अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 6
ऋषिः - अथर्वा
देवता - ऊर्ध्वा दिक्, बृहस्पतिः, श्वित्रः, वर्षम्
छन्दः - पञ्चपदा ककुम्मतीगर्भाष्टिः
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
79
ऊ॒र्ध्वा दिग्बृह॒स्पति॒रधि॑पतिः श्वि॒त्रो र॑क्षि॒ता व॒र्षमिष॑वः। तेभ्यो॒ नमो॑ऽधिपतिभ्यो॒ नमो॑ रक्षि॒तृभ्यो॒ नम॒ इषु॑भ्यो॒ नम॑ एभ्यो अस्तु। यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मस्तं वो॒ जम्भे॑ दध्मः ॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्ध्वा । दिक् । बृह॒स्पति॑: । अधि॑ऽपति: । श्वि॒त्र: । र॒क्षि॒ता । व॒र्षम् । इष॑व: । तेभ्य॑: । नम॑: । अधि॑पतिऽभ्य: । नम॑: । र॒क्षि॒तृऽभ्य॑: । नम॑: । इषु॑ऽभ्य: । नम॑: । ए॒भ्य॒: । अ॒स्तु॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । तम् । व॒: । जम्भे॑ । द॒ध्म:॥२७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ॥
स्वर रहित पद पाठऊर्ध्वा । दिक् । बृहस्पति: । अधिऽपति: । श्वित्र: । रक्षिता । वर्षम् । इषव: । तेभ्य: । नम: । अधिपतिऽभ्य: । नम: । रक्षितृऽभ्य: । नम: । इषुऽभ्य: । नम: । एभ्य: । अस्तु । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । तम् । व: । जम्भे । दध्म:॥२७.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
सेना व्यूह का उपदेश।
पदार्थ
(ऊर्ध्वा=ऊर्ध्वायाः) ऊपरवाली (दिक्=दिशः) दिशा का (बृहस्पतिः) बड़े-२ शूरों का स्वामी, बृहस्पति [पद वाला सेनापति] (अधिपतिः) अधिष्ठाता हो, (श्वित्रः) श्वेत वर्णवाले साँप [के समान सेना व्यूह] (रक्षिता) रक्षक होवे, (वर्षम्) वर्षा [वृष्टि विद्या] (इषवः) बाण होवें। (तेभ्यः अधिपतिभ्यः रक्षितृभ्यः) उन अधिष्ठाताओं और रक्षकों के लिये (नमोनमः) बहुत-२ सत्कार वा अन्न, और (एभ्यः इषुभ्यः) उन बाणों [बाण वालों] को (नमो नमः) बहुत-२ सत्कार वा अन्न (अस्तु) होवे। (यः) जो [वैरी] (अस्मान् द्वेष्टि) हमसे वैर करता है, [अथवा] (यम्) जिससे (वयम् द्विष्मः) हम वैर करते हैं, [हे शूरो !] (तम्) उसको (वः जम्भे) तुम्हारे जबड़े में (दध्मः) हम धरते हैं ॥६॥
भावार्थ
(बृहस्पति) मुख्य सेनापति पर्वत आदि उच्च स्थान में (श्वित्र) नाम सेनाव्यूह रचकर ठहरे और वारुणेय अर्थात् जल संबन्धी अस्त्र शस्त्रों से, अथवा अस्त्र शस्त्रों की वर्षा करके वैरियों को मिटाकर संसार में सैनिकों समेत कीर्ति पावे ॥६॥ यही मन्त्र [अथर्व० का० ३ सू० २७ म० १-६] महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत पुस्तक “पञ्चमहायज्ञविधिः” में “मनसा परिक्रमा मन्त्राः” के नाम से ईश्वरपरक अर्थ में आये हैं, वह अर्थ इस प्रकार होता है−पदार्थ−(प्राची=प्राच्याः) पूर्व वा सन्मुखवाली (दिक्=दिशः) दिशा का (अग्निः) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर (अधिपतिः) अधिष्ठाता और (असितः) बन्धनरहित (रक्षिता) रक्षक है, [जिसके] (आदित्याः) प्राण और किरणें (इषवः) बाण [के समान] हैं (तेभ्यः) उन (अधिपतिभ्यः) अधिष्ठाता, (रक्षितृभ्यः) रक्षा करनेवाले ईश्वरीय गुणों को (नमोनमः) बारम्बार नमस्कार, और (एभ्यः) इन (इषुभ्यः) बाणों [पापियों के लिये बाणरूप गुणों] को (नमोनमः) बारम्बार नमस्कार, और (एभ्यः) इन (इषुभ्यः) बाणों [पापियों के लिये बाणरूप गुणों] को (नमोनमः) बारम्बार नमस्कार (अस्तु) होवे। (यः) जो [अज्ञानी] (अस्मान्) हमसे (द्वेष्टि) वैर करता है, [अथवा] (यम्) जिस [अज्ञानी] से (वयम्) हम (द्विष्मः) वैर करते हैं, [हे ईश्वर गुणो !] (तम्) उसको (वः) तुम्हारे (जम्भे) मुख वा वश में (दध्मः) हम धरते हैं ॥१॥ भावार्थ−मनुष्य अपने सन्मुख और पूर्व दिशा में जगद्रक्षक परमात्मा को साक्षात् जानकर पापों से बचें और सब प्राणी अज्ञान और वैर छोड़कर परस्पर मित्रवत् रहें। यही भावार्थ अगले मन्त्रों में लगालें ॥१॥ पदार्थ−(दक्षिणा=दक्षिणस्याः) दक्षिण वा दाहिनी (दिक्=दिशः) दिशा का (इन्द्रः) पूर्ण ऐश्वर्यवाला परमेश्वर (अधिपतिः) अधिष्ठाता और (तिरश्चिराजिः=०-जेः) तिरछे चलनेवाले कीट, पतङ्ग, बिच्छू आदि की पंक्ति से (रक्षिता) बचानेवाला है, और (पितरः) ज्ञानी लोग (इषवः) बाण [के समान] हैं। (तेभ्यः) उन.... [म० १] ॥२॥ पदार्थ−(प्रतीची=०-च्याः) पश्चिम वा पीछेवाली (दिक्=दिशः) दिशा का (वरुणः) सब में उत्तम परमेश्वर (अधिपतिः) अधिष्ठाता, (पृदाकु=०-कुभ्यः) बड़े-२ अजगर सर्पादि विषधारी प्राणियों से (रक्षिता) बचानेवाला है, (अन्नम्) जिसके अन्न [अर्थात् पृथिव्यादि पदार्थ] (इषवः) बाण [बाणों के समान श्रेष्ठों की रक्षा और दुष्टों की ताड़ना के लिये] हैं। (तेभ्यः) उन..... [म० १] ॥३॥ पदार्थ−(उदीची=०-च्याः) उत्तर वा बाईं (दिक्=दिशः) दिशा का (सोमः) सब जगत् का उत्पन्न करनेवाला परमेश्वर (अधिपतिः) अधिष्ठाता और (स्वजः) अच्छे प्रकार अजन्मा (रक्षिता) बचानेवाला है, [जिसके] (अशनिः) बिजुली (इषवः) बाण हैं। (तेभ्यः) उन.... [म० १] ॥४॥ पदार्थ−(ध्रुवा=ध्रुवायाः) नीचेवाली (दिक्=दिशः) दिशा का (विष्णुः) व्यापक परमात्मा (अधिपतिः) अधिष्ठाता और (कल्माषग्रीवः) हरित रंगवाले वृक्षादि की ग्रीवावाला (रक्षिता) बचानेवाला है, [जिसके] (वीरुधः) सब वृक्ष (इषवः) बाण [के समान] हैं। (तेभ्यः) उन... [म० १] ॥५॥ पदार्थ−(ऊर्ध्वा=ऊर्ध्वायाः) ऊपरवाली (दिक्=दिशः) दिशा का (बृहस्पतिः) बड़ी वाणी अर्थात् वेदशास्त्र, और बड़े आकाशादि का स्वामी परमेश्वर (अधिपतिः) अधिष्ठाता और (श्वित्रः) ज्ञानमय और वृद्धिमय (रक्षिता) बचानेवाला है, जिसके (वर्षम्) बरसा के बिन्दु (इषवः) बाण [के समान] हैं। (तेभ्यः) उन... [म० १] ॥६॥
