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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 103 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 103/ मन्त्र 2
    ऋषिः - उच्छोचन देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    36

    सं प॑र॒मान्त्सम॑व॒मानथो॒ सं द्या॑मि मध्य॒मान्। इन्द्र॒स्तान्पर्य॑हा॒र्दाम्ना॒ तान॑ग्ने॒ सं द्या॒ त्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । प॒र॒मान् । सम् । अ॒व॒मान् । अथो॒ इति॑ । सम् । द्या॒मि॒ । म॒ध्य॒मान् । इन्द्र॑: । तान् । परि॑ । अ॒हा॒: । दाम्ना॑ । तान् । अ॒ग्ने॒ । सम् । द्य॒। त्वम् ॥१०३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं परमान्त्समवमानथो सं द्यामि मध्यमान्। इन्द्रस्तान्पर्यहार्दाम्ना तानग्ने सं द्या त्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । परमान् । सम् । अवमान् । अथो इति । सम् । द्यामि । मध्यमान् । इन्द्र: । तान् । परि । अहा: । दाम्ना । तान् । अग्ने । सम् । द्य। त्वम् ॥१०३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 103; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं के हराने का उपदेश।

    पदार्थ

    (परमान्) ऊँचे वैरियों को (सम्) यथावत्, (अवमान्) नीचे शत्रुओं को (सम्) यथावत् (अथो) और (मध्यमान्) बीचवाले शत्रुओं को (सम्) यथावत् (द्यामि) खण्ड-खण्ड करता हूँ। (इन्द्रः) महाप्रतापी राजा ने (तान्) चोरों को (परि) सब ओर से (अहाः) नाश कर दिया है, (अग्ने) हे विद्वान् राजन् ! (त्वम्) तू (दाम्ना) पाश से (तान्) म्लेच्छों को (सम् द्य) बाँध ले ॥२॥

    भावार्थ

    प्रत्येक सैनिक सेनादल में शत्रुओं को सब स्थान से मारे और बाँधे ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(सम्) सम्यक् (परमान्) उच्चस्थान् शत्रून् (सम्) (अवमान्) नीचस्थान् (अथो) अपि च (द्यामि) दो अवखण्डने। खण्डशः करोमि (मध्यमान्) मध्यस्थान् (इन्द्रः) प्रतापी राजा (तान्) तर्दकांश्चोरान्। (परि) परितः (अहाः) हरतेर्लुङि च्लेः सिच्। बहुलं छन्दसि। पा० ७।३।९७। इति ईडभावे। हल्ङ्याभ्यः०। पा० ६।१।६८। इति तलोपे। रात् सस्य। पा० ८।२।२४। इति सलोपः। हृतवान् नाशितवान् (दाम्ना) पाशेन (अग्ने) हे विद्वन् राजन् (सम् द्य) बधान (त्वम्) ॥

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    विषय

    उपासक का दुढ़ निश्चय

    पदार्थ

    १. प्राणसाधना करता हुआ उपासक दृढ़ निश्चय करता है कि (परमान) = उत्कृष्ट शत्रुओं को ज्ञान-संग व सुख-संग को (संद्यामि) = सम्यक् बद्ध करता हूँ-इन्हें वशीभूत करता हूँ। सत्त्वगुण के ये ही बन्धन है-'सुखसंगेन बध्नाति [सत्त्वं] ज्ञानसंगेन चानघ'। (अवमान) = निकृष्ट शत्रुओं को-प्रमाद, आलस्य व निद्रा को (सं) [द्यामि]-सम्यक् बाँधता हूँ-इन्हें भी वशीभूत करता हूँ। ये ही तमोगुण के बन्धन हैं 'प्रमादालस्य निद्राभिस्तन्निबध्नाति धनञ्जय'। अथो-और अब मध्यमान्-रजोगुणजनित मध्यम बन्धनों को भी सं[द्यामि]-वशीभूत करता है। यह रजोगुण हमें 'तृष्णा व धनोपार्जनोपायभूत कर्मों में लगे रहनेरूप' बन्धन से बाँधता है। मैं इनसे भी ऊपर उठता हूँ। २. (इन्द्रः) = बल से होनेवाले सब कर्मों को करनेवाला प्रभु (तान्) = उन 'ज्ञान-संग, सुख संग, प्रमाद, आलस्य, निद्रा; तृष्णा व कर्मसंग' को (पर्यहा:) = [परि ह] परिवर्जित करे। हम 'इन्द्र' अर्थात् जितेन्द्रिय बनकर इन शत्रुओं को वशीभूत करें। हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (त्वम्) = आप (तान्) = उन शत्रुओं को (दाम्ना) = रज्जु-संयम-रज्जु से (संद्य) = बाँध डालिए। हम अग्नि बनते हुए आगे बढ़ने की वृत्तिवाले होते हुए इन शत्रुओं को वशीभूत कर सकें।

