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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 127 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 127/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भृग्वङ्गिरा देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
    65

    यो अङ्ग्यो॒ यः कर्ण्यो॒ यो अ॒क्ष्योर्वि॒सल्प॑कः। वि वृ॑हामो वि॒सल्प॑कं विद्र॒धं हृ॑दयाम॒यम्। परा॒ तमज्ञा॑तं॒ यक्ष्म॑मध॒राञ्चं॑ सुवामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अङ्ग्य॑: । य: । कर्ण्य॑: । य: । अ॒क्ष्यो: । वि॒ऽसल्प॑क: । वि । वृ॒हा॒म॒: । वि॒ऽसल्प॑कम् । वि॒ऽद्र॒धम् । हृ॒द॒य॒ऽआ॒म॒यम् । परा॑ । तम् । अज्ञा॑तम् । यक्ष्म॑म् । अ॒ध॒राञ्च॑म् । सु॒वा॒म॒सि॒ ॥१२७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अङ्ग्यो यः कर्ण्यो यो अक्ष्योर्विसल्पकः। वि वृहामो विसल्पकं विद्रधं हृदयामयम्। परा तमज्ञातं यक्ष्ममधराञ्चं सुवामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अङ्ग्य: । य: । कर्ण्य: । य: । अक्ष्यो: । विऽसल्पक: । वि । वृहाम: । विऽसल्पकम् । विऽद्रधम् । हृदयऽआमयम् । परा । तम् । अज्ञातम् । यक्ष्मम् । अधराञ्चम् । सुवामसि ॥१२७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 127; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रोग के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (अङ्ग्यः) अङ्गों में रहनेवाला, (यः) जो (कर्ण्यः) कानों में होनेवाला, (यः) जो (अक्ष्योः) दोनों आँखों का (विसल्पकः) हड़फूटन है। (विसल्पकम्) उस हड़फूटन रोग को, (विद्रधम्) हृदय के फोड़े को और (हृदयामयम्) हृदय की पीड़ा को (वि वृहामः) हम उखाड़े देते हैं। (अज्ञातम्) अप्रकट (यक्ष्मम्) उस राजरोग को (अधराञ्चम्) नीचे की ओर (परा) दूर (सुवामसि) हम फेंकते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    सद्वैद्य सब प्रकट और अप्रकट रोगों को यथावत् जान कर रोगनिवृत्ति करे ॥३॥ इस मन्त्र का मिलान अ० २।३३।१। से करो ॥

    टिप्पणी

    ३−(यः) विसल्पकः (अङ्ग्यः) शरीरावयवाच्च। पा० ४।३।५५। इति भवे यत्। अङ्गेषु हस्तपादादिषु भवः (कर्ण्यः) कर्णयोरुत्पन्नः (अक्ष्योः) अ० २।३३।१। नेत्रयोः (विसल्पकः) म० १। विसर्परोगः (विवृहामः) उन्मूलयामः (विसल्पकम्) (विद्रधम्) म० १। हृदयव्रणम् (हृदयामयम्) हृद्रोगम् (परा) दूरे (अज्ञातम्) अप्रकटम् (यक्ष्मम्) राजरोगम् (अधराञ्चम्) अधोमुखम् (सुवामसि) प्रेरयामः ॥

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    विषय

    विरेचन द्वारा रोगविनाश

    पदार्थ

    १. (यः विसल्पक:) = जो विसपर्क रोग (अङ्गायः) = हाथ-पाँव आदि अओं में होनेवाला है, (यः कर्ण्यः) जो कानों में उत्पन्न हो जाता है, (यः अक्ष्यो:) = जो आँखों में उत्पन्न हो जाता है, उस (विसल्पकम्) = बहुविध विसर्पक को (विवहामः) = हम उखाड़ फेंकते है तथा (विद्रधम्) = विदरणस्वभाव व्रणविशेष को (हृदयामयम्) = हृदय के रोग को भी दूर करते हैं। २. (तम्) = उस (अज्ञातम्) = अनितिस्वरूप (यक्ष्मम्) = रोग को (अधराञ्चम्) = [अधस्तात् अञ्चन्तम्] नीचे गति करते हुए को (परासुवामसि) = पराङ्मुख प्रेरित करते हैं। विरेचक ओषधियों के द्वारा उसे नष्ट करते हैं।

    भावार्थ

    हाथ-पैर आदि अङ्गों में, कानों व आँखों में हो जानेवाले विसर्पक रोग को विदरणस्वभाव व्रणविशेष को, हृद्रोग को तथा अज्ञात यक्ष्मरोग को भी विरेचक औषधों के प्रयोग से नष्ट करते हैं।

