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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 140 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 140/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - उपरिष्टाज्ज्योतिष्मती त्रिष्टुप् सूक्तम् - सुमङ्गलदन्त सूक्त
    291

    व्री॒हिम॑त्तं॒ यव॑मत्त॒मथो॒ माष॒मथो॒ तिल॑म्। ए॒ष वां॑ भा॒गो निहि॑तो रत्न॒धेया॑य दन्तौ॒ मा हिं॑सिष्टं पि॒तरं॑ मा॒तरं॑ च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व्री॒हिम् । अ॒त्त॒म् । यव॑म् । अ॒त्त॒म् । अथो॒ इति॑ । माष॑म् । अथो॒ इति॑ । तिल॑म् । ए॒ष: । वा॒म् । भा॒ग: । निऽहि॑त: । र॒त्न॒ऽधेया॑य । द॒न्तौ॒ । मा । हिं॒सि॒ष्ट॒म् । पि॒तर॑म्। मा॒तर॑म् । च॒ ॥१४०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम्। एष वां भागो निहितो रत्नधेयाय दन्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    व्रीहिम् । अत्तम् । यवम् । अत्तम् । अथो इति । माषम् । अथो इति । तिलम् । एष: । वाम् । भाग: । निऽहित: । रत्नऽधेयाय । दन्तौ । मा । हिंसिष्टम् । पितरम्। मातरम् । च ॥१४०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 140; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    बालक के अन्नप्राशन का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे दाँतों की दोनों पङ्क्तियो !] (व्रीहिम्) चावल (अत्तम्) खाओ, (यवम्) जौ (अत्तम्) खाओ, (अथो) फिर (माषम्) उरद, (अथो) फिर (तिलम्) तिल [खाओ], (वाम्) तुम दोनों का (एषः) यह (भागः) भाग [चावल जौ आदि] (रत्नधेयाय) रत्नों के रखने योग्य कोश के लिये (निहितः) अत्यन्त हित है, (दन्तौ) हे ऊपर नीचे के दाँतो ! (पितरम्) बालक के पिता (च) और (मातरम्) माता को (मा हिंसिष्टम्) मत काटो ॥२॥

    भावार्थ

    माता पिता दाँत निकलने पर बालक को चावल, जौ आदि सामान्य अन्न और फिर अधिक पौष्टिक उरद आदि और चिकने तिल आदि चटावें, जिससे बालक पुष्ट होकर माता-पिता को सुख देवे और उन्नति करे ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(व्रीहिम्) इगुपधात् कित्। उ० ४।१२०। इति वृह वृद्धौ−इन्, पृषोदरादिरूपम्। आशुधान्यम् (अत्तम्) खादतम् (यवम्) यु मिश्रणामिश्रणयोः−अप्। अन्नविशेषम् (अथो) पश्चात् (माषम्) मष वधे−घञ्। अन्नविशेषम् (तिलम्) तिल स्नेहने−क। अन्नविशेषम् (एषः) व्रीहियवादिभोगः (वाम्) युवयोः (भागः) सेवनीयोंऽशः (निहितः) अत्यन्तहितः (रत्नधेयाय) रत्न+डुधाञ् यत्। रत्नधारणयोग्याय कोशाय (दन्तौ) उपरिनीचस्थदन्तगणौ (मा हिंसिष्टम्) मा पीडयतम् (पितरम्) पालकं जनकम् (मातरम्) मान्यां जननीम् (च) ॥

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    विषय

    ब्रीहि, यब, माष, तिल

    पदार्थ

    १.हे दन्तपंक्तियो! (व्रीहिम् अत्तम्) = चावल खाओ, (यवम् अत्तम) = जौ खाओ, अथो और (माषम्) = उड़द (अथो) = तथा (तिलम्) = तिल खाओ। हे (दन्तौ) = दन्तपक्तियो! (एषः) = यह ही (वाम्) = आपका (भाग:) = भाग (रत्नधेयाय) = शरीर में 'रस, रुधिर, मांस, मेदस, अस्थि, मज्जा व वीर्य' रूप सात रत्नों के धारण के लिए निहितः स्थापित किया गया है। २. हे दाँतो! आप (पितरं मातरं च) = पिता और माता को (मा हिंसिष्टम्) = हिंसित मत करो। जहाँ मातृत्व व पितृत्व का सम्भव है, वह वस्तु तुम्हारा भोजन न बने, अर्थात् तुम मांसाहार से सर्वथा दूर रहो।

    भावार्थ

    हे दाँतो! तुम्हारा भोजन 'चावल, जौ, उड़द व तिल' है। तुम्हें मांसाहार से दूर रहना है। इसी से शरीर में रस-रुधिर आदि रत्नों का स्थापन होगा।

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    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    व्याख्याः शृङ्गी मुनि कृष्ण दत्त जी महाराज-हे दांतों की पङ्क्तियों