टिप्पणी
६−(ऊर्ध्वा) सू० २६ म० ६। ऊर्ध्वायाः। उपरि वर्तमानायाः। (दिक्) दिशः। दिशायाः (बृहस्पतिः) बृहतां शूराणां स्वामी। मुख्यसेनापतिः (श्वित्रः) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। इति श्विता वर्णे-रक्। श्वित्रः श्वेतवर्णः, एतत्संज्ञः सर्पः-इति सायणः। श्वेतसर्पवत् सेनाव्यूहः (वर्षम्) वृष्टिजलविद्या। वृष्टिवदायुधवृष्टिः। अन्यद् व्याख्यातम् ॥
विषय
ऊर्ध्वा दिशा।
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिः हे बृहस्पति लोकों में रमण करने वाले प्राणियो! मां बृहस्पति लोकों में गति करने वाली है। वह कैसी ऊर्ध्वा में रहने वाली मां है? ऊर्ध्वा में भी साधक मां को दृष्टिपात कर रहा है। मां की ऊर्ध्वा में आभा को साधक दृष्टिपात कर रहा है।
ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिः वह बृहस्पति हैं नाना लोक लोकान्तरों में वैज्ञानिकों के लिए बृहस्पति मण्डल है, दार्शनिकों के लिए बृहस्पति अन्तरिक्ष है और जो देव प्रवृत्ति वाले हैं, बृहस्पति उनके लिए गुरु बन करके, उनके ऊपर साया (छाया) करके प्रकाश दे रहा है, ज्ञान की आभा प्रकट कर रहा है।
वे बृहस्पति हैं। वह ऊर्ध्वा में श्वित्रो शिव बन करके मानव का कल्याण करने वाला है। नाना प्रकार के सुखों की, आनन्द की वृष्टि कर रहा है। कैसी वृष्टि कर रहा है? शिव महा आनन्द की वृष्टि करके मानव को प्रकाश दे रहा है। देवत्व को प्राप्त कर रहा है। दैवी सम्पदा वाले, देववत् को प्राप्त होते जा रहे हैं।
यह इस मां का छठा भुज कहलाता है। जिसमें ऊर्ध्वा में बृहस्पति गति कर रहा है। ऊर्ध्वा में जब तुम जाओगे, तो नाना प्रकार के मण्डलों में चले जाओगे। तो द्यौ लोकों में रमण करने लगोगे। आगे चले जाओगे, तो तुम्हें ऐसे ऐसे लोक प्राप्त होंगे, चार अरब बत्तीस करोड़ का यह जो कल्प चला जाता है, सृष्टि का दिवस चला जाता है, इतने समय में भी इन मण्डलों का प्रकाश पृथ्वी मण्डल पृथ्वी तल पर नहीं आ पाता।
वह कैसा है? वह कैसी आभावाला है? इतने समय में तीन तीन कल्प समाप्त हो जाते हैं। ब्रह्मरात्रि, ब्रह्म दिवस समाप्त हो जाते हैं परन्तु बहुत से तारा मण्डलों का प्रकाश इस पृथ्वी को स्पर्श भी नहीं कर पाता।
ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पति ऊर्ध्वा में गति करने वाला उपस्थान को प्राप्त होता है। ऊर्ध्वा में कौन जा रहा है? साधक जा रहा है। ऊर्ध्वा में कौन जा रहा है? जो ब्रह्मवेत्ता बनने जा रहा है, जो ब्रह्म का चिन्तन करने वाला है। साधक योगीजन अपनी उड़ान उड़ रहा है। ऊर्ध्वा में कौन जाता है? साधक जाता है प्रकृति की गोद में वैज्ञानिक चला जाता है, विज्ञान के युग में गति करने लगता है। वैज्ञानिक यंत्रों पर विद्यमान हो करके लोक लोकान्तरों की यात्रा करने लगता है।
ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिः ऊर्ध्वा में मानव को जाना चाहिए, ऊर्ध्वा में रमण करना चाहिए। यह जो यज्ञशाला में ईशान कोण कहलाता है, इसमें जहाँ कलश की स्थापना होती है; यज्ञशाला का जब आकार बनता है। त्रिभुजों वाला वहाँ ईशान कोण में कलश और ज्योति का प्रकाश होता है।
ईशान में गति करने वाला जब योगाभ्यास करने वाला प्राणी, मूलाधार में मूलबन्ध को लगा देता है। मूलबन्ध को लगा करके उसके पश्चात् वह नाभि केन्द्र में वह ज्योति का प्रकाश दृष्टिपात करता है। उसके पश्चात् वह जालन्धर बन्ध को लगा करके हृदय चक्र में अपने में ज्योति को दृष्टिपात करता है। उसके पश्चात् वह कण्ठ में और स्वाधिष्ठान चक्रों में और जहाँ त्रिवेणी का स्थान, जहाँ इडा, पिंगला, सुषुम्णा इनका मिलान होता है वहाँ त्रिभुज कहलाता है तीनों गुणों, तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण, को दृष्टि पात करके आत्मा ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश करता है।
ब्रह्मरन्ध्र में जब योगेश्वर जाता है, तो वह सर्व ब्रह्माण्ड को दृष्टिपात करता है। तो यज्ञशाला में ईशान कोण में कलश होता है। और ईशान कोण में ही ज्योति विद्यमान होती है। ज्योति को योगी ध्यानावस्थित करता है। कलश उसे कहते हैं, जो कुंभाकार बनाता है। जहाँ इसमें जल ओत प्रोत होता है। इसमें अमृत होता है। वह अमृत प्राण की वृष्टि कर रहा है, ज्ञान की वृष्टि कर रहा है। कलश स्वस्तिः के देने वाला है।
उसको पान करने से सरस्वती आती है। अमृत के ही पान करने वाले सरस्वती को अपने में धारण करते हैं। वह ईशान मां काली का सातवां भुज कहलाता है।
आठवां जो भुज है वो दक्षिणाय कृति कहलाता है। इसमें विद्युत समाहित हो करके और पश्चिम दिशा से अन्न का भंडार लेकर के इस मानव को भरण कर देती है।
विषय
ऊर्ध्वा दिक्
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार यदि हम अपनी उन्नति के आधार को धूव बनाएँगे तो उन्नति करते करते 'ऊर्ध्वा दिक्' में अवस्थित होंगे। यह जीव की उन्नति की चरम सीमा है। इसका (अधिपति:) = स्वामी (बृहस्पति:) = ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञानवाला 'ब्रह्मणस्पति' है। २. इस चरम उन्नति का (रक्षिता) = रक्षक (श्वित्र:) = श्वेत, शुद्ध, उज्ज्वल जीवनवाला है। धर्ममेघ समाधि की स्थिति में योगी को अनुभव होनेवाली (वर्षम्) = आनन्द की वर्षा (इषवः) = प्रेरक है, मानो यह कह रही है कि इस ऊर्ध्वा दिक् में पहुँचो और उद्भुत आनन्द का अनुभव करो। [शेष पूर्ववत्]
भावार्थ
