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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शन्ताति देवता - सूर्यः छन्दः - साम्नी बृहती सूक्तम् - संप्रोक्षण सूक्त
    70

    दि॒वे चक्षु॑षे॒ नक्ष॑त्रेभ्यः॒ सूर्या॒याधि॑पतये॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वे । चक्षु॑षे । नक्ष॑त्रेभ्य: । सूर्या॑य । अधि॑ऽपतये । स्वाहा॑ ॥१०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवे चक्षुषे नक्षत्रेभ्यः सूर्यायाधिपतये स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवे । चक्षुषे । नक्षत्रेभ्य: । सूर्याय । अधिऽपतये । स्वाहा ॥१०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    स्वास्थ्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (चक्षुषे) दृष्टिशक्ति के लिये (दिवे) प्रकाश को, और (नक्षत्रेभ्यः) नक्षत्रों के लिये (अधिपतये) [प्रकाश के] बड़े रक्षक (सूर्याय) सूर्य को (स्वाहा) सुन्दर स्तुति है ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य प्रकाश और सूर्य के आकर्षण आदि गुणों को जानकर दृष्टि ओर नक्षत्र विद्या प्राप्त करें ॥३॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    ३−(दिवे) प्रकाशाय (चक्षुषे) दर्शनशक्तये (नक्षत्रेभ्यः) नक्षत्रज्ञानेभ्यः (सूर्याय) अ० १।३।५। लोकप्रेरकाय दिवाकराय (अधिपतये) प्रकाशस्य महारक्षकाय ॥

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    विषय

    पृथिवी, अन्तरिक्ष, धुलोक

    पदार्थ

    १. मैं (पृथिव्यै) = इस पृथिवी के लिए (स्वाहा) = अपना अर्पण करता हूँ। भूमि को माता मानता हुआ उसकी गोद में बैठता हूँ। यहाँ (श्रोत्राय) = वाणी द्वारा उच्चरित ज्ञान के श्रवण के लिए अपने को अर्पित करता हूँ। ज्ञान की बातों को सुनना ही मेरा मुख्य कार्य होता है। यहाँ (वनस्पतिभ्यः) = वनस्पतियों के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ-वानस्पतिक पदार्थों को ही खाता हूँ और उनके द्वारा शरीर में उत्पन्न (अग्नये) = अग्नितत्त्व के लिए अपना अर्पण करता हूँ। यह अग्नितत्व ही तो (अधिपतये) = इस पृथिवी का अधिपति है। शरीर का मुख्य रक्षक यह अग्नितत्व ही है।

     

    २. (अन्तरिक्षाय) = मैं हृदयान्तरिक्ष के लिए (स्वाहा) = अपना अर्पण करता हूँ। इस हृदयान्तरिक्ष में मुख्यरूप से अपना कार्य करनेवाले (प्राणाय) = प्राण के लिए अपना अर्पण करता हूँ प्राणसाधना में प्रवृत्त होता हूँ। (वयोभ्य:) = इन प्राणों को पक्षी-तुल्य जानता हुआ इन पक्षियों के लिए अपना अर्पण करता हूँ। मैं यह भूलता नहीं कि 'पक्षियों की भाँति ये प्राण न जाने कब उड़ जाएँ'। इस हृदयान्तरिक्ष के (वायवे अधिपतेय) = अधिपति वायु के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ। जहाँ तक सम्भव होता है शुद्ध वायु मैं ही सञ्चार करता हूँ।

     

    ३. (दिवे) = द्युलोक के लिए (स्वाहा) = मैं अपना अर्पण करता हूँ। मस्तिष्क ही द्युलोक है। इस मस्तिष्करूप द्युलोक में चक्षु ही सूर्य है, उस (चक्षुषे) = चक्षु के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ। चक्षु से देखकर ही मार्ग में चलता हूँ- ('दृष्टिपूतं न्यसेत्पादम् ।' नक्षत्रेभ्यः) = नक्षत्रों के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ, (सूर्याय अधिपतेय) = अधिपति सूर्य के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ। मैं अपने द्युलोकरूप मस्तिष्क में विज्ञान के नक्षत्रों व ज्ञान के सूर्य को उदित करने का प्रयत्न करता हूँ।

