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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 23/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मृगारः देवता - प्रचेता अग्निः छन्दः - पुरस्ताज्ज्योतिष्मती त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
    59

    याम॑न्याम॒न्नुप॑युक्तं॒ वहि॑ष्ठं॒ कर्म॑ङ्कर्म॒न्नाभ॑गम॒ग्निमी॑डे। र॑क्षो॒हणं॑ यज्ञ॒वृधं॑ घृ॒ताहु॑तं॒ स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम॑न्ऽयामन् । उप॑ऽयुक्तम् । वहि॑ष्ठम् । कर्म॑न्ऽकर्मन् । आऽभ॑गम् । अ॒ग्निम् । ई॒डे॒ । र॒क्ष॒:ऽहन॑म् । य॒ज्ञ॒ऽवृध॑म् । घृ॒तऽआ॑हुतम् । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यामन्यामन्नुपयुक्तं वहिष्ठं कर्मङ्कर्मन्नाभगमग्निमीडे। रक्षोहणं यज्ञवृधं घृताहुतं स नो मुञ्चत्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यामन्ऽयामन् । उपऽयुक्तम् । वहिष्ठम् । कर्मन्ऽकर्मन् । आऽभगम् । अग्निम् । ईडे । रक्ष:ऽहनम् । यज्ञऽवृधम् । घृतऽआहुतम् । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 23; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कष्ट हटाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (यामन् यामन्) प्रत्येक गति वा उद्योग में (उपयुक्तम्) उपयोग किये, (कर्मन्कर्मन्) प्रत्येक कर्म में (आभगम्) अच्छे प्रकार से भक्ति योग्य, (वहिष्ठम्) अतिबली, (रक्षोहणम्) राक्षसों के हनन करनेहारे, (यज्ञवृधम्) पूजनीय कर्म के बढ़ानेवाले, (घृताहुतम्) प्रकाश के भलीभाँति देनेवाले, (अग्निम्) सर्वज्ञ अग्नि, परमात्मा की (ईडे) मैं स्तुति करता हूँ। (सः) वह (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतु) छुड़ावे ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य प्रत्येक कर्म में परमात्मा का ध्यान करके उद्योग करते हैं, वही बाहिरी और भीतरी शत्रुओं को हटाकर संसार में सुख भोगते हैं ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यामन् यामन्) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति या प्रापणे-मनिन्। सप्तम्या लुक्। यामनि यामनि। सर्वस्यां गतौ (उपयुक्तम्) उपयोगीभूतम् (वहिष्ठम्) तुश्छन्दसि। पा० ५।३।५९। इति वोढृ-इष्ठन्। तुरिष्ठेमेयस्सु। पा० ६।४।१५४। इति तृलोपः। वोढृतमम्। अतिशयेन प्रापकम्। बलिष्ठम् (कर्मन् कर्मन्) डुकृञ् करणे-मनिन्। सप्तम्या लुक्। सर्वस्मिन् कर्मणि (आभगम्) आभक्तव्यम्। आसेव्यम् (अग्निम्) सर्वज्ञं परमात्मानम् (ईडे) ईड स्तुतौ। अग्निमीडेऽग्निं याचामीडिरध्येषणाकर्मा पूजाकर्मा वा-निरु० ७।१५। स्तौमि (रक्षोहणम्) रक्षस्+हन् हिंसागत्योः-क्विप्। रक्षसां हन्तारम् (यज्ञवृधम्) यज्ञस्य पूजनीयकर्मणो वर्धयितारम् (घृताहुतम्) घृत+आङ्−हु दाने-क्विप्, तुक् च। घृतस्य प्रकाशस्य सम्यग् दातारम्। अन्यत् पूर्ववत् अ० १ ॥

