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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 23/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मृगारः देवता - प्रचेता अग्निः छन्दः - प्रस्तारपङ्क्ति सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
    76

    येन॑ दे॒वा अ॒मृत॑म॒न्ववि॑न्द॒न्येनौष॑धी॒र्मधु॑मती॒रकृ॑ण्वन्। येन॑ दे॒वाः स्वराभ॑र॒न्त्स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । दे॒वा: । अ॒मृत॑म् । अ॒नु॒ऽअवि॑न्दन् । येन॑ । ओष॑धी: । मधु॑ऽमती: । अकृ॑ण्वन् । येन॑ । दे॒वा: । स्व᳡: । आ॒ऽअभ॑रन् । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२३.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन देवा अमृतमन्वविन्दन्येनौषधीर्मधुमतीरकृण्वन्। येन देवाः स्वराभरन्त्स नो मुञ्चत्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । देवा: । अमृतम् । अनुऽअविन्दन् । येन । ओषधी: । मधुऽमती: । अकृण्वन् । येन । देवा: । स्व: । आऽअभरन् । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२३.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 23; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कष्ट हटाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (येन) जिसके द्वारा (देवाः) विद्वान् देवताओं ने (अमृतम्) अमरपन [मृत्यु से छुटकारा अर्थात् मोक्ष वा कीर्ति] को (अनु-अविन्दन्) अनन्तर पाया है, और (येन) जिसके आश्रय से (ओषधीः) यव आदि पदार्थों को (मधुमतीः) मधुर रसवाली (अकृण्वन्) बनाया है, और (येन) जिसके द्वारा (देवाः) देवताओं ने (स्वः) स्वर्ग अर्थात् महा आनन्द (आ अभरन्) यथावत् धारण किया है, (सः) वह (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतु) छुड़ावे ॥६॥

    भावार्थ

    जिस परमेश्वर की महिमा से महापुरुषों ने पुरुषार्थ करके अमरपन अर्थात् सुन्दर नाम प्राप्त किया है, और सांसारिक पदार्थों से विज्ञानपूर्वक उपकार लेकर अत्यन्त सुख पाया है, उसी जगदीश्वर के आश्रय से हम भी उद्योग करके दुःख से छूटें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(येन) अग्निना परमेश्वरेण (देवाः) विद्वांसः (अमृतम्) अमरत्वम्। मोक्षम् (अनु-अविन्दन्) विद्लृ लाभे-लङ्। अनुक्रमेण अलभन्त (ओषधीः) व्रीहियवाद्यास्तरुगुल्माद्याश्च (मधुमतीः) मधुररसयुक्ताः (अकृण्वन्) अकुर्वन् (स्वः) स्वर्गं सुखम् (आ-अभरन्) डुभृञ् धारणपोषणयोः-लङ् सम्यग् अधारयन्। अलभन्तेत्यर्थः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    नीरोगता, माधुर्य, प्रकाश

    पदार्थ

    १. (येन) = जिस प्रभु के द्वारा (देवा:) = देववृत्ति के लोग (अमृतम्) = पूर्ण नीरोगता को (अन्यविन्दन्) = क्रमश: प्राप्त करते हैं, (येन) = जिसके द्वारा (ओषधी:) = सब ओषधियों, वनस्पतियों को (मधुमती अकृण्वन्) = अत्यन्त माधुर्यवाला कर लेते हैं। प्रभु की उपासना होने पर मनुष्यों की वृत्तियाँ उत्तम बनती हैं तब आधिदैविक कष्ट नहीं होते। वृष्टि आदि के ठीक होने से सब ओषधियाँ मधुर रसयुक्त होती हैं। (येन) = जिसके द्वारा (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (स्व:) = अपने हृदय में प्रकाश को (आभरन्) = भरते हैं, (स:) = वे प्रभु (न:) = हमें (अंहसः) = पाप से (मुञ्चतु) = मुक्त करें।

    भावार्थ

    प्रभु की मित्रता में देव नीरोगता प्राप्त करते हैं, ओषधियों को माधुर्ययुक्त कर पाते हैं और अपने हृदयों में प्रकाश पाते हैं। ये प्रभु हमें भी पापों से मुक्त करें।

     

