अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 6
ऋषिः - मृगारोऽअथर्वा वा
देवता - भवाशर्वौ रुद्रो वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
59
यः कृ॑त्या॒कृन्मू॑ल॒कृद्या॑तु॒धानो॒ नि तस्मि॑न्धत्तं॒ वज्र॑मु॒ग्रौ। याव॒स्येशा॑थे द्वि॒पदो॒ यौ चतु॑ष्पद॒स्तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठय: । कृ॒त्या॒ऽकृत् । मू॒ल॒ऽकृत् । या॒तु॒ऽधान॑: । नि । तस्मि॑न् । ध॒त्त॒म् । वज्र॑म् । उ॒ग्रौ॒ । यौ । अ॒स्य । ईशा॑थे॒ इति॑ । द्वि॒ऽपद॑: । यौ । चतु॑:ऽपद: । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२८.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यः कृत्याकृन्मूलकृद्यातुधानो नि तस्मिन्धत्तं वज्रमुग्रौ। यावस्येशाथे द्विपदो यौ चतुष्पदस्तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । कृत्याऽकृत् । मूलऽकृत् । यातुऽधान: । नि । तस्मिन् । धत्तम् । वज्रम् । उग्रौ । यौ । अस्य । ईशाथे इति । द्विऽपद: । यौ । चतु:ऽपद: । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२८.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (कृत्याकृत्) हिंसाकारी (मूलकृत्) मूल कतरनेवाला और (यातुधानः) पीड़ा देनेवाला पुरुष है, (तस्मिन्) उसपर (उग्रौ) हे उग्र स्वभाववाले तुम दोनों (वज्रम्) वज्र (निधत्तम्) गिरावो (यौ) जो तुम दोनों (अस्य) इस (द्विपदः) दो पाये समूह के और (यौ) जो तुम दोनों (चतुष्पदः) चौपाये संसार के (ईशाथे) ईश्वर हो, (तौ) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥६॥
भावार्थ
परमेश्वर दुष्टनाशक और शिष्टरक्षक है, उसकी ही उपासना से मनुष्य बलवान् होवें ॥६॥
टिप्पणी
६−(यः) शत्रुः (कृत्याकृत्) अ० ४।१७।४। हिंसाकारकः (मूलकृत्) मूल+कृती छेदने-क्विप्। मूलकर्तकः। प्रतिष्ठाछेदकः (यातुधानः) अ० १।७।१। यातनाकरः। पीडाकारकः (तस्मिन्) यातुधाने (निधत्तम्) निक्षिपतम् (वज्रम्) अ० १।७।७। दण्डरूपं कुठारम् (उग्रौ) प्रचण्डस्वभावौ। अन्यत् पूर्ववत् म० १ ॥
विषय
यातुधान-हिंसन
पदार्थ
१. (य:) = जो (कृत्याकृत) = [कृती छेदने] छेदन-भेदन करनेवाला है और जो (यातुधनः) = पीड़ा पहुँचानेवाला राक्षस (मूलकृत्) = वंशाभिवृद्धि के मूल-सन्तानों को ही नष्ट करनेवाला है, (तस्मिन्) = उस यातुधान पर हे (उग्रौ) = तेजस्वी भव और शर्व! आप (वनं निधत्ताम्) = वर्जक आयुध को फेंकिए। इस वज्र द्वारा उसका वध करके उसे समास कीजिए। २. (यौ) = जो आप (अस्य द्विपदः) = इस द्विपाद् प्राणिजगत् के (ईशाथे) = ईश हैं और (यौ) = जो (चतुष्पदः) = चतुष्पाद् प्राणिजगत् के ईश हैं, (तौ) = वे (न:) = हमें (अहंस:) = पाप से (मुञ्चतम्) = मुक्त करें।
भावार्थ
भव और शर्व हिंसक शत्रुओं को नष्ट करें। हमें भी पाप से मुक्त करें।
भाषार्थ
(य: यातुधानः) जो यातनाओं का धारण-पोषण करनेवाला शत्रु, (कृत्याकृत) हिंस्रसेना१ द्वारा हमारा कर्तन करता है, (मूलकृत्) वंश के मूलभूत, जड़रूप हमारे पुत्रों का कर्तन करता है, (तस्मिन्)। [उसके वध के लिए] उसमें (उग्रौ) उग्र तुम दोनों [भव और शर्वं], (वज्रम्) वज्र (निधत्तम) नितरां स्थापित करो, उस पर फेंको।(यौ) जो दो कि (अस्य द्विपदः) इस दो-पाये जगत् के, (यौ) जो दो कि (चतुष्पदः) चौ-पाये जगत् के (ईशाथे) तुम अधीश्वर हो, इनका शासन करते हो, (तौ) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापों से (मुञ्चतम्) मुक्त करो, छुड़ाओ।
