अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 116/ मन्त्र 2
ऋषिः - जाटिकायन
देवता - विवस्वान्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - मधुमदन्न सूक्त
44
वै॑वस्व॒तः कृ॑णवद्भाग॒धेयं॒ मधु॑भागो॒ मधु॑ना॒ सं सृ॑जाति। मा॒तुर्यदेन॑ इषि॒तं न॒ आग॒न्यद्वा॑ पि॒ताऽप॑राद्धो जिही॒डे ॥
स्वर सहित पद पाठवै॒व॒स्व॒त: । कृ॒ण॒व॒त् । भा॒ग॒ऽधेय॑म् । मधु॑ऽभाग: । मधु॑ना । सम् । सृ॒जा॒ति॒ । मा॒तु: । यत् । एन॑: । इ॒षि॒तम् । न॒: । आ॒ऽअग॑न् । यत् । वा॒ । पि॒ता । अप॑ऽराध्द: । जि॒ही॒डे ॥११६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
वैवस्वतः कृणवद्भागधेयं मधुभागो मधुना सं सृजाति। मातुर्यदेन इषितं न आगन्यद्वा पिताऽपराद्धो जिहीडे ॥
स्वर रहित पद पाठवैवस्वत: । कृणवत् । भागऽधेयम् । मधुऽभाग: । मधुना । सम् । सृजाति । मातु: । यत् । एन: । इषितम् । न: । आऽअगन् । यत् । वा । पिता । अपऽराध्द: । जिहीडे ॥११६.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पाप से निवृत्ति का उपदेश।
पदार्थ
(मधुभागः) ज्ञान का भाग करनेवाला, (वैवस्वतः) मनुष्यों का स्वामी परमेश्वर (भागधेयम्) भाग (कृणवद्) करे और (मधुना) [उस पाप के] ज्ञान के साथ [हमें] (सम् सृजाति) संयुक्त करे। (मातुः) माता को प्राप्त करके (इषितम्) उतावली से किया हुआ (नः) हमारा (यत्) जो (एनः) पाप (आगन्) हो गया है, (वा) अथवा (यत्) जिस पाप के कारण (पिता) पिता, (अपराद्धः) जिसका हमने अपराध किया है, (जिहीडे) क्रोधित हुआ है ॥२॥
भावार्थ
यदि मनुष्य प्रमाद के कारण माता-पिता आदि को अप्रसन्न करे तो वह उनसे क्षमा माँग कर प्रायश्चित्त करके शुद्ध होवे ॥२॥
टिप्पणी
२−(वैवस्वतः) म० १। मनुष्याणां स्वामी (कृणवत्) कुर्य्यात् (भागधेयम्) भागम् (मधुभागः) मधुनो ज्ञानस्य भागकर्ता (मधुना) तस्य एनसो ज्ञानेन (संसृजाति) संयोजयेद् अस्मान् (मातुः) पञ्चमीविधाने ल्यब्लोपे कर्मण्युपसंख्यानम्। वा० पा० २।३।२८। इति मातरं प्राप्य (यत्) (एनः) पापम् (इषितम्) प्रमादेन प्रेषितम् (नः) अस्माकम् (आगन्) गमेर्लुङि। मन्त्रे घसह्वर०। पा० २।४।८०। इति च्लेर्लुक्। मो नो धातोः। पा० ८।२।६४। इति नत्वम्। आगमत् (यत्) पापम् (वा) अथवा (पिता) (अपराद्धः) कृतदोषः सन् विमुखः (जिहीडे) हेडृ अनादरे−लिट्, छान्दसं रूपम्। हेडते क्रुध्यतिकर्मा−निघ० ९२।१२। जिहेडे। चुक्रोध ॥
विषय
पितृयज्ञावशिष्ट अन्न का सेवन
पदार्थ
१. हमारे द्वारा उत्पन्न किये गये अन्न में (वैवस्वतः) = ज्ञान-किरणों को फैलानेवाला राजा (भागधेयम्) = भाग को (कृण्वत्) = करे, अर्थात् राजा अपने कर-भाग को ग्रहण करे। राजा तो ग्रहण करे ही, राजा के अतिरिक्त हम अपने मान्य व आश्रित व्यक्तियों के लिए भी अन्न-भाग देनेवाले हों। विशेषकर माता-पिता को अन्न-भाग देकर ही बचे हुए को खाएँ। यही पितृयज्ञ कहलाता है। इस पितृयज्ञ को करनेवाला