    भावार्थ

    हम जितेन्द्रिय व आगे बढ़ने की भावनावाले [इन्द्र+अग्नि] बनकर 'परम, अवम व मध्यम' सभी शत्रुओं का नियमन करनेवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (परमान्) शत्रु सेना के उत्कृष्ट अधिकारियों को [युद्धस्थल में] (संदधामि) में सेनाध्यक्ष बान्धता हूं, (अवमान्) नीचे के अधिकारियों को (सम्) बान्धता हूं, (अथो) तथा (मध्यमान्) मध्यम अधिकारियों को (सम् यामि) बान्धता हूं। परन्तु (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (तान्) उन अधिकारियों को (दाम्ना) रस्सी द्वारा (त्वम्) तू [स्थिर रूप में] (संद्य) बान्ध। (इन्द्रः) सम्राट् (पर्यहाः) जिन्हें चाहे बन्धन से परित्यक्त करदे।

    टिप्पणी

    [युद्धस्थल में सभी प्रकार के शत्रुसेना के अधिकारियों को सेनाध्यक्ष बान्ध सकता है परन्तु उन्हें स्थिररूप में रस्सी द्वारा बान्धे रखने का अधिकार प्रधानमन्त्री का है। उन बद्धों में से जिन्हें चाहे सम्राट् बन्धन से मुक्त कर सकता है। पर्यहाः= परि (पूर्णतया) + अ (अट् लुङि) + हा (ओहाक त्यागे, जुहोत्यादिः)। "हरतेर्लुङि च्ले: सिन्। "बहुलं छन्दसि" (अष्टा० ७।३।९७) इति इडभावे, "इल्ङ्या" (अष्टा० ६।१।६८) इत्यादि-लोपे, "रात् सस्य" (अष्टा० ८।२।२४) इति सलोपः” (सायण)]।

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    विषय

    राष्ट्र-रक्षा और शत्रु दमन।

    भावार्थ

    मैं राजा अपने शत्रुधों में से (परमान्) ऊंची श्रेणी के लोगों को (सं द्यामि) बन्धन में रखूं, (अवमान् सं द्यामि) नीची श्रेणी के लोगों को भी बन्धन में रखूँ, और (मध्यमान् सं द्यामि) मध्यम श्रेणी के लोगों को भी बन्धन में रखूं। (इन्द्रः) राज़ा (तान्) उन सबको (परि अहाः) दूर से ही निवारण करे और हे (अग्ने) अग्ने, सेनापते ! (त्वं) तू (तान्) उनको (दाम्ना) रस्सी या पाश से (सं द्य) अच्छी प्रकार बांधे रख, वश किये रख, आगे मत बढ़ने दे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उच्छोचन ऋषिः। इन्द्राग्नी उत बहवो देवताः। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Conquest of Enemies

    Meaning

    I bind and control enemies that are far off, close by and in between at the middle distance. Let Indra ward off all of them, and O Agni, you too bind them all in fetters.

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    Translation

    I hereby bind the highest, the lowest and the middle-ones. The resplendent army chief has surrounded them; O adorable king, may you now fetter them.

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    Translation

    I, the King bind them who are of high rank and of low rank, I bind them who are from the middle rank. Let the mighty ruler drive them away and let you, O Commander! bind them with fetters.

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    Translation

    I bind together all the enemies, all the first, the low or the middle rank. The powerful king has routed them all from every side. O Commander of the army, capture them all as prisoners of war, with fetters on!

    Footnote

    I refers to the General of the army.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(सम्) सम्यक् (परमान्) उच्चस्थान् शत्रून् (सम्) (अवमान्) नीचस्थान् (अथो) अपि च (द्यामि) दो अवखण्डने। खण्डशः करोमि (मध्यमान्) मध्यस्थान् (इन्द्रः) प्रतापी राजा (तान्) तर्दकांश्चोरान्। (परि) परितः (अहाः) हरतेर्लुङि च्लेः सिच्। बहुलं छन्दसि। पा० ७।३।९७। इति ईडभावे। हल्ङ्याभ्यः०। पा० ६।१।६८। इति तलोपे। रात् सस्य। पा० ८।२।२४। इति सलोपः। हृतवान् नाशितवान् (दाम्ना) पाशेन (अग्ने) हे विद्वन् राजन् (सम् द्य) बधान (त्वम्) ॥

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