    मुनिवरों! प्रश्न है कि मानव का आहार क्या है? मानव का आहार नाना वनस्पतियाँ, वृक्षों पर उगने वाले नाना फल हैं। पर यदि हम इस स्वाभाविक आहार को त्यागकर सिंह के हिंसामय आहार को करने लगेंगे तो हमारा जीवन तुच्छ, निकृष्ट और हीन बन जाएगा। किसी काल में कहे हुए महानन्द जी के कथन के अनुसार स्पष्ट करते हैं, कि जो मानव अपने प्राकृतिक आहारों को त्यागकर, दैत्यों या हिंसक पशुओं के और भोग योनि के आहार पर आ जाता है, तो उससे हीन या तुच्छ, इस संसार में कौन होगा, उससे अधिक अभागा कौन होगा? क्योंकि वह परमात्मा के नियम से विपरीत चलकर अपनी आत्मा को हनन कर रहा है। वास्तव में मानव को अपनी आत्मा का हनन कदापि नहीं करना चाहिए।

    मुनिवरों! अब हमारे समक्ष विचार आता है कि केवल विपरीत आहार करने से ही मानव का आत्मा हनन होता है? आहार के अतिरिक्त हम नाना प्रकार के तुच्छ कर्म करते हैं। मिथ्या उच्चारण करते हैं, क्या उनसे हमारे आत्मा का हनन नहीं होता। आज का मानव इन सब बातों पर विचार नहीं कर रहा है। वह तो पशु तुल्य आहार करके पशु बनता जा रहा है। वास्तव में जब शुद्ध आहार करते हैं, तो उससे हमारी बुद्धि निर्मल और स्वच्छ हो जाती है, हमारा अन्तःकरण पवित्र हो जाता है। वाणी यथार्थ उच्चारण करती है। वाणी भी सत्य सिद्ध होने लगती है। उस समय बौद्धिक पाप नहीं करते हैं। जब हम बौद्धिक पाप नहीं करते हैं, तो हमारा आत्मा हर प्रकार से उच्च बनता जाता है। इसलिए मानव को शुद्ध आहार करना चाहिए। हमारे वेदादि शास्त्रों ने कहा है कि हमें सदा सात्विक आहार करना चाहिए। जिससे हमारी बुद्धि सात्विक एवं बलवती होती जाती है। इसलिए मानव का आहार तो सात्विक ही होना चाहिए। तामसिक या राजसिक नहीं।

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    भाषार्थ

    [हे दो दान्तो !] (व्रीहिम्, अत्तम्) चावल खाओ, (यवम्, अत्तम्) जौं खाओ, (अथो) और (माषम्) माष को, (अथो) और (तिलम्) तिल को खाओ। (दन्तौ) हे दो दान्तो ! (रत्नधेयाय) रमणीय फल को धारण करने के लिये, (वाम्) तुम दो के लिये, (एषः, भागः) यह भाग (निहितः) स्थापित किया है, (पितरम्, मातरम् च) और पितृशक्ति सम्पन्न तथा मातृशक्ति सम्पन्न प्राणियों की (मा हिंसिष्टम्) [खाने के लिये] हिंसा न करो।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Teething Trouble

    Meaning

    Eat rice, eat barley, and eat sesame and lentils, this is your treasure-share ordained by nature, O teeth, do not hurt father and mother.

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    Translation

    May you eat rice (vrihi); may you eat barley (yava), also black beans (masa) and sesamum (tila). This is the share allotted to both of you for happy result. O you two teeth (dantau), may you not injure the father and the mother.

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    Translation

    Let both of these teeth eat rice, let them eat barley, let them eat beans and sesamum, this share allotted to be their Portion and let not them harm father and mother.

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    Translation

    Let rice and barley be your food, and also beans and sesamum. This is the share allotted you, to make you shine like jewels, ye two teeth, harm not your mother and your sire.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(व्रीहिम्) इगुपधात् कित्। उ० ४।१२०। इति वृह वृद्धौ−इन्, पृषोदरादिरूपम्। आशुधान्यम् (अत्तम्) खादतम् (यवम्) यु मिश्रणामिश्रणयोः−अप्। अन्नविशेषम् (अथो) पश्चात् (माषम्) मष वधे−घञ्। अन्नविशेषम् (तिलम्) तिल स्नेहने−क। अन्नविशेषम् (एषः) व्रीहियवादिभोगः (वाम्) युवयोः (भागः) सेवनीयोंऽशः (निहितः) अत्यन्तहितः (रत्नधेयाय) रत्न+डुधाञ् यत्। रत्नधारणयोग्याय कोशाय (दन्तौ) उपरिनीचस्थदन्तगणौ (मा हिंसिष्टम्) मा पीडयतम् (पितरम्) पालकं जनकम् (मातरम्) मान्यां जननीम् (च) ॥

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