व्यक्ति गतमन्त्र के अनुसार [यज्ञियं मधुमदस्तु नोऽन्नम्] माधुर्योपेत अन्न का सेवन करता है। यह (मधुभाग:) = माधुर्योपेत अन्न का सेवन करनेवाला अपने जीवन को (मधुना संसृजाति) = माधुर्य से संसृष्ट कर लेता है। २. इसके विपरीत, अर्थात् पितृयज्ञ के न करने पर (मातृः यत् एन:) = माता के विषय में किया गया जो पाप है, वह (इषितम्) = प्रेरित हुआ हुआ (न: आगन) = हमें प्राप्त होता है। (वा) = अथवा (यत्) = जब यह (पिता अपराबद्धः) = पिता हमसे अनादृत होता है-हम पिता को आदरपूर्वक भोजन नहीं कराते तब वह (जिहीडे) = हमारे प्रति क्रोधवाला होता है। हमें माता-पिता के क्रोध का भाजन बनना पड़ता है, इनका अभिशाप हमें लगता है।
भावार्थ
हम राजा के लिए तो उत्पन्न अन्न का भाग दें ही तथा सदा माता-पिता को खिलाकर ही पितृयज्ञ से अवशिष्ट अन्न का ही सेवन करें।
भाषार्थ
(वैवस्वत:) विवस्वान् के राजा ने (भागधेयम्) अन्न का भाग (कृणवत्) हमें प्रदान किया है, यह भाग (मधुभाग:) मधुर भाग हो गया है; परमेश्वर (मधूना) इस मधुर अन्न भाग के साथ (सं सृजाति) हमारा संसर्ग करता रहे। (मातुः) माता से (इषितम्) प्रेषित हुआ (यत्) जो (एनः) पाप (नः) हमें (आगन्) प्राप्त हुआ है (वा) या (यत्) जो पाप (अपराद्धः) अपराधी (पिता) पिता ने (जिहीडे) क्रोधपूर्वक प्रेषित किया है।
टिप्पणी
[मन्त्र के पूर्वार्ध का सम्बन्ध मन्त्र (१) के साथ है, और उत्तरार्ध का सम्बन्ध मन्त्र (३) के साथ है। मन्त्र के उत्तर-अर्ध का अभिप्राय निम्नलिखित प्रतीत होता है। परिवार के वे व्यक्ति जोकि अन्न प्राप्ति के लिये परवश हैं, उन का कथन मन्त्र में है। मन्त्रगत "एनः" है पापयुक्त अन्न। अन्न जिसे कि यज्ञपूर्वक परमेश्वर के प्रति समर्पित न कर खाया जाता है वह पापयुक्त अन्न है। वह माता से प्राप्त हो या पिता से है पापयुक्त। उस अन्त को, अन्न के लिये परवशियों ने ग्रहण करना स्वीकृत नहीं किया तब पिता क्रुद्ध हो गया। पिता अपराद्धी है, क्योंकि पिता ने परमेश्वर के प्रति समर्पित किये विना अन्न का भोग किया है। यही अभिप्राय मन्त्र (३) का भी है। जिहीडेः= हेडः क्रोधनाम (निघं० २।१३)। एनः= पाप। एनः आगन्= पाप आया है। अभिप्राय है "पापयुक्त अन्न" आया है। पाप पद का प्रयोग पापी अर्थात् "पापयुक्त" के लिये भी होता है। यथा “समिन्द्र गर्दभं मृण नुवन्तं पापयाऽमुया" (अथर्व० २०।७४।५) में "पापिन स्त्री" को "पापा" कहा है। तथा "अश्लीला तनूर्भवति रुशती पापयाऽमुया" (अथर्व० १४।१।२७) में "पापा" द्वारा "रजस्वला पत्नी" का कथन हुआ है। अर्थात् पाप है रजस्, तद्वारा पापा है रजस्वला पत्नी।]
विषय
पाप से मुक्त होने का उपदेश।
भावार्थ
