Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 130 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 130/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - स्मरः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - स्मर सूक्त
    44

    यथा॒ मम॒ स्मरा॑द॒सौ नामुष्या॒हं क॒दा च॒न। देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । मम॑ । स्मरा॑त् । अ॒सौ । न । अ॒मुष्य॑ । अ॒हम् । क॒दा । च॒न । देवा॑: । प्र । हि॒णु॒त॒ । स्म॒रम् । अ॒सौ । माम् । अनु॑ । शो॒च॒तु॒ ॥१३०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा मम स्मरादसौ नामुष्याहं कदा चन। देवाः प्र हिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । मम । स्मरात् । असौ । न । अमुष्य । अहम् । कदा । चन । देवा: । प्र । हिणुत । स्मरम् । असौ । माम् । अनु । शोचतु ॥१३०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 130; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    स्मरण सामर्थ्य बढ़ाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (यथा) जिससे (असौ) वह [स्मरण सामर्थ्य] (मे) मेरा (स्मरात्) स्मरण रक्खे, और (अहम्) मैं (कदा चन) कभी भी (अमुष्य) उसको (न) न [भूल करूँ]। (देवाः) हे विद्वानो ! (स्मरम्) उस स्मरण सामर्थ्य को (प्र) अच्छे प्रकार (हिणुत) बढ़ाओ, (असौ) वह [स्मरण सामर्थ्य] (माम् अनु) मुझ में व्यापकर (शोचतु) शुद्ध रहे ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य प्रयत्नपूर्वक समस्त विद्याओं को स्मरण रख कर उपयोगी बनावे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यथा) येन प्रकारेण (मम) (स्मरात्) स्मरेत् (असौ) स्मरः (न) निषेधे (अमुष्य) स्मरस्य (अहम्) (कदा चन) कदापि [स्मरामि=स्मृणोमि] इत्यध्याहारः। स्मृ प्रीतिचलनयोः, स्वादिः। चलनं करोमि। अन्यत् पूर्ववत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    कामवासना की उत्पत्ति कहाँ

    पदार्थ

    १. (रथजिताम्) = रमण के साधनभूत पदार्थों का विजय [संग्रह] करनेवाले पुरुषों का तथा (राथजितेयीनाम्) = रमण-साधन पदार्थों को जीतनेवाले पुरुषों की (अप्सरसाम्) = इन सुन्दर स्त्रियों का अर्थ (अयं स्मर:) = यह 'काम' है। काम-वासना का सम्बन्ध इन रथजितों व राथजितेयी अप्सराओं से ही है। 'रमणसाधन पदार्थों का संग्रह व शारीरिक सौन्दर्य'काम-वासना की उत्पत्ति के साधन बनते हैं। २. हे (देवा:) = देवो! (स्मरम्) = इस 'काम' को (प्रहिणुत) = मुझसे दूर ही भेजो, (असौ माम् अनुशोचतु) = यह काम मेरा शोक करता रहे कि 'किस प्रकार उस पुरुष के हृदय में मेरा निवास था और किस प्रकार मुझे वहाँ से निकलना पड़ गया। २. (असौ) = वह काम में (स्मरतात्) = मुझे स्मरण करता रहे (इति) = बस । मे (प्रियः) = मेरा बड़ा प्रिय था, इति (स्मरतात्) = इसप्रकार मेरा स्मरण करके दुखी होता रहे। २. हे देवो! आप ऐसी कृपा करो कि (यथा) = जिससे (असौ मम स्मरतात्) = वह काम मेरा स्मरण करे, (अहं कदाचन अमुष्य न) = मैं कभी उसका स्मरण न करूँ। मुझसे वियोग के कारण 'काम' दुःखी हो। 'काम' से पृथक् होकर मैं दुःखी न हो।

    भावार्थ

    कामवासना की उत्पत्ति वहीं होती है, जहाँ रमणसाधन पदार्थों के संग्रह व सौन्दर्य की ओर झुकाव हो। देवों की कृपा से काम मुझसे दूर हो जाए। स्थान-भ्रंश के कारण 'काम' दुःखी हो। मैं कभी इस काम का स्मरण न करूँ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (यथा) जिस प्रकार (असौ) वह [पति ] (मम स्मरात्) मेरा स्मरण करे, परन्तु (महम्) मैं [पत्नी] (अमुष्य) उसका (न)(कदाचन) कभी भी [स्मरण करु], इसलिये (देवाः ......शोचतु) अर्थ पूर्ववत् मन्त्र (१)

    टिप्पणी

    [पति के दुर्व्यवहार अर्थात् गृहत्याग द्वारा प्रकुपित हुई पत्नी का कथन मन्त्र में है। पत्नी नहीं चाहती कि स्मर का उद्रेक उसमें हो ताकि वह पति का स्मरण करे। इसमें वह अपनी पराजय समझती है। इसलिये वह चाहती है कि स्मर का उद्रेक उसके पति में हो जिससे प्रेरित होकर वह गृह में वापिस लौट आए। मम स्मरात्थ कमणि षष्ठो; "अधीगर्थ" (अष्टा० २।३।५२)।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    स्त्री पुरुषों का परस्पर प्रेम और स्मरण।

    भावार्थ

    (यथा) जिस प्रकार (असौ) वह दूर देशस्थ प्रियतम, प्रेमपात्र व्यक्ति (मम स्मरात्) मुझे स्मरण करता है, क्या (अमुष्य) उसका मैं (कदाचन न) कभी स्मरण नहीं करता ? करता ही हूं। तब हे (देवाः स्मरम् प्रहिणुत) विद्वान् पुरुषो ! परस्पर याद दिलाने वाले प्रेम के भावों को जागृत करो, जिससे (असौ माम् अनुशोचतु) वह दूरस्थ देश का व्यक्ति मेरे प्रेम में दुखी हो और याद करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। स्मरो देवता। २, ३ अनुष्टुभौ। १ विराट् पुरस्ताद बृहती। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Love and Memory

    Meaning

    As that cosmic intelligence would remember me, so would I never fall off from Divinity. O divinities of nature and sagely scholars of humanity, pray invoke and promote this divine knowledge, and may that divine mind enlighten and sanctify me. (Refer also to Yajurveda 40, 15, and Ishopanishad, 17).

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    So that may so and so remember me and may I never remember so and so, O bounties of Nature, send forth the passionate love Let so and so wail for me.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Thus she may remember me and I may never forget her. Let physical forces working in the body and in the external world increase this sexual desire (in husband and wife) so that either of them may remember either.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    May memory reflect over my attainments in knowledge. May I never neglect that power of remembrance. O learned persons fully develop this power of recollection. May this memory ever remain fresh and pure in me!

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यथा) येन प्रकारेण (मम) (स्मरात्) स्मरेत् (असौ) स्मरः (न) निषेधे (अमुष्य) स्मरस्य (अहम्) (कदा चन) कदापि [स्मरामि=स्मृणोमि] इत्यध्याहारः। स्मृ प्रीतिचलनयोः, स्वादिः। चलनं करोमि। अन्यत् पूर्ववत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top