उन्नति के आधार को व्यापक और ध्रुव बनाकर हम ऊर्ध्वा दिक् में पहुँचे। यहाँ पहुँचने पर हम बृहस्पति कहलाएंगे। जीवन को शुद्ध बनाकर इस ऊर्ध्वतम स्थिति का रक्षण करें और परिणामतः एक आनन्द की वृष्टि का अनुभव करें।
विशेष
इस ऊर्जा दिक् में पहुँचनेवाला ब्रह्मा कहलाता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है।
भाषार्थ
(ऊर्ध्वा दिक्) ऊपर की दिशा है, (बृहस्पतिः) बृहत् अर्थात् महा विस्तारी द्युलोक,१ (अधिपतिः) अधिपति है, (श्वित्रः) यह श्वित्र है, (रक्षिता) रक्षक है (वर्षम् इषवः) वर्षा इसके इषु हैं।
टिप्पणी
[बृहस्पतिः= "बृहत् चासौ पति," अथवा "बृहताम् अधिपतिः," द्युलोके। श्वित्रः= श्वेतते वर्णविशिष्टो भवतीति। कुष्ठभेदो वा (उणा० २।१३; दयानन्द)। द्युलोक चमकते ताराओं द्वारा श्वेतवर्णवाला है, तथा श्वेतवर्णी ताराओं के मध्यवर्ती स्थानों में आकाश की नीलिमा के कारण कुष्ठरोगरूपी भी है। द्युलोक की ओर से वर्षा आती है। यह वर्षा इषुरूप है; गर्मी, सोखा, अन्नादि के अभाव की विनाशिका है। अवशिष्ट मन्त्रार्थ तथा भावार्थ के लिए देखो मन्त्र (१)।] [१. ऊर्ध्वादिक् में ही ग्रह, उपग्रह, आदित्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, तारागण निवास करते तथा विचर रहे हैं, अतः ऊर्ध्वादिक ही वस्तु संसार या ब्रह्माण्ड है। शेष दिशाएँ तो लगभग शून्यसदृश हैं।]
विषय
शक्तिधारी देव के छः रूप ।
भावार्थ
(ऊर्ध्वा दिक्) ऊर्ध्व, ऊपर, द्यौ लोक की दिशा में (बृहस्पतिः अधिपतिः) बृहत् ब्रह्माण्ड एवं वेदवाणी का पति अर्थात् स्वामी, अधिपति स्वामी है (श्वित्रः रक्षिता) प्रकाशस्वरूप प्रभु रक्षक है और (वर्षम् इषवः) वर्षाएं उसके बाण हैं । तेभ्यो नमः इत्यादि पूर्ववत् । दिशा देव अधिपति रक्षिता इषु प्राची हेतयः अग्निः असितः अग्निः आदित्याः दक्षिणा अविष्यवः इन्द्रः तिरश्चिराजी कामः,पितरः प्रतीची वैराजाः वरुणः पृदाकुः आपः,अन्नम् उदीची विध्यन्तः सोमः स्वजः वातः,अशनिः ध्रुवां निलिम्पा: विष्णुः कल्माषग्रीवः ओषधीः,वीरुधः ऊर्ध्वा अवस्वन्तः बृहस्पतिः श्वित्रः बृहस्पतिः, वर्षम्
टिप्पणी
इस नकशे पर विचार करने और प्रथम और द्वितीय दोनों सूक्तों की तुलना से स्पष्ट प्रतीत होता है कि प्रथम सूक्त के इषु दूसरे सूक्त के अधिपति हैं । और दूसरे सूक्तों के इषुओं के गुण और कर्म प्रथम सूक्त के ‘देव’ हैं। ‘रक्षिता’ अधिपति का स्वरूप है । जैसे (१) प्राची दिशा का अधिपति अग्नि-सूर्य है उसका स्वरूप असितः= बन्धन रहित है, उसके किरणों की गति कहीं सीमित नहीं है। इसके बाण अर्थात् वह शक्ति जिससे वह सब का स्वामी है ‘आदित्य’ अर्थात् स्वतः किरणों का पुञ्ज सूर्य और उसकी किरण हैं। वे किरण ही उस प्रभु की इषु = वह शक्ति है जिससे वह जीवन के विघातक रोगों और अन्धकारों का नाश करता है। उन इषुओं का गुणवाचक और क्रियाप्रदर्शक नाम ‘हेति’ है, अर्थात् रोगजन्तु