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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ब्रह्मास्कन्दः देवता - मन्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सेनानिरीक्षण सूक्त
    65

    अ॒ग्निरि॑व मन्यो त्विषि॒तः स॑हस्व सेना॒नीर्नः॑ सहुरे हू॒त ए॑धि। ह॒त्वाय॒ शत्रू॒न्वि भ॑जस्व॒ वेद॒ ओजो॒ मिमा॑नो॒ वि मृधो॑ नुदस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नि:ऽइ॑व । म॒न्यो॒ इति॑ । त्वि॒षि॒त: । स॒ह॒स्व॒ । से॒ना॒ऽनी: । न॒: । स॒हु॒रे॒ । हू॒त: । ए॒धि॒ । ह॒त्वाय॑ । शत्रू॑न् । वि । भ॒ज॒स्व॒ । वेद॑: । ओेज॑: । मिमा॑न: । वि । मृध॑: । नु॒द॒स्व॒ ॥३१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निरिव मन्यो त्विषितः सहस्व सेनानीर्नः सहुरे हूत एधि। हत्वाय शत्रून्वि भजस्व वेद ओजो मिमानो वि मृधो नुदस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नि:ऽइव । मन्यो इति । त्विषित: । सहस्व । सेनाऽनी: । न: । सहुरे । हूत: । एधि । हत्वाय । शत्रून् । वि । भजस्व । वेद: । ओेज: । मिमान: । वि । मृध: । नुदस्व ॥३१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 31; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    संग्राम में जय पाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (मन्यो) हे क्रोध ! (अग्निः इव) अग्नि के समान (त्विषितः) प्रज्वलित होकर (सहस्व) समर्थ हो, (सहुरे) हे प्रबल ! (हूतः) आवाहन किया हुआ तू (नः) हमारा (सेनानीः) सेनापति (एधि) हो। (शत्रून्) शत्रुओं को (हत्वाय) मारकर (वेदः) उनका धन (वि भजस्व) बाँट दे, और (ओजः) बल (मिमानः) दिखाता हुआ तू (मृधः) हिंसक लोगों को (वि नुदस्व) इधर-उधर फेंक दे ॥२॥

    भावार्थ

    सेनानी लोग क्रोध के साथ शत्रुओं को मारकर उनका धन बाँट लें और उन्हें तितर-बितर कर दें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(अग्निरिव) मन्यो हे क्रोध ! (त्विषितः) प्रदीप्तः सन् (सहस्व) षह मर्षणे शक्तौ च। शक्तो भव (सेनानीः) सेनाया नेता सेनाधिपतिः (नः) अस्माकम् (सहुरे) जसिसहोरुरिन्। उ० २।७३। इति षह-उरिन्। हे शक्तिमन् (हूतः) आहूतः (एधि) अस भुवि-लोट्। भव (हत्वाय) छान्दसः क्त्वाल्यपोः प्रयोगः। हत्वा (शत्रून्) वैरिणः (विभजस्व) विभज्य देहि (वेदः) विद्लृ लाभे-असुन्। धनम्-निघ० २।१०। (ओजः) बलम् (मिमानः) माङ् माने-कानच्। आविष्कुर्वन् (मृधः) अ० १।२१।२। हिंसकान् शत्रून् (विनुदस्व) विविधं प्रेरय ॥

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    विषय

    'सेनापति' ज्ञान

    पदार्थ

    १. हे (मन्यो) = ज्ञान ! (अग्निः इव) = अग्नि के समान (त्विषित:) = दीसिवाला होता हुआ तू (सहस्व) = हमारे शत्रुओं का पराभव कर। हे (सहुरे) = शत्रुओं का पराभव करनेवाले ज्ञान । (हूतः) = पुकारा गया तू (न:) = हमारा (सेनानी:) =  सेनापति (एधि) = हो। ज्ञान ही वस्तुत: उन सब साधनों में मुख्य है जो वासनाओं का नाश करनेवाले हैं। २. (शत्रून्) = काम-क्रोध आदि सब शत्रुओं को (हत्याय) = नष्ट करके (वेदः) = जीवन-धन को (विभजस्व) = विशेषरूप से हमें प्राप्त करा। काम-क्रोध आदि से भरा जीवन जीवन ही प्रतीत नहीं होता। ज्ञान इन काम-क्रोध आदि को नष्ट करता है और हमारे लिए उत्कृष्ट जीवन-धन को पास कराता है। ३. (ओजः मिमान:) =  हमारे जीवनों में ओजस्विता का निर्माण करते हुए (मृध:) = हिंसक शत्रुओं को (विनुदस्व) = विशेषरूप से दूर धकेल दे। ज्ञान हमें ओजस्वी बनाता है और काम आदि शत्रुओं के संहार के लिए समर्थ करता है।