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    विषय

    रक्षोहणं, यज्ञवृधं, घृताहुतम्

    पदार्थ

    १. (यामन् यामन्) = जीवन के प्रत्येक मार्ग में ज्ञान-भक्ति व कर्मप्रधान सभी मार्गों में (उपयुक्तम्) = उपयुक्त, अर्थात् ज्ञानियों को ज्ञान प्राप्त करानेवाले, भक्तों की वृत्ति को उत्तम बनानेवाले व यज्ञादि कर्मों को सिद्ध करनेवाले उस (वहिष्ठम्) = वोढ़तम-लक्ष्य-स्थान तक पहुँचानेवाले, (कर्मन् कर्मन्) = प्रत्येक कर्म में (आभगम्) = उपासनीय, अर्थात् कर्मों के द्वारा ही जिसकी उपासना होती है, उस (अग्निम्) = अग्रणी प्रभु को (ईडे) = मैं उपासित करता हूँ। २. उस प्रभु की उपासना करता हूँ जोकि (रक्षोहणम्) = राक्षसी वृत्तियों का संहार करनेवाले हैं, (यज्ञवृधम्) = हमारे यज्ञों का वर्धन करनेवाले हैं और (घृताहुतम्) = [घृ दीसौ] ज्ञान-दीसियों द्वारा हदयदेश में आहुत [दीस] होते हैं। सब यज्ञ प्रभु द्वारा ही पूर्ण किये जाते हैं तथा ज्ञानाग्नि को दीस करने पर ही प्रभु का हृदय में दर्शन होता है। (स:) = वे प्रभु (न:) = हमें (अंहसः) = पाप से (मुञ्चतु) = मुक्त करें।

    भावार्थ

    प्रभुकृपा से ही हमें सर्वत्र सफलता मिलती है, प्रभु ही हमें लक्ष्यस्थान पर पहुँचाते हैं, ये प्रभु ही हमारे कर्मों को पूर्ण करते हैं, राक्षसी वृत्तियों को नष्ट करके प्रभु ही हममें यज्ञों का वर्धन करते हैं। ज्ञान-दीप्ति से हृदय में घोतित ये प्रभु हमें पापों से मुक्त करें।

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    भाषार्थ

    (यामन्-यामन्) दिन और रात के प्रत्येक काल में (उपयुक्तम्) उपयोगी१, (वहिष्ठम्) हमारे भक्तिहव्य का वहन करनेवाले, (कर्मन् कर्मन्) प्रत्येक कर्म में (आ भगम्) सर्वथा भजनीय, (रक्षोहणम्) तामसिक भावों का हनन करनेवाले, (यज्ञवृधम्) यज्ञकर्म को बढ़ानेवाले, (घृताहुतम्) घृताहुति को प्राप्त करनेवाले (अग्निम्) परमेश्वराग्नि की (ईडे) मैं स्तुति करता हूँ, (सः) वह (न:) हमें (अंहस:) पास से (मुञ्चतु) छुड़ाए।

    टिप्पणी

    [यामन्= तीन घंटों का काल, परन्तु मन्त्र में यामन् पद केवल भिन्न-भिन्न काल का ही सूचक है। 'घृताहुतम्' पद द्वारा याज्ञिकाग्नि अभिप्रेत है। याज्ञिकाग्नि में दी गई आहुतियाँ भी परमेश्वराग्नि में ही दी गई जाननी चाहिएँ। याज्ञिकाग्नि में प्रविष्ट परमेश्वराग्नि के प्रति ही आहुतियाँ दी जाती हैं। यथा "अग्नावग्निश्चरति प्रविष्ट ऋषीणां पुत्रो अभिशस्तिपा उ" (अथर्व० ४।३९।९)। परमेश्वराग्नि ही पाप करने से छुड़ा सकती है, जड़ याज्ञिकाग्नि नहीं। सायणाचार्य आदि भी याज्ञिक पद्धति में, अग्नि आदि को चेतनाधिष्ठित ही मानते हैं।] [१. दिन और रात के प्रत्येक काल में, तथा प्रत्येक कर्म में, परमेश्वर का विचार रखना अत्युपयोगी है। इससे पाप-कर्म करने में प्रवृत्ति नहीं होती और व्यक्ति पाप से विमुक्त हो जाता है।]

