अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 3
ऋषिः - भृग्वङ्गिरा
देवता - यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - सतःपङ्क्तिः
सूक्तम् - यक्ष्मानाशन सूक्त
79
अ॒यं यो अ॑भिशोचयि॒ष्णुर्विश्वा॑ रू॒पाणि॒ हरि॑ता कृ॒णोषि॑। तस्मै॑ तेऽरु॒णाय॑ ब॒भ्रवे॒ नमः॑ कृणोमि॒ वन्या॑य त॒क्मने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । य:। अ॒भि॒ऽशो॒च॒यि॒ष्णु: । विश्वा॑ । रू॒पाणि॑ । हरि॑ता । कृ॒णोषि॑ । तस्मै॑ । ते॒ । अ॒रु॒णाय॑ । ब॒भ्रवे॑ । नम॑: । कृ॒णो॒मि॒ । वन्या॑य । त॒क्मने॑ ॥२०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं यो अभिशोचयिष्णुर्विश्वा रूपाणि हरिता कृणोषि। तस्मै तेऽरुणाय बभ्रवे नमः कृणोमि वन्याय तक्मने ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । य:। अभिऽशोचयिष्णु: । विश्वा । रूपाणि । हरिता । कृणोषि । तस्मै । ते । अरुणाय । बभ्रवे । नम: । कृणोमि । वन्याय । तक्मने ॥२०.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रोग के नाश के लिये उपदेश।
पदार्थ
(अयम्) यह (यः) जो (अभिशोचयिष्णुः) बहुत ही शोक में डालनेवाला तू (विश्वा) सब (रूपाणि) रूपों को (हरिता) हरे वा पीले (कृणोषि) कर देता है। (तस्मै) उस (ते) तुझ (अरुणाय) रक्त, (बभ्रवे) भूरे और (वन्याय) बनैले (तक्मने) दुःखित जीवन करनेवाले ज्वर को (नमः) नमस्कार (कृणोमि) करता हूँ ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य सावधान रहकर रुधिर विकार आदि से उत्पन्न दुष्ट ज्वर आदि रोगों से बचकर सदा हृष्ट-पुष्ट रहें ॥३॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
३−(अयम्) निर्दिष्टः (य) तक्मा (अभिशोचयिष्णुः) णेश्छन्दसि। पा० ३।२।१३७। इति शुच शोके−इष्णुच्। सर्वत शोकमुत्पादयन् (विश्वा) सर्वाणि (रूपाणि) सौन्दर्याणि (हरिता) हृञ् हरणे−इतच्। रक्तदूषणेन नीलपीतमिश्रितवर्णानि हरिद्रावर्णानि वा (कृणोषि) करोषि। (तस्मै) तादृशाय (ते) तुभ्यम् (अरुणाय) रक्तवर्णाय (बभ्रवे) पिङ्गलवर्णाय (नमः) नमस्कारम् (कृणोमि) करोमि (वन्याय) वने भवाय (तक्मने) म० १। कृच्छजीवनकारिणे ज्वराय ॥
विषय
अभिशोचयिष्णुः
पदार्थ
१. (अयं यः) = यह जो (अभिशोचयिष्णु:) = शोक को बढ़ानेवाला रोग है, वह तू (विश्वा रूपाणि) = सब रूपों को (हरिता कणोषि) = पीला-सा-निस्तेज-सा कर देता है। इस पीलिया के रोगी को सब वस्तुएँ पीली-पीली-सी दिखने लगती हैं। २. (तस्मै) = उस (ते) = तेरे लिए जो तू (अरुणाय बभ्रवे) = लाल व भूरे रङ्ग का है-जो तू रोगी को ज्वर-वेग में लाल-सा व भूरा-सा कर देता है, उस तुझ (वन्याय तक्मने) = वन में [मच्छरों की अधिकता से] उत्पन्न हो जानेवाले ज्वर के लिए (नमः कृणोमि) = हम दूर से ही नमस्कार करते हैं।
भावार्थ
ज्वर हमें शोक-सन्तस करता है, दृष्टि को विकृत कर हमारे लिए सब रूपों को पीला-सा कर देता है । वन्यभूमि में उत्पन्न होनेवाले इस ज्वर से हम बचने का उपाय करते हैं।
विशेष
