अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - रुद्रः, प्राचीदिशा, अग्निः, असितः, आदित्यगणः
छन्दः - पञ्चपदा ककुम्मतीगर्भाष्टिः
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
93
प्राची॒ दिग॒ग्निरधि॑पतिरसि॒तो र॑क्षि॒तादि॒त्या इष॑वः। तेभ्यो॒ नमोऽधि॑पतिभ्यो॒ नमो॑ रक्षि॒तृभ्यो॒ नम॒ इषु॑भ्यो॒ नम॑ एभ्यो अस्तु। यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मस्तं वो॒ जम्भे॑ दध्मः ॥
स्वर सहित पद पाठप्राची॑ । दिक् । अ॒ग्नि: । अधि॑ऽपति: । अ॒सि॒त: । र॒क्षि॒ता । आ॒दि॒त्या: । इष॑व: । तेभ्य॑: । नम॑: । अधि॑पतिऽभ्य: । नम॑: । र॒क्षि॒तृऽभ्य॑: । नम॑: । इषु॑ऽभ्य: । नम॑: । ए॒भ्य॒: । अ॒स्तु॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म:। तम् । व॒: । जम्भे॑ । द॒ध्म॒: ॥२७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ॥
स्वर रहित पद पाठप्राची । दिक् । अग्नि: । अधिऽपति: । असित: । रक्षिता । आदित्या: । इषव: । तेभ्य: । नम: । अधिपतिऽभ्य: । नम: । रक्षितृऽभ्य: । नम: । इषुऽभ्य: । नम: । एभ्य: । अस्तु । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म:। तम् । व: । जम्भे । दध्म: ॥२७.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (2)
विषय
सेना व्यूह का उपदेश।
पदार्थ
(प्राची=प्राच्याः) पूर्व वा सन्मुखवाली (दिक्=दिशः) दिशा का (अग्निः) अग्नि [अग्नि विद्या में निपुण सेनापति] (अधिपतिः) अधिष्ठाता हो, (असितः) कृष्ण सर्प [के समान सेना व्यूह] (रक्षिता) रक्षक हो, (आदित्याः) सूर्य से संबन्धवाले (इषवः) बाण हों। (तेभ्यः) उन (अधिपतिभ्यः) अधिष्ठाताओं और (रक्षितृभ्यः) रक्षकों के लिये (नमो नमः) बहुत बहुत सत्कार वा अन्न और (एम्यः) इन (इषुभ्यः) बाणों [बाणवालों] के लिये (नमोनमः) बहुत-२ सत्कार वा अन्न (अस्तु) होवे (यः) जो [वैरी] (अस्मान्) हमसे (द्वेष्टि) वैर करता है, [अथवा] (यम्) जिस [वैरी से] (वयम्) हम (द्विष्मः) वैर करते हैं, [हे शूरो] (तम्) उसको (वः) तुम्हारे (जम्भे) जबड़े में (दध्मः) हम धरते हैं ॥१॥
भावार्थ
(आदित्याः इषवः) बाण अर्थात् सब अस्त्र शस्त्र सूर्य वा बिजुली वा अग्नि के प्रयोग से चलनेवाले हों। शत्रु दो प्रकार के होते हैं, एक वे जो अपनी दुष्टता से धर्मात्माओं को बुरा जानते हैं, दूसरे वे जिनको धर्मात्मा लोग उनकी दुष्टता के कारण बुरा समझते हैं। उक्त दिशा में (अग्नि) पदवाला सेनापति (असित) नाम काले साँप के समान सेना व्यूह से ऐसे दुष्टों को जीतकर सैनिकों सहित यशस्वी होकर धर्मात्माओं की रक्षा करे ॥१॥
टिप्पणी