के नाशक और दूरगामी हैं। वे सूर्य से मानो फेंके जाते हैं। (२) दूसरी दिशा दक्षिण में ‘पितर’ इषु हैं। जीवों के पिता माता जीवों को उनके घातकों से बचाते हैं उनकी पुत्रैषणा=‘काम’ हैं। उसका दूसरा रूप ‘इन्द्र’ है। समस्त कामनाओं का एकमात्र आश्रय आत्मा है। सब टेढ़े जनों में वह तदनुरूप होकर उनको रास्ते पर लाता है इस प्रकार उन सब की रक्षा करता है। उनका कर्म है ‘अविष्यु’ अर्थात् बचा लेने की इच्छा ही उनका विशेष गुण है। (३) तीसरी दिशा प्रतीची के इषु=अर्थात् जीवों को मृत्यु से बचाने वाले साधन ‘अन्न’ और ‘आपः’ हैं । अन्नों का अधिपति मूलपालक वरुण है जो स्वतः जल है। ‘वैराजाः’ अर्थात् अन्न से उत्पन्न प्राण उस दिशा के देव हैं। समस्त प्राणी उसकी पुकार करते हैं ‘अन्न अन्न’ इसलिये अन्नदाता ‘पृदाकू’ है। (४) उत्तर दिशा में ‘अशनि’ = विद्युत् ही इषु हैं । सोम=प्रेरक या उसका उत्पादक सोम=वात अधिपति है। क्योंकि वायु की रगड़ से या देह में प्राणबल (Metabolism) से विद्युत् शक्ति या (Personal Magnatism) उत्पन्न होता है। उसका गुण है प्रवेध, प्रबल आघात करना। उसका स्वरूप है ‘स्वजः’ स्वयं गति करना और आप से आप बहना या उत्पन्न होना । (५) ‘ध्रुवा’ नीची पृथ्वी की दिशा में ओषधियां, लताएं ही जीव को मृत्यु से बचाती हैं, वे इषु है। वे पृथ्वी में सर्वत्र व्यापक होने से विष्णु उनका अधिपति है, नाना वर्ण के पुष्प पुत्रादि होने से ‘कल्माषग्रीव’ उनका रक्षक है, उनके लेपन आदि करने से भूतलवासी सर्प आदि विषैले जन्तुओं का नाश होता है अतः उसके देव वैद्य ‘निलिम्प’ हैं, या गुण स्वतः देव हैं । (६) ऊर्ध्वा दिशा में वहां से आने वाले वर्षा-जल मृत्यु से बचाने वाले इषु हैं । बृहस्पति = मेघ अधिपति है। श्वित्र=सूर्य रक्षक है। जीवों के प्राणों की रक्षा करना ये दिव्य गुण हैं। इत्यादि विचारों की योजना करना उचित है। इति दिक्। ‘अशनिरिषवः’ इति पैप्प० सं०। ‘चित्रो रक्षिता’ इति क्वचित् । ‘बृहती’- दिक्’ इति तै० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। रुद्रा अग्न्यादयश्च बहवो देवताः। १-६ पञ्चपदा ककुम्मतीगर्भा अष्टिः। २ अत्यष्टिः। ५ भुरिक्। षडृर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Protective ircle of Divine Powers
Meaning
Upward in the higher quarters, Brhaspati, lord of infinity, saviour against drought and desert of life, is the ruler and guardian spirit, his arrows being rain and grace. Homage to all of them. Worship to the ruling lord, homage to the protectors, to the arrows, to all of these. O lord, whoever hates us, whoever we hate to suffer, all that we deliver unto your divine justice.