(वैवस्वतः) राष्ट्र का स्वामी (भागधेयं कृणवत्) सब के हिस्सों का विभाग करता है। और (मधु-भागः) अन्न का भाग ग्रहण करने वाला राजा ही सबको (मधुना सं सृजाति) अन्न से सम्पन्न करता है। राजा को हम राजा का भाग इसलिये दें कि उसको उसका भाग न देने से दो अनर्थ उत्पन्न होते हैं—[१] (यत्) प्रथम तो (मातुः) माता पृथिवी या प्रजा का (इषितम्) अभिलषित यथार्थ अन्न (नः) हमारे पास (एनः) पापरूप में या अपराध रूप में (आ अगन्) आ जाता है, [२] (वा) और दूसरा यह (यद्) कि (पिता) पालन करने वाला राजा (अपराद्धः) कसूर करने पर (जिहीडे) क्रोध करता है। इसलिये जिसका जो भाग हो वह उसको अवश्य दे देना चाहिए। उसको उसका हिस्सा न देने से जो (एनः) पाप होता है, उसका स्वरूप अगले मन्त्रों में स्पष्ट हो जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
जारिकायन ऋषिः। विवस्वान् देवता। १-३ जगत्यौ। २ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Our Share Vs Sin
Meaning
Let the brilliant sovereign fix the share of the state and of the producer. Honey sweet is the share of the sharer who further honey-sweetens it with the joy of satisfaction. But whatever, otherwise, comes from mother as a result of affection or ambition, or whatever father has appropriated from others, all that is sinful.
Translation
The rehabilitator, the mead-enjoyer, while making share, combines with sweetness the sin, which has come to us from our mother, or what our wronged father has sent in anger.
Translation
May King, the sovereign of the Kingdom prepare and fix our portion and may he who is the receiver of share of sweet grain unite us with sweet grain. May he keep away from us the wrong which comes to us in the form of grain or wealth and guilt whereby father wronged becomes angry.
Translation
The head of the state fixes the portion of tax to be paid by each. King, the recipient of taxes, arranges for the supply of food to all. May our sin in hasty mood against our mother, or guilt whereby a sire is wronged and angered be appeased.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(वैवस्वतः) म० १। मनुष्याणां स्वामी (कृणवत्) कुर्य्यात् (भागधेयम्) भागम् (मधुभागः) मधुनो ज्ञानस्य भागकर्ता (मधुना) तस्य एनसो ज्ञानेन (संसृजाति) संयोजयेद् अस्मान् (मातुः) पञ्चमीविधाने ल्यब्लोपे कर्मण्युपसंख्यानम्। वा० पा० २।३।२८। इति मातरं प्राप्य (यत्) (एनः) पापम् (इषितम्) प्रमादेन प्रेषितम् (नः) अस्माकम् (आगन्) गमेर्लुङि। मन्त्रे घसह्वर०। पा० २।४।८०। इति च्लेर्लुक्। मो नो धातोः। पा० ८।२।६४। इति नत्वम्। आगमत् (यत्) पापम् (वा) अथवा (पिता) (अपराद्धः) कृतदोषः सन् विमुखः (जिहीडे) हेडृ अनादरे−लिट्, छान्दसं रूपम्। हेडते क्रुध्यतिकर्मा−निघ० ९२।१२। जिहेडे। चुक्रोध ॥
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