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    भाषार्थ

    (येन) जिसके सहयोग द्वारा, (देवा:) साध्यों-तथा-ऋषियों ने, (अमृतम्), अमर-परमेश्वर को (अनु अविन्दन्) सहयोग के पश्चात् प्राप्त किया, (येन) जिसके सहयोग द्वारा (देवाः) व्यवहार-कुशल व्यक्तियों ने (औषधी:) औषधियों को (मधुमती:) मधुर रसवाली (अकृण्वन्) किया; (येन) जिसके सहयोग द्वारा (देवा:) दिव्य गुणियों ने (स्वः) सुखविशेष या स्वर्गलोक को (आभरन्= आहरन्) प्राप्त किया, (स:) वह परमेश्वराग्नि (नः) हमें (अंहस:) पाप से (मुञ्चतु) छुड़ाए।

    टिप्पणी

    [मन्त्र ५ से 'युजा' का सम्बन्ध अभिप्रेत है। देवा:= "साध्या: ऋषयश्च" (यजुः० ३१।९)। परमेश्वर के सहयोग द्वारा ही व्यवहारी कृषक जल सेचन कर यव-व्रीहि आदि ओषधियों को मधुर रसवती करते हैं। अभिप्राय यह कि अध्यात्म और व्यावहारिक कार्यों में सफलता, परमेश्वर के सहयोग द्वारा ही प्राप्त होती है। स्वः=येन दौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्वः स्तभितं येन नाकः" (यजु:० ३२।५) में अन्य लोकों के समवाय में 'स्व:' का कथन हुआ है, अत: 'स्वः' भी एक लोक ही प्रतीत होता है। ऋषि दयानन्द 'स्वः' द्वारा 'सुखविशेष' अर्थ मानते हैं। मधुमती:= मधु उदकनाम (निघं० १।१२), मधुर उदक सेवन कर, औषधियों को मधुर रसवाली करते हैं।]

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    विषय

    पापमोचन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (येन) जिस सूर्यवत् तेजस्वी परमेश्वर की सहायता से (देवाः) विद्वान् लोग (अमृतम्) मोक्षसुख को (अनु-अविन्दन्) तप के अनुष्ठान से प्राप्त करते हैं और (येन) जिससे (ओषधीः) ओषधियों को और मानस वृत्तियों को (मधुमतीः) मधुर रस से युक्त और आनन्दप्रद (अकृण्वन्) बना लेते हैं और (देवाः) विद्वान् ज्ञानी गण (येन) जिससे (स्वः) उस सुखमय लोक को (आभरन्) प्राप्त करते हैं (सः नः अंहसः मुञ्चतु) वह हमें पाप से मुक्त करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मृगार ऋषिः। इतः परं सप्त मृगारसंज्ञानि सूक्तानि तत्र नाना देवताः। ३ पुरस्ता-ज्ज्योतिष्मती। ४ अनुष्टुप्। ६ प्रस्तार पंक्तिः॥ १-२, ७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Deliverance from Sin

    Meaning

    Agni by which the devas, divine souls, achieve the nectar of immortality, by which the vital vibrations of nature make the herb full of honey sweets, and by which the Devas rise to eternal joy and bring the heaven upon earth, may that Agni bring us the light and ecstasy against sin and darkness.

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    Translation

    With whom as an aid, the enlightened ones obtain immortality; with whom they make the seasonal plants full of sweet sap; with whose aid enlightened ones attain the world of light; as such may he (the fire-divine) free us from Sin.

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    Translation

    Through which the physical forces of nature attain immortality, through which they make the herbs full of juice and through which the learned Persons obtain the effulgence of knowledge, et this fire be the Source of deliverance to us from grief and troubles,

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    Translation

    May that God deliver us from sin, through Whose aid, the sages attain to salvation, and store the plants with pleasant juices, through Whose aid the learned acquire spiritual force.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(येन) अग्निना परमेश्वरेण (देवाः) विद्वांसः (अमृतम्) अमरत्वम्। मोक्षम् (अनु-अविन्दन्) विद्लृ लाभे-लङ्। अनुक्रमेण अलभन्त (ओषधीः) व्रीहियवाद्यास्तरुगुल्माद्याश्च (मधुमतीः) मधुररसयुक्ताः (अकृण्वन्) अकुर्वन् (स्वः) स्वर्गं सुखम् (आ-अभरन्) डुभृञ् धारणपोषणयोः-लङ् सम्यग् अधारयन्। अलभन्तेत्यर्थः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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