Translation
Zenith region; Brhaspati (Jupiter) is its lord. Śvitra (white snake) is its defender. Rains are the arrows. Our homage be to them; homage to the lords; homage to defenders; homage to the arrows; homage to all of them. Him, who hates us and whom we do hate, we commit to your jaws.
Translation
God who is the Lord of speech and vast space etc., is the Lord of the regions above us; powers of His innate Omniscience are His protection for us, drops of rain are His arrows etc., etc.
Translation
A man of spiritual knowledge controls the topmost region, a pure minded person is its warder, pure rainy water are the arrows. Worship.these the rulers, these the warders .and to the arrows. Yea to these all be worship. Within your jaws of justice, we lay theignorant men who hateus and whom we dislike.
Footnote
Topmost region means Zenith. This region refers to spiritual uplift and advancement.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(ऊर्ध्वा) सू० २६ म० ६। ऊर्ध्वायाः। उपरि वर्तमानायाः। (दिक्) दिशः। दिशायाः (बृहस्पतिः) बृहतां शूराणां स्वामी। मुख्यसेनापतिः (श्वित्रः) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। इति श्विता वर्णे-रक्। श्वित्रः श्वेतवर्णः, एतत्संज्ञः सर्पः-इति सायणः। श्वेतसर्पवत् सेनाव्यूहः (वर्षम्) वृष्टिजलविद्या। वृष्टिवदायुधवृष्टिः। अन्यद् व्याख्यातम् ॥
हिंगलिश (1)
Subject
Below us under ground ऊर्ध्वा –हमारे नीचे की दिशा में
Word Meaning
भौतिक उन्नति के शिखर पर पहुंचने के लिए बृहस्पति का आश्रय मिलता है ,जो निष्कपट निश्छल उत्तम ज्ञान और वाणी द्वारा इसी प्रकार आवश्यक है जैसे मेघ से वर्षा के बाण पर्यावरण को शुद्ध और निर्मल बना कर हमारी रक्षा करते हैं. हम इस व्यवस्था के प्रति नमस्कार करते हैं, इस प्रकार हमें सुरक्षा प्रदान करने के लिए नमस्कार करते हैं और जो हमारे इस मार्ग में शत्रु रूपी बाधाएं होती हैं अअ उन्हें हम समाजिक ईश्वरीय न्याय पर छोड़ते हैं . To attain great heights of success and progress we have dedicate ourselves to selfless wisdom and good articulate communication. Brihaspati is the lord of these faculties. Our conduct should be as free of dirt and pollutants as the environment made clean by good rains from the clouds. We are grateful to Nature for this order of things and dedicate our efforts to Him and leave the impediments in our path to be dealt with higher wisdom and justice of Nature and society.