    भावार्थ

    ज्ञान हमारा सेनापति बनता है और इन्द्रियों, मन व बुद्धि आदि साधनों द्वारा शुत्रओं को नष्ट कर डालता है।

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    भाषार्थ

    (मन्यो) हे बोधयुक्त क्रोध! (अग्नि: इव) अग्नि: की तरह (त्विषितः) प्रदीप्त हुआ (सहस्व) शत्रुसेना का पराभव कर, (सहुरे) हे पराभव करनेवाले! (न: सेनानी:) हमारी सेना का नायक हो, हुआ तू (हूत:) आहूत हुआ (एधि) हो। (शत्रुन् हत्वाय) शत्रुओं का हनन करके (वेदः) उनके धन को (विभजस्व) हममें विभक्त कर दे, बाँट दे, (ओजः) निज ओज को (मिमान:) मापता हुआ (मृधः) संग्रामकारियों को (वि नुदस्य) धकेल दे।

    टिप्पणी

    [शत्रुविजयार्थ अग्नि की तरह, आग्नेय शस्त्रास्त्रों द्वारा, हमारी सेना में दहन-शक्ति भी होनी चाहिए। इस शक्ति को "नर: अग्निरूपाः" द्वारा भी कथित किया है (मन्त्र १) वेदः धननाम (निघं० २।१०)।]

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    विषय

    मन्यु, सेनानायक, आत्मा।

    भावार्थ

    हे मन्यो ! अर्थात् सेनानायक ! तू (अग्निः, इव) अग्नि के समान (त्विषितः) कान्तिमान् होकर (सहस्व) शत्रुओं को पराजित कर। और तू हे (सहुरे) सहनशील ! (हूतः) हमसे पुकारा जाकर या हम से आदरपूर्वक आमन्त्रित होकर (नः सेनानीः) हमारा सेना-नायक (एधि) बन। (शत्रून् हत्वाय) शत्रुओं को मार कर (वेदः) धन को (विभजस्व) समस्त सैनिकों में बांट दे। और (ओजः) अपने असह्य बल, प्रताप को (मिमानः) बराबर बनाये रख कर (मृधः) शत्रुगण को (वि नुदस्व) नाना प्रकार से परे हटा। अध्यात्म पक्ष में—हे मन्यो ! ज्ञानी योगिन् ! आत्मन् ! अग्नि के समान देदीप्यमान होकर क्रोध आदि पर वश कर और हे सहुरे = आत्मन् ! तू पुकारा जाकर हमारा सेना-नायक बन। क्रोध, काम आदि का नाश कर, आत्मविभूतियों को अन्य इन्द्रियों में बांट दे और विषयरूप शत्रुओं का विनाश कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मास्कन्द ऋषिः। मन्युर्देवता। १, ३ त्रिष्टुभौ। २, ४ भुरिजौ। ५- ७ जगत्यः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    High Spirit of Passion

    Meaning

    O Manyu, blazing like fire, commanding our forces, spirit of forbearance and challenge, invoked and called upon, come to lead our battles of life, face the enemies to destroy the adversaries and share the wealth, beauty and goodness of life with all. O spirit comprehending lustrous light of life, move forward, push the adversaries back and throw out the enemies.

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    Translation

    O Wrath, flashing like fire, may you overwhelm (our enemies). Being invoked, O victorious one, may you come to us as commander of our forces. Having killed the enemies, may you divide the booty (among us). Showing forth your valour, may you scatter the malicious scorners (enemy). (Also Rg. X.84.2)

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    Translation

    Let this ardour flashing like fire slay our foes, let this victor ardor invited become our army leader, let it slaying the foe men distribute their possession in army men and let it destroy the enemies maintaining its vigor.

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    Translation

    O persevering general, flashing like fire, subdue the foes. O victor, be thou, invoked, our army's leader. Slaying our foes, distribute their wealth, preserving thy vigor, destroy the warring foes!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(अग्निरिव) मन्यो हे क्रोध ! (त्विषितः) प्रदीप्तः सन् (सहस्व) षह मर्षणे शक्तौ च। शक्तो भव (सेनानीः) सेनाया नेता सेनाधिपतिः (नः) अस्माकम् (सहुरे) जसिसहोरुरिन्। उ० २।७३। इति षह-उरिन्। हे शक्तिमन् (हूतः) आहूतः (एधि) अस भुवि-लोट्। भव (हत्वाय) छान्दसः क्त्वाल्यपोः प्रयोगः। हत्वा (शत्रून्) वैरिणः (विभजस्व) विभज्य देहि (वेदः) विद्लृ लाभे-असुन्। धनम्-निघ० २।१०। (ओजः) बलम् (मिमानः) माङ् माने-कानच्। आविष्कुर्वन् (मृधः) अ० १।२१।२। हिंसकान् शत्रून् (विनुदस्व) विविधं प्रेरय ॥

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