अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 5
ऋषिः - वेनः
देवता - बृहस्पतिः, आदित्यः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त
229
स बु॒ध्न्यादा॑ष्ट्र ज॒नुषो॒ऽभ्यग्रं॒ बृह॒स्पति॑र्दे॒वता॒ तस्य॑ स॒म्राट्। अह॒र्यच्छु॒क्रं ज्योति॑षो॒ जनि॒ष्टाथ॑ द्यु॒मन्तो॒ वि व॑सन्तु॒ विप्राः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस: । बु॒ध्न्यात् । आ॒ष्ट्र॒ । ज॒नुष॑: । अ॒भि । अग्र॑म् । बृह॒स्पति॑: । दे॒वता॑ । तस्य॑ । स॒म्ऽराट् । अह॑: । यत् । शु॒क्रम् । ज्योति॑ष: । जनि॑ष्ट । अथ॑ । द्यु॒ऽमन्त॑: । वि । व॒स॒न्तु॒ । विप्रा॑: ॥१.५॥
स्वर रहित मन्त्र
स बुध्न्यादाष्ट्र जनुषोऽभ्यग्रं बृहस्पतिर्देवता तस्य सम्राट्। अहर्यच्छुक्रं ज्योतिषो जनिष्टाथ द्युमन्तो वि वसन्तु विप्राः ॥
स्वर रहित पद पाठस: । बुध्न्यात् । आष्ट्र । जनुष: । अभि । अग्रम् । बृहस्पति: । देवता । तस्य । सम्ऽराट् । अह: । यत् । शुक्रम् । ज्योतिष: । जनिष्ट । अथ । द्युऽमन्त: । वि । वसन्तु । विप्रा: ॥१.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सृष्टि विद्या से ब्रह्म का विचार।
पदार्थ
(सः) ईश्वर (जनुषः) उत्पन्न जगत् के (बुध्न्यात्) मूल देश से लेकर (अग्रम् अभि) उपरि भाग तक (आष्ट्र=आष्ट) व्याप्त हुआ। (बृहस्पतिः) बड़े बड़ों का स्वामी (देवता) प्रकाशमान परमेश्वर (तस्य) उस [जगत्] का (सम्राट्) सम्राट् [राजराजेश्वर] है। (यत्) क्योंकि (ज्योतिषः) ज्योतिःस्वरूप परमेश्वर से (शुक्रम्) चमचमाता हुआ (अहः) दिन [सूर्य] (जनिष्ट=अजनिष्ट) उत्पन्न हुआ, (अथ) तभी (विप्राः) इन्द्रियाँ वा बुद्धिमान् लोग (द्युमन्तः) प्रकाशमान् होकर (वि) विविध प्रकार से (वसन्तु) निवास करें ॥५॥
भावार्थ
परमेश्वर इस सब जगत् के आदि अन्त में विराजमान है, वही सार्वभौम शासक है, उसीने सूर्य को बनाया है जिससे इन्द्रियाँ प्रकाश पाकर अपना व्यापार करती हैं। उसीसे पंडित जन विद्या प्रकाश करके कीर्त्तिमान होते हैं ॥५॥ पं० सेवकलाल कृष्णदास की संहिता और सायणभाष्य में (आष्ट्र) के स्थान में [आष्ट] है ॥
टिप्पणी
५−(सः) म० ४। ईश्वरः (बुध्न्यात्) म० १। मूले भवाद् देशात् (आष्ट्र) अशू व्याप्तौ-छान्दसो लुङ्। आष्ट। आश्नुत। व्याप्नोत् (जनुषः) म० २। प्रादुर्भूतस्य संसारस्य (अभि) अभितः सर्वतः (अग्रम्) उपरिभागम् (बृहस्पतिः) बृहतां लोकानां स्वामी (देवता) देवात् तल्। पा० ५।४।२७। इति स्वार्थे तल्। देवः। प्रकाशमानः परमेश्वरः (तस्य) जनुषो जगतः (सम्राट्) सत्सूद्विष०। पा० ३।२।६१। इति सम्+राजृ दीप्त्यैश्वर्ययोः क्विप्। मो राजि समः क्वौ। पा० ८।३।२५। इति समो मस्य अनुस्वाराभावः। सम्यक् राजमानः। राजाधिराजः। चक्रवर्त्ती (अहः) दिनम् (यत्) यस्मात् कारणात् (शुक्रम्) अ० २।१२।५। दीप्यमानम् (ज्योतिषः) अ० १।९।१। द्योतमानात् परमेश्वरात् (जनिष्ट) जनी प्रादुर्भावे लुङ्, अडभावः। प्रादुरभूत् (अथ) अनन्तरम्। तस्मात् कारणात् (द्युमन्तः) दीप्तिमन्तः (वि वसन्तु) विविधं वर्तन्ताम् (विप्राः) अ० ३।३।२। विप्राणां व्यापनकर्मणामिन्द्रियाणाम्-निरु० १४।१३। इन्द्रियाणि। मेधाविनः पुरुषाः ॥
