अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 2
ऋषिः - मृगारः
देवता - वायुः, सविता
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
53
ययोः॒ संख्या॑ता॒ वरि॑मा॒ पार्थि॑वानि॒ याभ्यां॒ रजो॑ युपि॒तम॒न्तरि॑क्षे। ययोः॑ प्रा॒यं नान्वा॑नशे॒ कश्च॒न तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठययो॑: । सम्ऽख्या॑ता । वरि॑मा । पार्थि॑वानि । याभ्या॑म् । रज॑: । यु॒पि॒तम् । अ॒न्तरि॑क्षे । ययो॑: । प्र॒ऽअ॒यम् । न । अ॒नु॒ऽआ॒न॒शे । क: । च॒न । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ययोः संख्याता वरिमा पार्थिवानि याभ्यां रजो युपितमन्तरिक्षे। ययोः प्रायं नान्वानशे कश्चन तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठययो: । सम्ऽख्याता । वरिमा । पार्थिवानि । याभ्याम् । रज: । युपितम् । अन्तरिक्षे । ययो: । प्रऽअयम् । न । अनुऽआनशे । क: । चन । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२५.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पवन और सूर्य के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(ययोः) जिन दोनों [वायु सूर्य] के (संख्याता) गिने हुए (पार्थिवानि) पृथिवी के (वरिमा) विस्तार हैं, (याभ्याम्) जिन दोनों करके (अन्तरिक्षे) आकाश में (रजः) जल वा जगत् (युपितम्) विमोहित किया गया [मेघमण्डल में ताड़न शक्ति से रोका गया] है। (ययोः) जिन दोनों की (प्रायम्) उत्तम गति को (कश्चन) कोई भी जीव (न) नहीं (अन्वानशे) पहुँचा है, (तौ) वह तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥२॥
भावार्थ
जगत् व्यापी वायु और सूर्य के प्रभाव से जल, पृथिवी से आकाश पर और आकाश से पृथिवी पर आता है, और उनको मनुष्य जितना-जितना खोजते हैं, उतना-उतना ही अधिक उनका विषय जानते जाते हैं, उन वायु और सूर्य से यथावत् उपकार लेकर हम लाभ उठावें ॥२॥
टिप्पणी
२−(ययोः) वायुसवित्रोः (संख्याता) संख्यातानि परिगणितानि (वरिमा) पृथ्वादिभ्य इमनिज् वा। पा० ५।१।१२२। इति। उरु-इमनिच्। प्रियस्थिर०। पा० ६।४।१५७। इति वर् आदेशः शेर्लोपः। वरिमाणि। उरुत्वानि। महत्वानि। (पार्थिवानि) पृथिव्या ञाञौ। वा० पा० ४।१।८५। इति पृथिवी-अञ्। पृथिव्यां भवानि जातानि (याभ्याम्) वायुसवितृभ्याम् (रजः) अ० ४।१।४। उदकम्। जगत् (युपितम्) युप विमोहने-क्त। विमोहितम्। ताडनैर्मेघमण्डलं धृतम् (अन्तरिक्षे) आकाशे (प्रायम्) एरच् पा० ३।३।५६। इति प्र+इण् गतौ-अच्। प्रकृष्टागमनम् (न) निषेधे (अन्वानशे) अशू व्याप्तौ-लिट्। अनुप्राप। अनुगन्तुं समर्थो बभूव (कश्चन) कोऽपि जीवः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
रजः युपितम् अन्तरिक्षे
पदार्थ
१. (ययो:) = जिन वायु और सूर्य के (पार्थिवानि) = पृथिवी पर होनेवाले (वरिमा) महत्त्वपूर्ण कार्य (संख्याता) = लोगों से सम्यक् आख्यात होते हैं-कहे जाते हैं। पृथिवी से उत्पन्न होनेवाले सब वनस्पति वायु व सूर्य की महिमा से ही विकसित होते हैं। (याभ्याम्) = जिन वायु व सूर्य के द्वारा (अन्तरिक्षे) = अन्तरिक्ष में (रज:) = वृष्टि का कारणभूत उदक (युपितम्) = मूच्छित हुआ-हुआ धारण किया जाता है २.( ययो:) = जिन वायु और सूर्य के (प्रायम्) = प्रकृष्ट गमन को (कश्चन) = कोई अन्य देव (न अम्बानशे) = अनुगमन करेन के लिए समर्थ नहीं होता (तौ) = वे वायु व (सूर्यदेव न:) = हमें (अंहसः मुञ्चतम्) = पाप व कष्टों से मुक्त कर दें।
भावार्थ
वायु व सूर्य के महत्वपूर्ण कार्य इस पृथिवी पर दृष्टिगोचर होते हैं। इन्हीं के द्वारा अन्तरिक्ष में जल मेघरूप से धारण किया जाता है। इनकी प्रकृष्ट गति अन्य सब देवों को लाँघ जाती है। ये देव हमें पापों से मुक्त करें।
भाषार्थ
(ययोः) जिन दो के (पार्थिवानि) पृथिवी सम्बन्धी (वरिमा=वरिमाणि) आच्छादक परिमाण (संख्याता= संख्या तानि) सम्यक्तया प्रकथित अर्थात् जाने गये हैं, (याभ्याम्) जिन दो द्वारा (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (रजः) उदक (युपितम्) विमोहित अर्थात् मूर्छित अवस्था में विद्यमान रहता है; (ययोः) जिन दो के (प्रायम्) प्रकृष्ट-गमन को (कश्चन) कोई भी (न अन्वानशे) नहीं प्राप्त हुआ, (तौ) वे दो (न:) हमें (अंहसः) पापजन्य कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ाएँ।