    विशेष

    रोगों को दूर करके यह 'अङ्गिरा बनता है-अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसबाला। यह प्रभु स्मरणपूर्वक राष्ट्र में उत्तम राज्यव्यवस्था करके कल्याण प्राप्त करता है। अङ्गिरा' ही अगले सूक्त का ऋषि है।

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    भाषार्थ

    (य ) जो (विसल्पकः) विविध अङ्गों में सर्पण करने वाला रोग (अङ्ग्यः) शरीर के अङ्गों में पैदा होता है, (वः) जो (कर्ण्यः) कानों में पैदा होता है, (यः) जो (अक्ष्योः) दो आंखों में पैदा होता है, उस (विसल्पकम्) विसल्पक रोग का (विवृहामः) हम उद्यमन अर्थात् मूलोच्छेद करते हैं तथा (विद्रथम्) विद्रथरोग को, (हृदयामयम्) हृदय के रोग को तथा (तम्) उस (अज्ञातम्) अप्रकटित लक्षणों वाले (यक्ष्मम्) यक्ष्मा रोग को, (अधराञ्चम्) जो कि अधराङ्गों में विचरता है (परा सुवामसि) हम परे प्रेरित करते हैं। षू प्रेरणे (तुदादिः)। विसल्पकम् = विसपंकम्, रलयोरभेदः। इस प्रकार के "वर्ण विकार" उच्चारण में प्रायः हो जाते हैं। वर्ण विकार को निरुक्त में "व्यापत्तिः" कहा है। व्यापत्तिः= वर्णव्यापत्तिः।

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    विषय

    कफ आदि रोगों की चिकित्सा।

    भावार्थ

    (यः विसल्लकः) जो विसर्पक रोग (अङ्ग्यः) सारे शरीर में फैल गया हो, (यः कर्ण्यः) या जो केवल कान के भीतर या ऊपर हो या (यः, अक्ष्योः) जो आंखों के बीच में आंखों पर हो ऐसे (विसल्पकम्) विसर्पक या (विद्रधम्) गिल्टी के फूल जाने के रोग को और (हृदयामयम्) हृदय की पीड़ा या रोग को (विवृहामः) विशेष रूप से समूल नाश करें। (तम् अज्ञातं यक्ष्मम्) और उस विना जाने,अलक्षित यक्ष्म= रोग कीटों से उत्पन्न रोग को भी (अधराञ्चम्) नीचे ही दबा कर (परा सुवामसि) दूर करदें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वङ्गिरा ऋषिः। वनस्पतिरुत यक्ष्मनाशनं देवता। १-२ अनुष्टुभौ त्रिपदा जगती॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma-Nashanam

    Meaning

    Whatever infection or weakness of the limbs, ears, eyes, spreading around upto the infection and weakness of the heart, we cure upto the root. And whatever consumptive disease there be, unknown, we diagnose and root out downward through diet and expurgation.

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    Translation

    The penetrating disease, pertaining to limbs, or pertaining to ears, or pertaining to eyes - that penetrating disease we drive out, as well as the haemorrage (vidradham), and the heart trouble (hrdaydmayam). We force-that unknown consumption downwards far away.

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    Translation

    O patient! We uproot out from you the piercing pain that penetrates you and racks your limbs, that pierces ears, that aches eyes, the abscess and heart diseases and I banish away and do ward from you that disease which is not known.

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    Translation

    We draw from thee piercing pain that penetrates and racks thy limbs,that pierces ears, that pierces eyes, the abscess, and the heart’s disease. Down-ward and far away from thee we banish that unknown consumption.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यः) विसल्पकः (अङ्ग्यः) शरीरावयवाच्च। पा० ४।३।५५। इति भवे यत्। अङ्गेषु हस्तपादादिषु भवः (कर्ण्यः) कर्णयोरुत्पन्नः (अक्ष्योः) अ० २।३३।१। नेत्रयोः (विसल्पकः) म० १। विसर्परोगः (विवृहामः) उन्मूलयामः (विसल्पकम्) (विद्रधम्) म० १। हृदयव्रणम् (हृदयामयम्) हृद्रोगम् (परा) दूरे (अज्ञातम्) अप्रकटम् (यक्ष्मम्) राजरोगम् (अधराञ्चम्) अधोमुखम् (सुवामसि) प्रेरयामः ॥

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