अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 129/ मन्त्र 3
यो अ॒न्धो यः पु॑नःस॒रो भगो॑ वृ॒क्षेष्वाहि॑तः। तेन॑ मा भ॒गिनं॑ कृ॒ण्वप॑ द्रा॒न्त्वरा॑तयः ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒न्ध: । य: । पु॒न॒:ऽस॒र: । भग॑: । वृ॒क्षेषु॑ । आऽहि॑त: । तेन॑ । मा॒ । भ॒गिन॑म् । कृ॒णु॒ । अप॑ । द्रा॒न्तु॒ । अरा॑तय: ॥१२९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अन्धो यः पुनःसरो भगो वृक्षेष्वाहितः। तेन मा भगिनं कृण्वप द्रान्त्वरातयः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अन्ध: । य: । पुन:ऽसर: । भग: । वृक्षेषु । आऽहित: । तेन । मा । भगिनम् । कृणु । अप । द्रान्तु । अरातय: ॥१२९.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ऐश्वर्य पाने का उपदेश।
पदार्थ
[हे परमात्मन् !] (यः) जो (अन्धः) जीवन का आधार और (यः) जो (पुनःसरः) बार-बार आगे बढ़नेवाला (भगः) ऐश्वर्य (वृक्षेषु) सब स्वीकारयोग्य पदार्थों में (आहितः) अच्छे प्रकार धारण किया गया है, (तेन) उस ऐश्वर्य से (मा) मुझको (भगिनम्) ऐश्वर्यवाला (कृणु) कर, (अरातयः) हमारे सब कंजूस स्वभाव (अप द्रान्तु) दूर भाग जावें ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर के गुणों को ध्यान करके चिरस्थायी ऐश्वर्य और सुख बढ़ावें ॥३॥
टिप्पणी
३−(यः) भगः (अन्धः) अन्धं इत्यन्ननामाध्यानीयं भवति−निरु० ५।१। अन जीवने−पचाद्यच्, धुगागमः। जीवनाधारः (पुनःसरः) अ० ४।१७।२। वारंवारं सरति प्रवर्तते यः सः (भगः) ऐश्वर्यम् (वृक्षेषु) म० २। वरणीयेषु श्रेष्ठेषु पदार्थेषु (आहितः) समन्तात् स्थापितः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
अन्धा, पुन:सरः, वृक्षाहितः
पदार्थ
१. हे प्रभो! आप (मा) = मुझे (तेन) = उस ऐश्वर्य से (भगिनं कृण) = ऐश्वर्यवाला कीजिए (यः) = जोकि (अन्धः) = मेरा भोजन बनता है [अन्धः-अन्नम्], अर्थात् वह धन दीजिए जिससे मैं भोजन जुटा सकू। (यः) = जो (पुन:सरः) = फिर गतिवाला होता है, अर्थात् मेरी पेटी में बन्द न रहकर लोकहित के कार्यों में विनियुक्त होता है [स गतौ]। (यः भगः) = जो ऐश्वर्य (वृक्षेषु) = [वश्चू छेदने] वासनाओं का दहन करनेवाले व्यक्तियों में स्थापित होता है। २. हे प्रभो! आपके अनुग्रह से (अरातयः अपदान्तु) = अदानवृत्तियाँ हमसे दूर रहें। हम इन धनों को सदा देनेवाले बनें और इसप्रकार 'वृक्ष' वासनाओं का छेदन करनेवाले बनें [वश्च छेदने, वृश्चति]। ये धन हमारे लिए वृक्ष [वृक्षते to cover] न बन जाएँ, ये हमारी बुद्धि पर पर्दा न डाल दें।
भावार्थ
प्रभु मुझे वह धन दें जिससे मैं परिवार के लिए अन्न जुटा सकूँ, लोकहित के कार्य कर सकूँ तथा वासनाओं का विच्छेद करनेवाला ही बना रहूँ।
भाषार्थ
हे इन्द्र [विद्युत्] ! (यः) जो (अन्धः भगः) अननरूपी भग अर्थात् ऐश्वर्य, तथा (यः) जो (पुनः सरः) बार-बार सरण करता हुआ आता है, जो (वृक्षेषु) वृक्षों में (आहितः) स्थित होता है, (तेन) उस द्वारा (मा) मुझे (भगिनम्) ऐश्वर्य वाला (कृणु) कर, (अप द्रान्तु अरातयः) अर्थ पूर्ववत् मन्त्र १ ॥
टिप्पणी
[यह अन्नरूपी भग है, नानाविध फल। ये ऐश्वर्यरूप हैं, और बार-बार सरण करते हुए प्रतिवर्ष वृक्षों पर जाते हैं। वर्ष के पश्चात् आते हैं, अतः इनके आने की गति को सरण करना कहा है। सरण है शनैः-शनैः गति करना, सरकना अन्धः अन्ननामः (निघं० २।७)। अन्धः = "अन" प्राणने + "धा" धारणपोषणयोः जिस द्वारा प्राण का शरीर में धारण होता, और शरीर पुष्ट होता है, वह अन्धस् है फलरूपी अन्न है।]
विषय
राजा का ऐश्वर्यमय रूप।
भावार्थ
(यः) जो (भगः) ऐश्वर्य, बल, वीर्य, यश (अन्धः) जीवन को नित्य धारण करने वाला और (यः पुनः सरः) जो बार बार प्रत्येक ऋतु में और बार बार काट लेने पर भी हरा कर देने वाला वीर्य ! (वृक्षेषु) वृक्षों में (आहितः) ईश्वरीय शक्ति से रक्खा गया है हे ईश्वर ! (तेन) उस ऐश्वर्य और वीर्य से (मां भगिनं कृणु) मुझको भी ऐश्वर्यवान् बना और (अरातयः) शत्रुगण और विपत्तियां (अप द्वान्तु) दूर भाग जायें।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘आहत’ इति निरु०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। भगो देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Good Fortune
Meaning
O Lord of glory, by that soma peace and vitality, that excellence and grandeur which is enshrined in all things loved and cherished and which grows higher and higher constantly, pray raise me to excellence and prosperity, and then let all want, misery, meanness and miserliness flee away from me.
Translation
With that blinding and recurring magnificence, which has been laid in the trees; may you make me magnificent. May enemies, not paying our dues, run away helter-skelter.
Translation
O God! make me happy and fortunate with the vigor which is the base of life, which is the invigorator of all strength and power and which is deposited in the trees and let the troubles flee away from me.
Translation
O God, make me fortunate with the vitality, support of life and overdeveloping force, Thou hast planted in all desirable objects. May all our habits of niggardliness fly and begone.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(यः) भगः (अन्धः) अन्धं इत्यन्ननामाध्यानीयं भवति−निरु० ५।१। अन जीवने−पचाद्यच्, धुगागमः। जीवनाधारः (पुनःसरः) अ० ४।१७।२। वारंवारं सरति प्रवर्तते यः सः (भगः) ऐश्वर्यम् (वृक्षेषु) म० २। वरणीयेषु श्रेष्ठेषु पदार्थेषु (आहितः) समन्तात् स्थापितः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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