    भावार्थ

    स्त्री में प्रजा-रक्षण की प्रबल भावना हो, वह पति के साथ अनुकूल बुद्धिवाली हो तथा प्रशस्त अन्नों का सेवन करती हो तो वह प्रायः नर - सन्तान को जन्म देती है।

     

    विशेष

    अपने  जीवन को उत्तम बनाता हुआ उत्तम सन्तान का निर्माता 'प्रजापति' अगले सूक्त का ऋषि है |

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    भाषार्थ

    "द्युलोक के लिये, चक्षु के लिये, नक्षत्रों के लिये, अधिपति सूर्य के लिये स्वाहा हो [हवि: की आहुतियां हों]"।

    टिप्पणी

    [द्युलोकस्थ सूर्य के प्रकाश के साथ चक्षु का सम्बन्ध है, सूर्य के प्रकाश में चक्षु की दृष्टिशक्ति कार्य करती है। सूर्य का प्रतीयमान परिभ्रमण द्युलोकस्थित नक्षत्रों में होता है, क्योंकि राशिचक्र नक्षत्रों में विद्यमान है। अतः इन सब का परस्पर सम्बन्ध है। तीनों लोकों और तत्स्थ तत्त्वों की शुद्धि के लिये यज्ञों का वर्णन हुआ है]।

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    विषय

    अग्निहोत्र का उपदेश।

    भावार्थ

    (दिवे) द्यौः या प्रकाश या तेज के लिये, (चक्षुषे) उसके ग्रहण करने वाली इन्द्रिय चक्षु के लिये (नक्षत्रेभ्यः) उस तेज से चमकने वाले नक्षत्रों और (अधिपतये सूर्याय) उनके स्वामी सूर्य के लिये (स्वाहा) उत्तम आहुति का प्रदान करो। अध्यात्म में—पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौः तीन लोक हैं। श्रोत्र, प्राण=घ्राण और चक्षु तीन इन्द्रिय हैं। वनस्पति, पक्षि और नक्षत्र तीनों लोकों की तीन प्रकार की प्रजाएं हैं। अग्नि, वायु और सूर्य ये तीन उनके अधिपति इस त्रिक का परस्पर घनिष्ट लेनदेन है। यही इनकी उत्तम आहुति है। पृथिवी से वनस्पति उत्पन्न होती है और अग्नि उसे खा जाती है जोकि पुनः श्रोत्र रूप दिशाओं में फैलती है। अन्तरिक्ष में पक्षिगण विहार करते हैं, उनका रक्षक वायु है। उसका एकांश प्राण वायु नासिका में विचरता है। द्यौः लोक या तेजोलोक की प्रजाएं ये नक्षत्र हैं उनका अधिपति सूर्य है। जिसका प्रत्यक्ष नमूना यह सूर्य है। उसके तेजका ग्राहक चक्षु है। ईश्वर की सृष्टि में ये एक दूसरे के धारक और सामर्थ्यदायक हैं। यही इनकी उत्तम आहुति है॥ इति प्रथमोऽनुवाकः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंतातिऋषिः। १ अग्निः। २ वायुः। ३ सूर्यः १ साम्नी त्रिष्टुप्। २ प्राजापत्या बृहती। साम्नी बृहती। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Physiopsychic Interaction

    Meaning

    Homage to the region of light, eye, stars and the Sun, presiding power of the heavenly region. (In this sukta the relation between the human and the natural world is shown: Earth, Agni, Vanaspati, and ear; middle region, Vayu, birds, and prana; solar region, sun, stars and the eye. So homage to nature is homage to yourself and your faculties.)

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    Subject

    Aditya

    Translation

    For vision to the sky, to the stars and to the sun, their overlord, I dedicate.

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    Translation

    We appreciate the utility and purpose of vital air, firmament birds and air which is the controlling power. Whatever is uttered herein is true.

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    Translation

    Offer butter oblation for the sake of producing light, for the eye, recipient of light, for the stars that shine with light, for the Sun, the Lord of light.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(दिवे) प्रकाशाय (चक्षुषे) दर्शनशक्तये (नक्षत्रेभ्यः) नक्षत्रज्ञानेभ्यः (सूर्याय) अ० १।३।५। लोकप्रेरकाय दिवाकराय (अधिपतये) प्रकाशस्य महारक्षकाय ॥

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