अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 106/ मन्त्र 3
ऋषिः - प्रमोचन
देवता - दूर्वाशाला
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दूर्वाशाला सूक्त
75
हि॒मस्य॑ त्वा ज॒रायु॑णा॒ शाले॒ परि॑ व्ययामसि। शी॒तह्र॑दा॒ हि नो॒ भुवो॒ऽग्निष्कृ॑णोतु भेष॒जम् ॥
स्वर सहित पद पाठहि॒मस्य॑ । त्वा॒ । जरायु॑णा। शाले॑ । परि॑ । व्य॒या॒म॒सि॒ । शी॒तऽह्र॑दा । हि । न॒: । भुव॑: । अ॒ग्नि: । कृ॒णो॒तु॒ । भे॒ष॒जम् ॥१०६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
हिमस्य त्वा जरायुणा शाले परि व्ययामसि। शीतह्रदा हि नो भुवोऽग्निष्कृणोतु भेषजम् ॥
स्वर रहित पद पाठहिमस्य । त्वा । जरायुणा। शाले । परि । व्ययामसि । शीतऽह्रदा । हि । न: । भुव: । अग्नि: । कृणोतु । भेषजम् ॥१०६.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गढ़ बनाने का उपदेश।
पदार्थ
(शाले) हे शाला ! (हिमस्य) शीत के (जरायुणा) जीर्ण करनेवाले वस्त्र वा अग्नि के साथ (त्वा) तुझको (परि) अच्छे प्रकार (व्ययामसि) हम प्राप्त होते हैं। (हि) क्योंकि [जब] तू (नः) हमारे लिये (शीतह्रदा) ताल के समान शीतल (भुवः) होवे, (अग्निः) अग्नि [ताप] (भेषजम्) भयनिवारक कर्म (कृणोतु) करे ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य शीत के लिये उष्ण सामग्री और उसी प्रकार उष्ण ऋतु के लिये शीतल वस्तुओं का भण्डार दुर्ग और घरों में रक्खें ॥३॥ इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध कुछ भेद से यजुर्वेद में है−अ० १७।५ ॥
टिप्पणी
३−(हिमस्य) शीतस्य (त्वा) त्वाम् (जरायुणा) किंजरयोः श्रिणः। उ० १।४। इति जरा+इण् गतौ−ञुण्। जरामेति येन जरायुस्तेन वस्त्रेणाग्निना वा (शाले) हे गृह (परि) परितः (व्ययामसि) व्यय गतौ वित्तसमुत्सर्गे च। प्राप्नुमः (शीतह्रदा) शीतो ह्रद इव (हि) यस्मात् कारणात् (नः) अस्मभ्यम् (भुवः) त्वं भवेः (अग्निः) तापः (कृणोतु) करोतु (भेषजम्) भयनिवारकं कर्म ॥
विषय
हिमस्य जरायुणा
पदार्थ
१. हे (शाले) = निवासस्थान ! (त्वा) = तुझे (हिमस्य जरायुणा) = हिम [शीतल जल] के वेष्टन से (परिव्ययामसि) = चारों ओर से घेरते हैं, तू (न:) = हमारे लिए (शीतहदा: भुव:) = शीतल जलवाले तालाब से युक्त हो। (हि) = निश्चय से इस स्थिति में (अग्नि:) = अग्नि (भेषजं कृणोतु) = हमारे रोगों के निवारण करने का साधन होकर रोगों को दूर करे।
भावार्थ
घर तालाब आदि से घिरे हुए हों, जिससे बाहर की आग उस तक न पहुँच सके। घरों के अन्दर अग्नि भी भेषज बने-कष्टों को दूर करने का साधन बने।
विशेष
इन घरों में शान्तिपूर्वक निवास करनेवाला 'शन्ताति' अगले सूक्त का ऋषि है।
भाषार्थ
(शाले) हे शाला ! (त्वा) तुझे (हिमस्य) बर्फ के (जरायुणा) गर्भ-वेष्टन के सदृश वेष्टन द्वारा (परिव्ययामसि) हम सब ओर वेष्टित करते हैं, (नः) हमारे लिये (हि) निश्चय से (शीतह्रदा) ठण्डे तालाब के सदृश (भुव:) तू हो जा। (अग्निः) यज्ञियाग्नि (भेषजम्) हमारी रोग चिकित्सा (कृणोतु) करे।
टिप्पणी
[ऐसे शीतगृहों की आवश्यकता अत्यन्त गर्म प्रदेशों में हो सम्भव है। तदर्थ बर्फ जमा सकना वैज्ञानिकता का सूचक है।]
विषय
गृहों की रक्षा और शोभा।
भावार्थ
हे शाले ! गृह ! (त्वा) तुझे (हिमस्य) हिम, शीतल जल के (जरायुणा) वेष्टन या आवरण पदार्थ से (परि व्यायामः) चारों ओर से घेर लें जिससे तू (नः) हमारे लिये (शीतह्रदा भुव:) शीतल तालाबों से युक्त हो। इस प्रकार (अग्निः) गृह में स्थित अग्नि भी हमारे पास (भेषजम्) हमारे रोगों और दुःखों के निवारण करने का साधन होकर हमारे रोगों को दूर (कृणोतु) करे। गृह को शीतल तालाब आदि से घेर लेना चाहिये जिससे बाहर के जंगलों की आग घर को न सतावे। अग्नि भी उसमें जल के कारण आनेवाले रोगों को दूर करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रमोचन ऋषिः। दूर्वा शाला देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Ideal House
Meaning
O house of the nation, we surround you with the cover of the shade of cool. And when there is the cool of water reservoirs, let fire be the antidote.
Translation
O house, we encompass you with a perishable foetal covering of snow (himasya jarayuna). May you have cool ponds (Sita-hrada) for us. May the fire be a remedy (for cold).
Translation
We encompass this house with net of coolness so that it may be as cool as the cold lakes and let the fire of yajna bring us heating balm.
Translation
O House, we compass thee about with coolness to envelop thee. Cool as a tank be thou to us. Let there be fire in our house to remedy our diseases!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(हिमस्य) शीतस्य (त्वा) त्वाम् (जरायुणा) किंजरयोः श्रिणः। उ० १।४। इति जरा+इण् गतौ−ञुण्। जरामेति येन जरायुस्तेन वस्त्रेणाग्निना वा (शाले) हे गृह (परि) परितः (व्ययामसि) व्यय गतौ वित्तसमुत्सर्गे च। प्राप्नुमः (शीतह्रदा) शीतो ह्रद इव (हि) यस्मात् कारणात् (नः) अस्मभ्यम् (भुवः) त्वं भवेः (अग्निः) तापः (कृणोतु) करोतु (भेषजम्) भयनिवारकं कर्म ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal