अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 7
ऋषिः - ब्रह्मास्कन्दः
देवता - मन्युः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - सेनानिरीक्षण सूक्त
69
संसृ॑ष्टं॒ धन॑मु॒भयं॑ स॒माकृ॑तम॒स्मभ्यं॑ धत्तां॒ वरु॑णश्च म॒न्युः। भियो॒ दधा॑ना॒ हृद॑येषु॒ शत्र॑वः॒ परा॑जितासो॒ अप॒ नि ल॑यन्ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽसृ॑ष्टम् । धन॑म् । उ॒भय॑म् । स॒म्ऽआकृ॑तम् ।अ॒स्मभ्य॑म् । ध॒त्ता॒म् । वरु॑ण: । च॒ । म॒न्यु: । भिय॑: । दधा॑ना: । हृद॑येषु । शत्र॑व: । परा॑जितास: । अप॑ । नि । ल॒य॒न्ता॒म् ॥३१.७॥
स्वर रहित मन्त्र
संसृष्टं धनमुभयं समाकृतमस्मभ्यं धत्तां वरुणश्च मन्युः। भियो दधाना हृदयेषु शत्रवः पराजितासो अप नि लयन्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽसृष्टम् । धनम् । उभयम् । सम्ऽआकृतम् ।अस्मभ्यम् । धत्ताम् । वरुण: । च । मन्यु: । भिय: । दधाना: । हृदयेषु । शत्रव: । पराजितास: । अप । नि । लयन्ताम् ॥३१.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
संग्राम में जय पाने का उपदेश।
पदार्थ
(वरुणः) श्रेष्ठ शूर (च) और (मन्युः) क्रोध (संसृष्टम्) संग्रह किया हुआ और (समाकृतम्) उगाही किया हुआ (उभयम्) दो प्रकार का [आत्मिक और सामाजिक] (धनम्) धन (अस्मभ्यम्) हमें (धत्ताम्) देवें। (पराजितासः) हारे हुए, और (हृदयेषु) हृदयों में (भियः) अनेक भय (दधानाः) रखते हुए (शत्रवः) शत्रु लोग (अप=अपक्रम्य) भागकर (नि लयन्ताम्) खिसक जावें ॥७॥
भावार्थ
शूर पुरुष यथानीति क्रोध धारण करके शत्रुओं को हराते और बहुत धन प्राप्त करके अपनी और समाज की उन्नति करते हैं ॥७॥
टिप्पणी
७−(संसृष्टम्) सृज विसर्गे-क्त। संगृहीतम् (धनम्) वित्तम् (उभयम्) संख्याया अवयवे तयप्। पा० ५।२।४२। इति उभ-तयप्। उभादुदात्तो नित्यम्। पा० ५।२।४४। इति तयपोऽयजादेशः। उभयविधम्। आत्मिकं समाजिकं चेत्यर्थः (समाकृतम्) समानीतम् (अस्मभ्यम्) (धत्ताम्) प्रयच्छताम्। दत्ताम् (वरुणः) वरणीयः स्वीकरणीयः शूरः (च) समुच्चये (मन्युः) म० १। क्रोधः (भियः) ञिभी भये-संपदादित्वात् क्विप्। भयानि (दधानाः) धारयन्तः (हृदयेषु) मनःसु (शत्रवः) अरयः (पराजितासः) पराजिताः। अभिभूताः (अप) अपक्रम्य (नि) नितराम्। नीचैः (लयन्ताम्) लीङ् श्लेषणे-लोट्। लयं प्रलयं विनाशं प्राप्नुवन्तु। प्रच्छन्नं वर्तन्ताम् ॥
विषय
श्रद्धा व ज्ञान का समन्वय संसृष्टं
पदार्थ
१. (मन्यः) = ज्ञान (च) = तथा (वरुण:) = ज्ञान के द्वारा सब बुराइयों का निवारण करनेवाले प्रभु (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (अभयम्) = ज्ञान व श्रद्धारूप उभयविध (धनम्) = धन को जोकि समाकृतम् सम्यक् उत्पन्न किया हुआ तथा संसष्टम्-परस्पर मिला हुआ है, उसे धत्ताम्-दें। हमारे जीवनों में ज्ञान व श्रद्धा का समन्वय हो। वस्तुतः "ठीक ज्ञान' श्रद्धा को उत्पन्न करता है, 'श्रद्धा' ज्ञान को। २. इसप्रकार हमारे मस्तिष्क व हृदय के परस्पर संगत हो जाने पर (शत्रवः) = काम आदि सब शत्र (हृदयेषु भियं दधाना:) = अपने हृदयों में भय को धारण करते हुए (पराजितासः) = पराजित हुए-हुए (अपनिलयन्ताम्) = कहीं सुदूर निलीन हो जाएँ, हम इनसे आक्रान्त न हों।
भावार्थ
ज्ञान के द्वारा प्रभु-दर्शन होने पर हमारे जीवनों में ज्ञान व श्रद्धा के धन का वह समन्वय होता है कि काम आदि सब शत्रु सुदूर विनष्ट हो जाते है।
अगले सूक्त का ऋषि भी 'ब्रह्मास्कन्दः' ही है -
भाषार्थ