टिप्पणी
[वरिमा=उरुन्वानि, (ऊर्णुञ् आच्छादने (अदादिः)। रज:= उदकम् (निरुक्तः ४।३।१९; पद 'रज:' ४।३९)। संख्याता=सम्+ ख्या प्रकथने (अदादिः)। युपितम्=युप विमोहने (दिवादिः)। प्रायम्= प्र+अय गतौ (भ्वादिः)। वायु= शुद्धवायु तथा "सविता" अर्थात् उदित सूर्य की रश्मियाँ, पवित्र करके, पापजन्य कष्टों से छुड़ाती हैं।]
विषय
पापमोचन की प्रार्थना।
भावार्थ
जिस प्रकार वायु और सूर्य पृथिवी पर होने वाले बड़े र कार्यों को कर दिखाते हैं और जिस प्रकार दोनों मिलकर अन्तरिक्ष में रजः = वर्षाजलों और धूलिपटलों को ऊपर उठा लेते हैं और इनकी उच्चगति को कोई अन्य पदार्थ नहीं प्राप्त कर सकता उसी प्रकार ईश्वर की भी ये दो शक्तियां हैं वात और सविता, (ययोः) जिनके कि आश्रय में (पार्थिवानि) पृथिवी पर होने वाले (वरिमानि) बड़े २ काम (संख्याता) कहे जाते हैं। (याभ्यां) जिन दोनों शक्तियों के द्वारा (अन्तरिक्षे) इस पोल रूप भाकाश भाग में (रजः) जलमय मेघ, ज्योतिर्मय सूर्यादि लोक और निहारिका रूप आकाश-गंगा आदि पदार्थ (युपितम्) निःशंक खड़े हैं। और (ययोः) जिनसे ही (प्रायं) ऊंची स्थिति को तथा (कन्चन) और कोई भी (न) नहीं (अनु-आनशे) प्राप्त कर सकता (तौ) वे दोनों ईश्वरीय सामर्थ्य (नः) हमें (अंहसः) पाप से (मुम्चतम्) मुक्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
तृतीयं मृगारसूक्तम्। ३ अतिशक्वरगर्भा जगती। ७ पथ्या बृहती। १, २, ४-६ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Sin and Distress
Meaning
The earthly extensions of nature’s evolution are sustained and comprehended by Vayu and Savita. By them the particles of matter and vapours of water are sustained and controlled in the middle sphere. No one can reach and comprehend the high degree of the dynamics of the two. May they save us from evil, want and affliction.
Translation
These two, whose physical expanses have been counted up; by whom cloud is held up in the midspace; whose speed none-so-ever has reathed; as such, may both of them free us from sin.
Translation
These two are the air and sun to which the expanses of earth are measured, which support the water in the middle region and extensive jurisdiction of which no one can reach. Let these two become the source of saving us from grief and troubles.
Translation
Ye, under whose shelter all important, earthly deeds are planned, through whose dual forces, watery clouds arc sustained in the atmosphere, whose eminence hash ne'er been reached by any, may they both deliver us from sin.
Footnote
They both: The two powers of God. i.e., Urging and Creating.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(ययोः) वायुसवित्रोः (संख्याता) संख्यातानि परिगणितानि (वरिमा) पृथ्वादिभ्य इमनिज् वा। पा० ५।१।१२२। इति। उरु-इमनिच्। प्रियस्थिर०। पा० ६।४।१५७। इति वर् आदेशः शेर्लोपः। वरिमाणि। उरुत्वानि। महत्वानि। (पार्थिवानि) पृथिव्या ञाञौ। वा० पा० ४।१।८५। इति पृथिवी-अञ्। पृथिव्यां भवानि जातानि (याभ्याम्) वायुसवितृभ्याम् (रजः) अ० ४।१।४। उदकम्। जगत् (युपितम्) युप विमोहने-क्त। विमोहितम्। ताडनैर्मेघमण्डलं धृतम् (अन्तरिक्षे) आकाशे (प्रायम्) एरच् पा० ३।३।५६। इति प्र+इण् गतौ-अच्। प्रकृष्टागमनम् (न) निषेधे (अन्वानशे) अशू व्याप्तौ-लिट्। अनुप्राप। अनुगन्तुं समर्थो बभूव (कश्चन) कोऽपि जीवः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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