अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 106/ मन्त्र 2
ऋषिः - प्रमोचन
देवता - दूर्वाशाला
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दूर्वाशाला सूक्त
42
अ॒पामि॒दं न्यय॑नं समु॒द्रस्य॑ नि॒वेश॑नम्। मध्ये॑ ह्र॒दस्य॑ नो गृ॒हाः प॑रा॒चीना॒ मुखा॑ कृधि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पाम् । इ॒दम् । नि॒ऽअय॑नम् । स॒मु॒द्रस्य॑ । नि॒ऽवेश॑नम् । मध्ये॑ । ह्र॒दस्य॑ । न॒: । गृ॒हा: । प॒रा॒चीना॑ । मुखा॑ । कृ॒धि॒ ॥१०६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अपामिदं न्ययनं समुद्रस्य निवेशनम्। मध्ये ह्रदस्य नो गृहाः पराचीना मुखा कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठअपाम् । इदम् । निऽअयनम् । समुद्रस्य । निऽवेशनम् । मध्ये । ह्रदस्य । न: । गृहा: । पराचीना । मुखा । कृधि ॥१०६.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गढ़ बनाने का उपदेश।
पदार्थ
(अपाम्) प्रजाओं का (इदम्) यह (न्ययनम्) निवासस्थान (समुद्रस्य) जलसमूह का (निवेशनम्) प्रवेश हो। (नः गृहाः) हमारे घर (ह्रदस्य) ताल वा खाई के (मध्ये) बीच में हों, [हे राजन् शत्रुओं के] (मुखा) मुखों को (पराचीना) उलटा (कृधि) कर दे ॥२॥
भावार्थ
राजा प्रजा की रक्षा के लिये दुर्ग के चारों ओर जल की गहरी खाई रक्खे, जिससे शत्रुओं का मार्ग रुका रहे ॥२॥ इस मन्त्र का पूर्वार्ध यजुर्वेद में है−अ० १७ म० ७ ॥
टिप्पणी
२−(अपाम्) प्रजानाम्। आपः=आप्ताः प्रजाः−दयानन्दभाष्ये−यजु० ६।२७। (इदम्) (न्ययनम्) इण्−ल्युट्। निवासस्थानम् (समुद्रस्य) जलौघस्य (निवेशनम्) प्रवेशनम् (मध्ये) (ह्रदस्य) जलाशयस्य। परिखायाः (नः) अस्माकम् (गृहाः) गेहानि (पराचीना) प्रतिकूलानि (कृधि) कुरु ॥
विषय
मध्ये हृदस्य
पदार्थ
१. (इदम्) = यह (अपाम्) = प्रजाओं का (न्ययनम्) = निवास-स्थान और (समुद्रस्य निवेशनम्) = जलसमूह का गृह हो [निविशतेऽस्मिन् इति]। (न: गृहा:) = हमारे घर (हृदस्य मध्ये) = तालाब के मध्य में हों। हे अग्ने! तू अपने (मुखाः) = ज्वालारूप मुखों को (पराचीना कृधि) = पराङ्मुख कर। ऐसे घरों में अग्निदाह का भय नहीं होता।
भावार्थ
घरों में जलों के सुप्रबन्ध से अग्निदाह की आशंका नहीं रहती।
भाषार्थ
शाला के समीप (१) या तो (इदम्) यह (अपाम्) जल का (न्ययनम्) नीचे गिराना अर्थात् जलप्रपात हो; (२) या (समुद्रस्य) समुद्र की (निवेशनम्) स्थिति हो; (३) या (नः) हमारे (गृहा:) घर (हृदस्य) तालाब के (मध्ये) मध्य में हों। (मुखा= मुखानि) घरों में मुख (पराचीना = पराचीनानि) परस्पर पराङ्मुख (कृधि) हे गृहस्थी तू कर।
टिप्पणी
[गर्मी के निवारणार्थ, घरों के निर्माण स्थलों का निर्देश, मन्त्र में किया है। मुखानि का अभिप्राय है खिड़कियां और दरवाजे। ये परस्पर पराङ्मुख होने चाहिये, विरोधी दिशाओं में अर्थात् आमने-सामने की दिशाओं में होने चाहियें। निवेशनम् = अथवा सामुद्रिक जल का पृथ्वी में प्रवेश, खाड़ी, Inlet, Bay Gulf]।
विषय
गृहों की रक्षा और शोभा।
भावार्थ
गृहों के बनाने के लिये उचित स्थान के निर्णय करने का उपदेश करते हैं। (इदं अपां निअयनम्) यह, उधर जलों के नीचे आने का स्थान हो और (समुद्रस्य नि-वेशनम्) इधर समुद्र, जल-भण्डार का स्थान हो। (ह्रदस्य मध्ये) तालाब के बीच में (नः) हमारे (गृहाः) घर हों। हे अग्ने ! विद्वन्। तू अपने (मुखा) मुखों को (पराचीना) दूर तक फैले हुए विशाल बना, अथवा हे शिल्पिन् ! द्वारों को बड़ा बना।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘अग्ने परि’ इति यजु०। (च) ‘ददातु भेषजं’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रमोचन ऋषिः। दूर्वा शाला देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Ideal House
Meaning
Let there be a confluence of waters and let it be a centre of human activity. Let it be close to the beach, the atmosphere as deep as the depth of spatial oceans. Let our homes be in the midst of a lake, and make the doors wide.
Translation
Here is the course of flowing waters, here is the abode of flood. May our houses be situated in the midst of the lake. Make the doors facing each other.
Translation
Let there be a place where waters meet and let there be the gathering of flood, let our homes be built in the middle of lake, let them be provided, O architect, with the wide entrances.
Translation
May this dwelling place of men be the abode of abundant water. May our house be built amid the tank, O king, turn thou the faces of the enemy away from it!
Footnote
It' refers to the house. Fort should have a ditch of water round it, so that the enemy may not easily attack it. See Yajur, 17-7.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(अपाम्) प्रजानाम्। आपः=आप्ताः प्रजाः−दयानन्दभाष्ये−यजु० ६।२७। (इदम्) (न्ययनम्) इण्−ल्युट्। निवासस्थानम् (समुद्रस्य) जलौघस्य (निवेशनम्) प्रवेशनम् (मध्ये) (ह्रदस्य) जलाशयस्य। परिखायाः (नः) अस्माकम् (गृहाः) गेहानि (पराचीना) प्रतिकूलानि (कृधि) कुरु ॥
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