१−प्राची। प्राच्याम्। सू० २६ मा० १। इत्यत्रोक्तप्रकारेण रूपसिद्धिः। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तिलोपः। प्राच्याः। पूर्वायाः। अभिमुखीभूतायाः (दिक्) विभक्तिलोपः। दिशः (अग्निः) अग्निविद्यायां कुशलः पुरुषः (अधिपतिः) अधिष्ठाता। स्वामी (असितः) अ० १।२३।३। अबद्धः। कृष्णवर्णः सर्पः-इति सायणः। कृष्णसर्पवत् सेनाव्यूहः (रक्षिता) रक्षकः (आदित्याः) अ० १।९।१। दित्यदित्यादित्य० पा० ४।१।५८। इति आदित्य-ण्य प्रत्ययः। आदित्यस्य सूर्यस्य सम्बन्धिनः। सूर्यविद्युदग्निप्रयोगेण सिद्धाः (इषवः) अ० १।१३।४। आयुधानि-इति सायणः। इषुरीषतेर्गतिकर्मणो वधकर्मणो वा-निरु० ९।१८। बाणाः। अस्त्रशस्त्राणि। इषुधारिणः। शूराः (तेभ्यः) दूरस्थेभ्यः। (नमः नमः) अतिशयेन सत्कारोऽन्नं वा। नमः=अन्नम्-निघ० २।८। (एभ्यः) समीपस्थेभ्यः (यः) दुष्टः। शत्रुः (द्वेष्टि) बाधते (द्विष्मः) बाधामहे (वः) युष्माकम्। शूराणाम् (जम्भे) जभि नाशे-घञ्। हनौ [Jaw] (दध्मः) धारयामः। अन्यत् सुगमम् ॥
प्रवचन
भाषार्थ जो प्राची दिक् अर्थात जिस ओर अपना मुख हो तथा जिस ओर से सूर्य उदय हो, उस ओर अग्नि जो ज्ञानस्वरूप अधिपति, जो सब जगत का स्वामी, बन्धनरहित, सब प्रकार से रक्षा करने वाला, जिसके बाण आदित्य की किरण हैं। उन सब गुणों के अधिपति ईश्वर के गुणों को हम लोग बारम्बार नमस्कार करते हैं। जो ईश्वर के गुण और ईश्वर के रचे पदार्थ जगत की रक्षा करने वाले हैं, और पापियों को बाणों के समान पीड़ा देने वाले हैं, उनको हमारा नमस्कार हो।
इसीलिए कि जो प्राणी अज्ञान से हमारा द्वेष करता है, और जिस अज्ञान से धार्मिक पुरुष का हम लोग द्वेष करते हैं, उन सब की बुराई को उन बाणरूप किरण मुखरूप के बीच में दग्ध कर देते हैं कि जिससे हम लोग वैर न करें, और कोई भी प्राणी हम से वैर न करे, किन्तु हम सब लोग परस्पर मित्रभाव से वर्त्तें।
शृङ्गी मुनि कृष्ण दत्त जी महाराज
सबसे प्रथम प्राची दिक्, दक्षिणी दिक्, प्रतीची दिक्, उदीची दिक् ध्रुवा, दिक ऊर्ध्वा दिक् ईशान कोणें और दक्षिणाय कृति कहलाती है ये अष्ट भुजाएं कहलाती हैं। यह जो प्रकृति का सर्वत्र ब्रह्माण्ड, प्रकृति की जो रचना हो रही है वह सबसे प्रथम पूर्व दिशा से प्रकाश आता है। वह प्रातःकाल में अदिति, सूर्य उदय होता है इसीलिए उस मां का सबसे प्रथम भुज प्राची दिक्, हमारे यहाँ पूर्व दिशा में आता है जिसमें अदिति उत्पन्न होते हैं।
वह प्रकाश का भण्डार है। प्रातः काल होते ही प्रत्येक मानव पूर्व मुख हो करके वह याग करता है। क्योंकि पूर्वाभिमुख होकर के याग इसीलिए, क्योंकि वह प्रकाश का भण्डार हैं वह मां इस प्रकृति का एक भुज कहलाता है। उसके एक भुज में प्रकाश है।