विषय
सर्वव्यापक प्रभु के उपासन के साथ दिन का आरम्भ
पदार्थ
१. (स:) = वे महान् प्रभु (जनुषः) = इस उत्पन्न होनेवाले संसार के (बुध्यात्) = मूल से लेकर (अग्रं, अभि) = ऊपरी भाग तक (आष्ट्र) = व्याप्त हो रहे हैं और देवता दान आदि गुणों से युक्त (बृहस्पति:) = सम्पूर्ण ज्ञान के अधिपति प्रभु (तस्य) = उस उत्पन्न लोक के (सम्राट्) = शासक हैं, २. (यत्) = जब (शुक्रम्) = यह दीप्यमान (अहः)-दिन (ज्योतिषः) = द्योतमान सूर्य से (जनिष्ट) = प्रकट होता है, (अथ) = तब (धुमन्त:) = ज्ञान की दीप्तिवाले (विप्राः) = मेघावी पुरुष (विवसन्तु) = अपने-अपने कर्मों में विविधरूप से प्रवृत्त होते हैं, अथवा हवि के द्वारा देवों का परिचरण करते हैं।
भावार्थ
प्रभु एक सिरे से दूसरे सिरे तक सर्वत्र व्याप्त हैं। वे ही इस ब्रह्माण्ड के शासक हैं। ज्ञानी लोग सूर्योदय होते ही उस प्रभु का उपासन करते हैं और अपने कार्यों में प्रवृत्त हो जाते हैं।
भाषार्थ
(सः) वह प्रजापति-परमेश्वर (जनुषः) जन्मोंवाले (बुध्न्यात् ) मूल भूत लोक अर्थात् पृथिवी से आरम्भ करके (अग्रम्, अभी) ऊपर के लोक को लक्ष्य करके (आष्ट्र) व्याप्त है। (बृहस्पति देवता) बृहत्-जगत्-का-पति, अर्थात् सूर्य-देवता (तस्य) उस जगत् का (सम्राट्) सम्राट् है (ज्योतिषः) उस ज्योतिर्मय सूर्य से (यत्) जो (शुक्रम् अहः) शुक्र, अर्थात् शुचिमान् दिन (जनिष्ट) उत्पन्न हुआ है, (अथ) तदनन्तर (द्युमन्त:) ज्ञान-प्रकाश से सम्पन्न, (विप्राः) मेधावी उपासक, (वि वसन्तु) प्रजापति-परमेश्वर की परिचर्या करें, उपासना करें।
टिप्पणी
[विवासति परिचरणकर्मा (निघं० ३।५)। विप्रः मेधाविनाम (निघं० ३।१५)। मन्त्र में प्रातःकाल की उपासना का वर्णन हुआ है। समग्र जगत् में कोई देव, जो बहु प्रकाशमान दृष्टिगोचर होता है, वह सूर्य ही है, अतः उसे जगत् का सम्राट् कहा है।]
विषय
परमेश्वर की उत्पादक और धारक शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(सः) वह परमेश्वर ही (देवता) सब का प्रकाशक और प्रकाशस्वरूप (तस्य) उस जगत् का (सम्राट्) स्वतः प्रकाशक, सब से बड़ा अधिष्ठाता, महाराज है। वही (जनुषः) उत्पन्न होने हारे इस सृष्टि के (बुध्न्यात्) मूल से लेकर (अभि अग्रम्) चोटी तक (आष्ट्र) व्यापक है। देखो, (यत्) जब (ज्योतिषः) प्रकाशमान सूर्य के प्रकाश से (अहः) दिन भी (शुक्रं) प्रकाशमान् (जनिष्ट) उत्पन्न हुआ (अथ) तभी (विप्राः) मेधावी बुद्धिमान् लोग और ये इन्द्रिय और समस्त लोक भी (द्युमन्तः) प्रकाशयुक्त और ज्ञानवान् होकर (वि वसन्तु) रहते हैं। अगर उसका प्रकाश न होता तो सब अन्धकारमय हो जाता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वेन ऋषिः। बृहस्पतिस्त आदित्यो देवता। १, ३, ४, ६, ७ त्रिष्टुभः। २, ५ भुरिजः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Negativity