बंगाली (2)
भाषार्थ
(উর্ধ্বা দিক্) উর্ধ্ব দিকের, (বৃহস্পতিঃ) বৃহৎ অর্থাৎ মহাবিস্তারিত দ্যুলোকের১, (অধিপতিঃ) অধিপতি হলো (শ্বিত্রঃ) শ্বিত্র, (রক্ষিতা) রক্ষক। (বর্ষম্ ইষবঃ) বর্ষা যার ইষু। (তেভ্যঃ) তার প্রতি (নমঃ) আমাদের প্রহ্বীভাবঃ/নমস্কার হোক, (অধিপতিভ্যঃ নমঃ) সেই অধিপতিদের প্রতি নমস্কার, (রক্ষিতৃভ্যঃ নমঃ) সেই রক্ষকদের প্রতি নমস্কার, (ইষুভ্যঃ নমঃ) ইষুরূপ/বাণরূপ তার প্রতি নমস্কার, (এভ্যঃ) এই সকলের প্রতি (নমঃ) নমস্কার (অস্তু) হোক। (যঃ) যে/যারা (অস্মান্ দ্বেষ্টি) আমাদের সাথে দ্বেষ/হিংসা করে, (যম্ বয়ম্ দ্বিষ্মঃ) এবং যার সাথে প্রতিক্রিয়ারূপে আমরা দ্বেষ করি (তম্) তাকে/সেগুলোকে/তাদের (বঃ জম্ভে) তোমার চোয়ালে (দধ্মঃ) আমরা স্থাপিত করি।
टिप्पणी
[বৃহস্পতিঃ= "বৃহৎ চাসৌ পতিঃ" অথবা "বৃহতাম্ অধিপতিঃ" দ্যুলোক। শ্বিত্রঃ=শ্বেততে বর্ণবিশিষ্টো ভবতীতি। কুষ্ঠভেদো বা (উণা০ ২।১৩; দয়ানন্দ)। দ্যুলোক জাজ্বল্যমান নক্ষত্রসমূহের দ্বারা শ্বেতবর্ণসম্পন্ন, এবং শ্বেতবর্ণী তারাদের মধ্যবর্তী স্থানে আকাশের নীলিমার কারণে কুষ্ঠরোগরূপী। দ্যুলোকের দিক থেকে বর্ষা আসে। এই বর্ষা ইষুরূপ; উত্তাপ, খরা, অন্নাদির অভাব বিনষ্টকারী। অবশিষ্ট মন্ত্রার্থ এবং ভাবার্থের জন্য দেখো মন্ত্র (১)] [১. ঊর্ধ্বদিকেই গ্ৰহ, উপগ্ৰহ, আদিত্য, চন্দ্র, নক্ষত্র, তারা রয়েছে এবং বিচরণ করছে, অতঃ ঊর্ধ্বিদিকই বস্তুতঃ সংসার বা ব্রহ্মাণ্ড। বাকি দিশা তো প্রায় শূন্যসদৃশ।]"
मन्त्र विषय
সেনাব্যূহোপদেশঃ
भाषार्थ
(ঊর্ধ্বা=ঊর্ধ্বায়াঃ) উপরের (দিক্=দিশঃ) দিশার (বৃহস্পতিঃ) বৃহৎ-মহৎ বীরদের স্বামী, বৃহস্পতি [পদের সেনাপতি] (অধিপাতঃ) অধিষ্ঠাতা হোক, (শ্বিত্রঃ) শ্বেত বর্ণবিশিষ্ট সাপ [এর সমান সেনা ব্যূহ] (রক্ষিতা) রক্ষক হোক, (বর্ষম্) বর্ষা [বৃষ্টি বিদ্যা] (ইষবঃ) বাণ হোক। (তেভ্যঃ অধিপতিভ্যঃ রক্ষিতৃভ্যঃ) সেই অধিষ্ঠাতাদের এবং রক্ষকদের জন্য (নমোনমঃ) অনেক-অনেক সৎকার বা অন্ন, এবং (এভ্যঃ ইষুভ্যঃ) সেই বাণ [বাণধারী] কে (নমো নমঃ) অনেক-অনেক সৎকার বা অন্ন (অস্তু) হোক। (যঃ) যে [শত্রু] (অস্মান্ দ্বেষ্টি) আমাদের সাথে শত্রুতা করে, [অথবা] (যম্) যাঁর প্রতি (বয়ম্ দ্বিষ্মঃ) আমরা শত্রুতা করি, [হে বীরগণ !] (তম্) তাঁকে (বঃ) তোমার (জম্ভে) দৃঢ় বন্ধনে (দধ্মঃ) আমরা ধরি/স্থাপন করি॥৬॥
भावार्थ
(বৃহস্পতি) মুখ্য সেনাপতি পর্বত আদি উচ্চ স্থানে (শ্বিত্র) নামক সেনাব্যূহ তৈরি করে থাকুক এবং বারুণেয় অর্থাৎ জল সম্বন্ধিত অস্ত্র শস্ত্র দ্বারা, অথবা অস্ত্র শস্ত্রের বর্ষা করে শত্রু ও শত্রুতা বিনাশ করে সংসারে সৈনিকদের সহিত কীর্তি প্রাপ্ত হোক ॥৬॥
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