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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 101/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वाङ्नगिरा देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - बलवर्धक सूक्त
    116

    आहं त॑नोमि ते॒ पसो॒ अधि॒ ज्यामि॑व॒ धन्व॑नि। क्रम॑स्वर्श॑ इव रो॒हित॒मन॑वग्लायता॒ सदा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒हम् । त॒नो॒मि॒ । ते॒ । पस॑: । अधि॑ । ज्याम्ऽइ॑व । धन्व॑नि । क्रम॑स्व । ऋश॑:ऽइव । रो॒हित॑म् । अन॑वऽग्लायता । सदा॑ ॥१०१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आहं तनोमि ते पसो अधि ज्यामिव धन्वनि। क्रमस्वर्श इव रोहितमनवग्लायता सदा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अहम् । तनोमि । ते । पस: । अधि । ज्याम्ऽइव । धन्वनि । क्रमस्व । ऋश:ऽइव । रोहितम् । अनवऽग्लायता । सदा ॥१०१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 101; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (अहम्) मैं [हे मनुष्य !] (ते) तेरे (पसः) राज्य को (आ) यथावत् (तनोमि) फैलाता हूँ (ज्याम् इव) जैसे डोरी को (धन्वनि अधि) धनुष में। (अनवग्लायता) बिना ग्लानि वा थकावट के (सदा) सदा [शत्रुओं पर] (क्रमस्व) धावा कर, (ऋशः इव) जैसे हिंसक जन्तु सिंह आदि (रोहितम्) हरिण पर ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर के दिये सामर्थ्यों से निरालसी होकर शत्रुओं को वश में करके सदा प्रजापालन करे ॥३॥ यह मन्त्र आ चुका है−अ० ४।४।७ ॥

    टिप्पणी

    ३−अयं मन्त्रो व्याख्येयो यथा−अ० ४।४।४७ ॥

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    विषय

    अधिज्यामिव धन्वनि

    पदार्थ

    १. प्रभु कहते हैं कि हे साधक! (अहम्) = मैं (ते पस:) = तेरे राष्ट्र को (आ तनोमि) = सब प्रकार से विस्तारवाला करता हूँ। (इव) = जिस प्रकार (अधिधन्वनि) = धनुष पर (ज्याम्) = डोरी को विस्तृत करते हैं। २. तू (सदा) = सर्वदा (अनवग्लायता) = बिना ग्लानि व थकावटवाले मन के साथ क्रमस्व शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाला हो, (इव) = जैसेकि (ऋश:) = एक हिंसक पशु (रोहितम्) = मृगविशेष पर आक्रमण करता है। शत्रुओं को तू इसीप्रकार जीतनेवाला बन, जैसेकि एक हिंस्र पश हिरनों को जीत लेता है।

    भावार्थ

    राजा सैनिकों को शस्त्रास्त्र से सुसज्जित रक्खे। शस्त्रास्त्र के अनुपात में ही राष्ट्र शक्तिशाली बनता है। सैनिक शक्ति के ठीक होने पर ही राष्ट्र की शक्तियों का विस्तार होता है।

    विशेष

    राष्ट्र का रक्षण करनेवाला यह व्यक्ति "जमदग्नि' कहलाता है। प्रजापति बैं जमदग्नि:-श० १३.२.२.१४। जमदग्नि ही अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (अहम्) मैं ब्रह्मणस्पति [मन्त्र २] (ते) तेरी (पस:) प्रजननेन्द्रिय को (आतनोमि) पूर्णतया विस्तारित करता हूं, (धन्वनि अधि) धनुष् पर चढ़ाई (ज्याम् इव) ज्या अर्थात् डोरी के सदृश। (ऋणः) हरिण (इव) जैसे (रोहितम्) हरिणी की ओर, वैसे तू (क्रमस्व) [पत्नी की ओर] पग बढ़ा, (सदा अनवग्लायता) सदा ग्लानिरहित मन से, प्रसन्न चित्त से।

    टिप्पणी

    [रोहितम्= रोहित् + अम् (द्वितीया विभक्ति, पदानुक्रमणी)। अनवग्लायता= अ + नुट् + अव+ ग्लै हर्षक्षये (भ्वादिः) + तृतीयैकवचन। क्रमस्व= क्रमु पादविक्षेपे (भ्वादिः)। समग्र सूक्त में कोई अश्लीलता का अंशमात्र भी नहीं गृहस्थधर्म में रोग का केवल वर्णन और उसकी निवृत्ति का कथनमात्र हुआ है। डाक्टरी की पुस्तकों में भी ऐसे विषयों का वर्णन पाया जाता है, और पढ़ाया भी जाता है।]

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    विषय

    पुष्ट प्रजनन अंग होने का उपदेश।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो (अथर्व का० ४। ४। ७। (अहं ते पसः) मैं सद्-वैद्य तेरे कामाङ्ग को (तनोमि) दोष रहित करके सुधारता हूं। (धन्वनि अधि ज्याम् इव) जिस प्रकार शिकारी अपने धनुष पर डोरी चढ़ाता है, (अर्श: रोहितम् इव) और जिस प्रकार शिकारी प्रसन्नचित्त से मृग पर दौड़ता है उसी प्रकार (अनवग्लायता) सदा ग्लानिरहित चित्त से (क्रमस्व) अपनी पत्नी के पास जाओ। चित्त में ग्लानि होने से सम्भोग काल में सफलता नहीं होती। जिस ईश्वर ने संसार को उत्पन्न किया और जिसने सृष्टि उत्पन्न करने वाले अंगों को भी रचा उसकी दृष्टि में कोई पदार्थ अश्लील नहीं। प्रजा सर्जन का भी अपना विज्ञान है। उसका वेद में उपदेश होना आवश्यक है। ग्रीफ़िथ ने यह तत्व न समझ कर इस सूक्त को अश्लील जानकर इसका अनुवाद नहीं किया।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शेपप्रथनकामोऽथर्वाङ्गिरा ऋषिः। ब्रह्मणस्पतिर्देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Strength and Expansion

    Meaning

    I raise your spirits and extend your dominion like the string on the bow. Rise and advance in life without hesitation like a tiger upon the deer. Be active without relent, always.

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    Translation

    I make your penis (member) taut like a bow-string on a bow; mount, as it were a stag, a doe, unrelaxingly always. (Also Av. IV.4.7)

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    Translation

    I, the physician extend the potential power of your organ of generation like the bow-string on its arch, O feeble one! and you like the lion pouncing on dear enjoy the sex with your wife without being subject of any agony and discomfiture.

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    Translation

    I, nicely, extend thy rule, as the string is strung on the bow. Attack the foes without exhaustion, as a bear attacks the deer.

    Footnote

    I: God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−अयं मन्त्रो व्याख्येयो यथा−अ० ४।४।४७ ॥

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