Meaning
He, Brhaspati, mighty lord of Infinity, is the first and foremost self refulgent power and ruler of all that is in existence, from the centre to the circumference, pure immaculate spirit of the cosmic day born of light divine in which brilliant and vibrant sages abide through meditation and yajnic action.
Translation
He existed from the very beginning (origin), even before the - first birth. The divine Lord supreme is glorious ruler of that creation. As the bright day was born out of the light, so may the luminous wise ones live happily.
Translation
He is the God of all. He is the emperial ruler of this universe and the Lord of Vedic speech. He pervades from top to bottom of the created world. As the day with all its lustres is born from the sun therefore, the wise men being enlightened through this, live.
Translation
God, the Illuminator of all, is the Emperor of this world. He pervades the created universe from the bottom to the top. When the day dawns receiving light from the luminous sun, through this let sages live endowed with splendor.
Footnote
But for the light of the sun, the world would have been engulfed in darkness.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(सः) म० ४। ईश्वरः (बुध्न्यात्) म० १। मूले भवाद् देशात् (आष्ट्र) अशू व्याप्तौ-छान्दसो लुङ्। आष्ट। आश्नुत। व्याप्नोत् (जनुषः) म० २। प्रादुर्भूतस्य संसारस्य (अभि) अभितः सर्वतः (अग्रम्) उपरिभागम् (बृहस्पतिः) बृहतां लोकानां स्वामी (देवता) देवात् तल्। पा० ५।४।२७। इति स्वार्थे तल्। देवः। प्रकाशमानः परमेश्वरः (तस्य) जनुषो जगतः (सम्राट्) सत्सूद्विष०। पा० ३।२।६१। इति सम्+राजृ दीप्त्यैश्वर्ययोः क्विप्। मो राजि समः क्वौ। पा० ८।३।२५। इति समो मस्य अनुस्वाराभावः। सम्यक् राजमानः। राजाधिराजः। चक्रवर्त्ती (अहः) दिनम् (यत्) यस्मात् कारणात् (शुक्रम्) अ० २।१२।५। दीप्यमानम् (ज्योतिषः) अ० १।९।१। द्योतमानात् परमेश्वरात् (जनिष्ट) जनी प्रादुर्भावे लुङ्, अडभावः। प्रादुरभूत् (अथ) अनन्तरम्। तस्मात् कारणात् (द्युमन्तः) दीप्तिमन्तः (वि वसन्तु) विविधं वर्तन्ताम् (विप्राः) अ० ३।३।२। विप्राणां व्यापनकर्मणामिन्द्रियाणाम्-निरु० १४।१३। इन्द्रियाणि। मेधाविनः पुरुषाः ॥
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