়, যেভাবে সতী গুণবতী স্ত্রী মন, বচন ও কর্মের দ্বারা নিজের পতির সেবা করে॥৪॥ ঋগ্বেদের পরমব্রহ্মজ্ঞান সূক্ত বা বিদ্যাসূক্তে ও বিদ্যার উপমা পতিব্রতা স্ত্রী এর সাথে দেওয়া হয়েছে। উ॒ত ত্বঃ॒ পশ্য॒ন্নদ॑দর্শ॒ বাচ॑মু॒ত ত্বঃ॑ শৃ॒ণ্বন্ন শৃ॑ণোত্যেনাম্। উতো ত্ব॑স্মৈ তন্বং১ বিস॑স্রে জা॒য়েব॒ পত্য॑ উশ॒তী সু॒বাসাঃ॑ ॥ ঋ০ ১০।৭১।৪ ॥ (ত্বঃ) এক পুরুষ (পশ্যন্ উত) দেখেও (বাচম্) বেদ বাণীকে (ন দদর্শ) দেখেনি, (ত্বঃ) এক পুরুষ (শৃণ্বন্ উত) শুনেও (এনাম্) ইহা (ন শৃণোতি) শোনেনা। (উতো) কিন্তু (ত্বস্মৈ) এক পুরুষকে [নিজের] (তন্বম্) স্বরূপ [পরমজ্ঞান] (বিসস্রে) তিনি দেখিয়েছেন, (ইব) যেভাবে (উশতী) অনুরাগবতী (সুবাসাঃ) সুন্দর বস্ত্রধারী (জায়া) পত্নী [নিজের] (পত্যে) পতিকে ॥

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