वह प्रकाश कैसा है? पूर्व दिशा से ही सूर्य उदय होता है। वह ऊषा और कान्ति के सहित आता है। प्रातःकालीन जब सूर्य उदय होती है, तो ऊषा और कान्ति प्रसाद रूप में मानव को प्राप्त होती है। हे मानव! तू उस प्रसाद को प्राप्त करने वाला बन। जब ऊषाकाल होता है उस ऊषाकाल में, अन्तरिक्ष में लालिमा होती है, वह लालिमा मानव के नेत्र का प्रकाश बन करके मानव को अमृत बिखेरती रहती है। प्रत्येक मानव अमृत को पान करता रहता है।
हमारे ऋषि मुनियों ने कहा कि जो साधना करने वाले पुरुष हैं, जो गृह में रहने वाले पुरुष हैं, वे सदैव जागरूक हो जाएं और वे पूर्वाभिमुख हो करके, अपना ध्यान अथवा साधना करने में सदैव रत्त रहें। क्योंकि वह प्रकाश का भण्डार है। क्योंकि प्रकाश ही तो मानव का जीवन है। प्रकाश के आने पर कांति बन करके आती है, अन्धकार समाप्त हो जाता है। क्योंकि अन्धकार अज्ञान का प्रतीक है और प्रकाश ज्ञान का प्रतीक माना गया है।
सबसे प्रथम ये पूर्व कहलाता है। यह देवी कि एक भुजा कहलाती है, मां काली की एक भुजा कहलाती है।
इंग्लिश (1)
Subject
Protective ircle of Divine Powers
Meaning
Agni, lord of light and omniscience, is the ruling lord and guardian spirit upfront of the eastern quarter, protecting us against darkness, evil and ignorance, his arrows, protective powers, being sun-rays and the Aditya pranas. Honour and adoration to all of them! Worship and prayers to the ruling lord, salutations to the protective powers, honour and admiration to the arrows, praise and admiration for all these. O lord, whoever bears hate and jealousy toward us, or whoever we hate and reject, all that we deliver unto your divine justice.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−प्राची। प्राच्याम्। सू० २६ मा० १। इत्यत्रोक्तप्रकारेण रूपसिद्धिः। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तिलोपः। प्राच्याः। पूर्वायाः। अभिमुखीभूतायाः (दिक्) विभक्तिलोपः। दिशः (अग्निः) अग्निविद्यायां कुशलः पुरुषः (अधिपतिः) अधिष्ठाता। स्वामी (असितः) अ० १।२३।३। अबद्धः। कृष्णवर्णः सर्पः-इति सायणः। कृष्णसर्पवत् सेनाव्यूहः (रक्षिता) रक्षकः (आदित्याः) अ० १।९।१। दित्यदित्यादित्य० पा० ४।१।५८। इति आदित्य-ण्य प्रत्ययः। आदित्यस्य सूर्यस्य सम्बन्धिनः। सूर्यविद्युदग्निप्रयोगेण सिद्धाः (इषवः) अ० १।१३।४। आयुधानि-इति सायणः। इषुरीषतेर्गतिकर्मणो वधकर्मणो वा-निरु० ९।१८। बाणाः। अस्त्रशस्त्राणि। इषुधारिणः। शूराः (तेभ्यः) दूरस्थेभ्यः। (नमः नमः) अतिशयेन सत्कारोऽन्नं वा। नमः=अन्नम्-निघ० २।८। (एभ्यः) समीपस्थेभ्यः (यः) दुष्टः। शत्रुः (द्वेष्टि) बाधते (द्विष्मः) बाधामहे (वः) युष्माकम्। शूराणाम् (जम्भे) जभि नाशे-घञ्। हनौ [Jaw] (दध्मः) धारयामः। अन्यत् सुगमम् ॥
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