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    विषय

    पापमोचन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    जिस प्रकार प्रतिदिन यज्ञ और भोजनपाक आदि के अवसर में अग्नि का उपयोग किया जाता है, यही भारी २ गाड़ियों को ढो ले जाता है, हरेक काम में उसका आश्रय लेना पड़ता है उसके शत्रु का विनाश किया जाता है सब यज्ञों को बढ़ाया जाता और घृत की आहुति दी जाती है उसी प्रकार या उससे भी अधिक (यामन् यामन्) प्रत्येक याम= दिन (उपयुक्तं) समीपतम होकर समाधि द्वारा प्राप्त करने योग्य, (वहिष्ठं) समस्त संसार को वहन करने में सबसे बड़ी शक्ति रूप, (कर्मन् कर्मन्) प्रत्येक काम में (आभगम्) सब प्रकार से भजने योग्य, (रक्षोहणं) विघ्नों और विघ्नकर्ताओं के विनाशक, (यज्ञवृधं) देवपूजा, दान, संगतिकरण आदि शुभ कार्यों के प्रवर्तक, (घृताहुतं) घृत = तेज = दीप्ति से सर्वत्र प्रकाशित उस (अग्नि) अग्नि की (ईडे) स्तुति करता हूं, (सः नः मुञ्चतु अंहसः) वह ईश्वर हमें पाप से मुक्त करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मृगार ऋषिः। इतः परं सप्त मृगारसंज्ञानि सूक्तानि तत्र नाना देवताः। ३ पुरस्ता-ज्ज्योतिष्मती। ४ अनुष्टुप्। ६ प्रस्तार पंक्तिः॥ १-२, ७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Deliverance from Sin

    Meaning

    Day by day, I honour and worship Agni, appropriate and adorable power in every act and programme, most powerful carrier of every thing to its proper end, destroyer of negative forces, growing by oblations of ghrta and exalting the yajna further. May that dynamic power and presence save us from sin and distress.

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    Translation

    I adore the fire-divine, that is put to use at each and every time, the best of the carriers, worshipped at each and every rite, the destroyer of evil ones, fosterer of sacrifice, receiver of the oblation of clarified butter. As such, may he free us from sin.

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    Translation

    I praise the Properties of fire which is utilized in our Work in each part Of the day, which is most Supporting Physical force, which is employed in all our dealings which is the destroyer of disease germs, which Strengthens the Performances of Yajna and which is enriched with glamour. Let it be the Source of Keeping us away from grief and troubles

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    Translation

    I praise God, Helpful in each struggle, All-powerful, Adorable in each deed, the Remover of obstacles, the Goader to noble acts, and the Giver of light. May He deliver us from sin.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यामन् यामन्) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति या प्रापणे-मनिन्। सप्तम्या लुक्। यामनि यामनि। सर्वस्यां गतौ (उपयुक्तम्) उपयोगीभूतम् (वहिष्ठम्) तुश्छन्दसि। पा० ५।३।५९। इति वोढृ-इष्ठन्। तुरिष्ठेमेयस्सु। पा० ६।४।१५४। इति तृलोपः। वोढृतमम्। अतिशयेन प्रापकम्। बलिष्ठम् (कर्मन् कर्मन्) डुकृञ् करणे-मनिन्। सप्तम्या लुक्। सर्वस्मिन् कर्मणि (आभगम्) आभक्तव्यम्। आसेव्यम् (अग्निम्) सर्वज्ञं परमात्मानम् (ईडे) ईड स्तुतौ। अग्निमीडेऽग्निं याचामीडिरध्येषणाकर्मा पूजाकर्मा वा-निरु० ७।१५। स्तौमि (रक्षोहणम्) रक्षस्+हन् हिंसागत्योः-क्विप्। रक्षसां हन्तारम् (यज्ञवृधम्) यज्ञस्य पूजनीयकर्मणो वर्धयितारम् (घृताहुतम्) घृत+आङ्−हु दाने-क्विप्, तुक् च। घृतस्य प्रकाशस्य सम्यग् दातारम्। अन्यत् पूर्ववत् अ० १ ॥

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