(संसृष्टम्) शत्रु के साथ संसर्ग में अर्थात् युद्ध में प्राप्त धन [संसृजि, मन्त्र ६], (समाकृतम्) तथा उसके राष्ट्र में पूर्वतः एकत्रित किया धन, (उभयम्) यह द्विविध धन, (वरुणः च मन्युः) वरुण राजा और बोधयुक्त क्रोध, (अस्मभ्यम्) हम प्रजाजनों को या हम अधिकारियों को, (धत्ताम्) प्रदान कर दें; (पराजितासः, शत्रु:) पराजित हुए शत्रु (हृदयेषु) हृदयों में (भिथ:) भयों को (दधानाः) धारण करते हुए (अप) संग्रामभूमि से अपगत होकर (निलयन्ताम्) निलीन हो जाएँ, छिप जाएँ।
टिप्पणी
[युद्ध में प्राप्त धन प्रजाजनों में बाँट देना चाहिए, या राजकोष में जमा करना चाहिए। वरुणः= प्रजा द्वारा वरा हुआ, चुना हुआ, राष्ट्र का राजा, "इन्द्रश्च सम्राट् वरुणश्च राजा" (यजु:० ८।३७)।]
विषय
मन्यु, सेनानायक, आत्मा।
भावार्थ
(मन्युः) ज्ञानपूर्वक क्रोध वाला सेनानायक और (वरुणश्च) सर्वश्रेष्ठ राजा धनों को (सं-सृष्टं) युद्ध से प्राप्त और (सम्-आकृतम्) अपने प्रयत्न द्वारा उपार्जित इस प्रकार के (उभयं) दोनों प्रकार के (अस्मभ्यं धत्तां) हमें दे। और (हृदयेषु) हृदयों में (भियः) नाना प्रकार के भयों को (दधानाः) धारण करते हुए (शत्रवः) शत्रुगण, (परा-जितासः) पराजित होकर (अप नि लयन्ताम्) सर्वथा दूर भागें, छिपे रहें, विनष्ट हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मास्कन्द ऋषिः। मन्युर्देवता। १, ३ त्रिष्टुभौ। २, ४ भुरिजौ। ५- ७ जगत्यः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
High Spirit of Passion
Meaning
Let Manyu, passion for life and ardour for glory, and Varuna, commanding ruler with judgement and sense of honour, bear and bring us wealth, honour and excellence both nobly created and acquired with courage and wisdom, and let the enemies, their hearts stricken with fear and their spirits defeated, run away from the field of life’s battle.
Translation
May the wrath and the venerable Lord, grant to-us the collected and mingled wealth of both the sides. May our enemies having been defeated disappear stricken with fear in their hearts. (Also Rg. X.84.7)
Translation
Let the King and Manyu, the warm emotion give us the wealth of both Kinds—earned and gathered. Let our enemies overwhelmed with terror in their mind and spirit and defeated in their design run away.
Translation
Let the king and persevering general, give us both kinds of wealth, acquired through battle, and collected through self-exertion. Let our enemies with stricken spirits, overwhelmed with terror, sling away defeated.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(संसृष्टम्) सृज विसर्गे-क्त। संगृहीतम् (धनम्) वित्तम् (उभयम्) संख्याया अवयवे तयप्। पा० ५।२।४२। इति उभ-तयप्। उभादुदात्तो नित्यम्। पा० ५।२।४४। इति तयपोऽयजादेशः। उभयविधम्। आत्मिकं समाजिकं चेत्यर्थः (समाकृतम्) समानीतम् (अस्मभ्यम्) (धत्ताम्) प्रयच्छताम्। दत्ताम् (वरुणः) वरणीयः स्वीकरणीयः शूरः (च) समुच्चये (मन्युः) म० १। क्रोधः (भियः) ञिभी भये-संपदादित्वात् क्विप्। भयानि (दधानाः) धारयन्तः (हृदयेषु) मनःसु (शत्रवः) अरयः (पराजितासः) पराजिताः। अभिभूताः (अप) अपक्रम्य (नि) नितराम्। नीचैः (लयन्ताम्) लीङ् श्लेषणे-लोट्। लयं प्रलयं विनाशं प्राप्नुवन्तु। प्रच्छन्नं वर्तन्ताम् ॥
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