अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
ऋषिः - शन्ताति
देवता - वायुः
छन्दः - प्राजापत्या बृहती
सूक्तम् - संप्रोक्षण सूक्त
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प्रा॒णाया॒न्तरि॑क्षाय॒ वयो॑भ्यो वा॒यवेऽधि॑पतये॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒णाय॑ । अ॒न्तरि॑क्षाय । वय॑:ऽभ्य: । वा॒यवे॑ । अधि॑ऽपतये । स्वाहा॑ ॥१०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राणायान्तरिक्षाय वयोभ्यो वायवेऽधिपतये स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठप्राणाय । अन्तरिक्षाय । वय:ऽभ्य: । वायवे । अधिऽपतये । स्वाहा ॥१०.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
स्वास्थ्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(प्राणाय) प्राण के लिये (अन्तरिक्षाय) अन्तरिक्ष लोक को, और (वयोभ्यः) अन्न आदि पदार्थों के लिये (अधिपतये) [अन्तरिक्ष के] बड़े रक्षक (वायवे) वायु को (स्वाहा) सुन्दर स्तुति है ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य अन्तरिक्ष और वायु से उपकार लेकर प्राण और अन्न आदि पदार्थों को पुष्ट करें ॥२॥
टिप्पणी
२−(प्राणाय) प्राणहिताय (अन्तरिक्षाय) मध्यलोकाय (वयोभ्यः) अ० २।१०।३। अन्नादिपदार्थेभ्यः (वायवे) गमनशीलाय पवनाय (अधिपतये) अन्तरिक्षस्य पालकाय (स्वाहा) सुन्दरस्तुतिः ॥
विषय
पृथिवी, अन्तरिक्ष, धुलोक
पदार्थ
१. मैं (पृथिव्यै) = इस पृथिवी के लिए (स्वाहा) = अपना अर्पण करता हूँ। भूमि को माता मानता हुआ उसकी गोद में बैठता हूँ। यहाँ श्रोत्राय वाणी द्वारा उच्चरित ज्ञान के श्रवण के लिए अपने को अर्पित करता हूँ। ज्ञान की बातों को सुनना ही मेरा मुख्य कार्य होता है। यहाँ वनस्पतिभ्यः-वनस्पतियों के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ-वानस्पतिक पदार्थों को ही खाता हूँ और उनके द्वारा शरीर में उत्पन्न अनये-अग्नितत्त्व के लिए अपना अर्पण करता हूँ। यह अग्नितत्व ही तो अधिपतये-इस पृथिवी का अधिपति है। शरीर का मुख्य रक्षक यह अग्नितत्व ही है।
२. अन्तरिक्षाय-मैं हृदयान्तरिक्ष के लिए स्वाहा-अपना अर्पण करता हूँ। इस हृदयान्तरिक्ष में मुख्यरूप से अपना कार्य करनेवाले प्राणाय-प्राण के लिए अपना अर्पण करता हूँ प्राणसाधना में प्रवृत्त होता हूँ। वयोभ्य:-इन प्राणों को पक्षी-तुल्य जानता हुआ इन पक्षियों के लिए अपना अर्पण करता हूँ। मैं यह भूलता नहीं कि 'पक्षियों की भाँति ये प्राण न जाने कब उड़ जाएँ'। इस हृदयान्तरिक्ष के वायवे अधिपतेय-अधिपति वायु के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ। जहाँ तक सम्भव होता है शुद्ध वायु मैं ही सञ्चार करता हूँ।
३. दिवे- द्युलोक के लिए स्वाहा-मैं अपना अर्पण करता हूँ। मस्तिष्क ही द्युलोक है। इसमस्तिष्करूप द्युलोक में चक्षु ही सूर्य है, उस चक्षुषे चक्षु के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ। चक्षु से देखकर ही मार्ग में चलता हूँ- 'दृष्टिपूतं न्यसेत्पादम् ।' नक्षत्रेभ्यः-नक्षत्रों के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ, सूर्याय अधिपतेय अधिपति सूर्य के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ। मैं अपने द्युलोकरूप मस्तिष्क में विज्ञान के नक्षत्रों व ज्ञान के सूर्य को उदित करने का प्रयत्न करता हूँ।
भावार्थ
स्त्री में प्रजा-रक्षण की प्रबल भावना हो, वह पति के साथ अनुकूल बुद्धिवाली हो तथा प्रशस्त अन्नों का सेवन करती हो तो वह प्रायः नर - सन्तान को जन्म देती है।
विशेष
अपने जीवन को उत्तम बनाता हुआ उत्तम सन्तान का निर्माता 'प्रजापति' अगले सूक्त का ऋषि है |
भाषार्थ
"अन्तरिक्ष के लिये, श्वासोच्छ्वासरूप प्राणसम्बन्धी नासिका के लिये पक्षियों के लिये, अधिपति वायु के लिये स्वाहा हो [हविः की आहुतियां हों]।"
टिप्पणी
[व्याख्या मन्त्र १ वत् । अन्तरिक्ष के साथ नासिका, पक्षियों, अधिपति वायु का सम्बन्ध है]।
विषय
अग्निहोत्र का उपदेश।
भावार्थ
(प्राणाय) प्राण रूप वायु ? (अन्तरिक्षाय) उसके संचार, स्थान अन्तरिक्ष, (वयोभ्यः) उसमें विचारने वाले पक्षियों और (अधिपतये वायवे) उनके सर्वतो मुख्य स्वामी वायु के लिये भी (स्वाहा) उत्तम घृत आदि की आहुति देनी चाहिये।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंतातिऋषिः। १ अग्निः। २ वायुः। ३ सूर्यः १ साम्नी त्रिष्टुप्। २ प्राजापत्या बृहती। साम्नी बृहती। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Physiopsychic Interaction
Meaning
Homage to prana, middle region, birds, and Vayu, presiding power of the skies.
Subject
Vayu
Translation
For breath, to the midspace, to the birds, and to the wind, their overlord, I dedicate.
Translation
We appreciate the utility and purpose of heaven, eye, stars and sun, which is the controlling power. Whatever is uttered herein is true.
Translation
Offer butter oblation for the good of breath, for atmosphere, for the birds residing in the atmosphere, for air the Lord of atmosphere.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(प्राणाय) प्राणहिताय (अन्तरिक्षाय) मध्यलोकाय (वयोभ्यः) अ० २।१०।३। अन्नादिपदार्थेभ्यः (वायवे) गमनशीलाय पवनाय (अधिपतये) अन्तरिक्षस्य पालकाय (स्वाहा) सुन्दरस्तुतिः ॥
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