टिप्पणी
[१. अथवा 'शत्रु' हैं, कामादि तथा उस उसका वर्ग। काम, क्रोध आदि के अलग-अलग अर्थात् तत्तजन्य आसुर-भाव हैं, जोकि उस-उस वर्ग के अङ्गरूप हैं। इन वर्गीय आसुर भावों को सम्भवत: सेनारूप में वर्णित किया है, जोकि मनुष्यों का कर्तन करता है, उन्हें सदा काटता रहता है। यह वर्ग आबालवृद्धों और युवाओं का समान शत्रु है। इसके निवारणार्थ भव और शर्व रुपों वाले परमेश्वर का स्तवन कहा है। वह ही व्यक्ति एतदर्थ स्तवन कर सकता है। जोकि परमेश्वर को निज स्वामी मानता है, और उस द्वारा दर्शाए जीवन मार्ग को अपना लेता है। काम का वर्ग= काम के सहकारियों तथा उद्दीपकों का वर्ग यथा "इषु: कामस्य या भीमा तया विध्यामि त्वा हृदि" आदि (मन्त्र १); (अथर्व० ३।२५।१-६)। "वर्ग" यथा "दशकामसमुत्त्थानि तथाष्टौ क्रोधजानि च। व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत्।" [सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास ६; मनु० ७।४५]]
विषय
पापमोचन की प्रार्थना।
भावार्थ
(यः) जो पुरुष (कृत्या-कृत्) अपनी घातक क्रिया करे और (यः) जो (यातुधानः) पीड़ा देने वाला (मूल-कृत्) अपनी जड़ का अपने आप काटने वाला है (तस्मिन्) उस पर आप दोनों भव और शर्व (उग्रौ) भयंकर रूप से बलवान् होकर (वज्रम् निधत्तम्) उसको दुष्ट कार्यों से रोकने वाले शस्त्र या दण्ड का प्रयोग करो। (यौ अस्य ईशाथे०) जो इस संसार, मनुष्यों और चौपायों पर वश करते हैं वे दोनों हमें पाप से मुक्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मृगार ऋषिः। षष्ठं मृगारसूक्तम्। नाना देवताः। १ द्वयतिजागतगर्भा भुरिक् २-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Sin
Meaning
O Bhava and Sharva, whoever be an assassin, a destroyer, a killer of the seed and root of life, O wielders of the thunder and power of life and death, blazing divines who conrtol this world of bipeds and quadrupeds, strike your bolt there, pray save us from sin and suffering and from an ignoble death.
Translation
May you two, O formidable ones, hurl your, adamantine weapon on the torturer, who is a violent injurer and cuts-at the root. May you two, who are the masters of all these bipeds and of the quadrupeds, free us from sin.
Translation
These two strong powers hurl their weapon, the thunder bolt upon the germ which is violent, which takes root in the body, which is trouble-some. These Bhava and Sharva control the quadrupeds and bipeds of this world. May these two become the sources of our deliverance from grief and troubles.
Translation
Hurl your bolt, O strong Bhava and Sarva, on him, who is violent, tormenting, and the destroyer of our progeny. Lords of this world both quadrupeds and bipeds, deliver us, Ye twain, from sin.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(यः) शत्रुः (कृत्याकृत्) अ० ४।१७।४। हिंसाकारकः (मूलकृत्) मूल+कृती छेदने-क्विप्। मूलकर्तकः। प्रतिष्ठाछेदकः (यातुधानः) अ० १।७।१। यातनाकरः। पीडाकारकः (तस्मिन्) यातुधाने (निधत्तम्) निक्षिपतम् (वज्रम्) अ० १।७।७। दण्डरूपं कुठारम् (उग्रौ) प्रचण्डस्वभावौ। अन्यत् पूर्ववत् म० १ ॥
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