उचित औषध-प्रयोग से ज्वर को शान्त करके शान्ति का विस्तार करनेवाला 'शन्ताति' अगले चार सूक्तों का ऋषि है।
भाषार्थ
(अयम्, यः) यह जो तू (अभिशोचयिष्णुः) शरीर के सब ओर उपताप पैदा करने वाला (विश्वा रूपाणि) शरीर के सब रूपों को (हरिता=हरितानि ) हरे-पीले (कृणोषि ) कर देता है, ( तस्मै ) उस ( अरुणाय ) लाल और (बभ्रवे) भूरे (वन्याय) वनोद्भुत (ते तक्मने) तुझ पित्तज्वर के लिये (नमः) पथ्यान्न तथा औषध-वज्र प्रहार ( कृणोमि ) मैं करता हूँ।
टिप्पणी
[पित्तज्वर में पित्त के बिगड़ जाने के कारण शरीर हरा पीला, मुख-लाल, कभी भुरा, इन भिन्न-भिन्न वर्णों का हो जाता है। वन्य ज्वर उग्ररूप होता है। वैदिक मान्यतानुसार पिण्ड अथवा ब्रह्माण्ड में समानता है, "यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे" यह उक्ति प्रसिद्ध है । पिण्ड है जीवात्मा का देह, और ब्रह्माण्ड है परम-आत्मा का देह । मन्त्र १ में परम-आत्मा को रुद्र कहा है। जैसे पिण्ड और पिण्ड के अवयवों का शासन जीवात्मा द्वारा होता है, वैसे ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड के अवयवों का शासन रुद्र अर्थात् पापों के फलरूप में रुलाने वाले परम-आत्मा द्वारा होता है। जैसे जीवित देहपिण्ड और पिण्ड के अवयवों के प्रति सत्कार और नमस्कार किया जाता है, वैसे परम-आत्मा के ब्रह्माण्ड-देह, और तद्घटक अवयवों के प्रति सत्कार और नमस्कार विधान मन्त्रों में प्रायः पाया जाता है । परमात्मा का वर्णन इसलिये पुरुष-रूप में भी होता है। इस पुरुष के शरीरावयवों का भी वर्णन यजुर्वेद के पुरुष सूक्त ३१ में हुआ है (३१।१०,१३) यद्यपि यह वर्णन काल्पनिक हुआ है, यथा "व्यकल्पयन् अकल्पयन्" (यजु. (३१।१०,१३)। तथापि यह सप्रयोजन और सार्थक है, यह दर्शाने के लिये कि जैसे जीवित मनुष्य का देह सात्मक है, निरात्मक नहीं, वैसे परमात्मा का ब्रह्माण्डरूपी देह भी सात्मक है, निरात्मक नहीं। इस दृष्टि से ब्रह्माण्ड के अवयवों के प्रति "नमः" अर्थात् नमस्कारों का कथन भी उचित ही प्रतीत होता है।]
विषय
ज्वर का निदान और चिकित्सा।
भावार्थ
(अयम्) यह (यः) जो (अभिशोचयिष्णुः) सब को सब प्रकार से शोकित और पीड़ित करनेवाला उवर है, जो (विश्वा रूपाणि) सब शरीरों को (हरिता) पीला (कृणोषि) कर देता है। (ते) तेरे (तस्मै) उस (अरुणाय) लाल और (बभ्रवे) भूरे रंगवाले (वन्याय) जंगल में पैदा हुए (तक्मने) कष्टदायी बुखार की (नमः कृणोमि) मैं चिकित्सा करता हूं॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वंगिरा ऋषिः। यक्ष्मनाशनं देवता। १ अति जगती। २ ककुम्मती प्रस्तारे पंक्तिः। ३ सतः पक्तिः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Takma-Nashanam
Meaning
O fever, intense and aglow like fire, which reduces all patients to pallour and anaemia, to red and brown, I offer the homage of treatment and medication, for the wild fever.
Translation
You, who burning vehemently, make all the faces pale, to you, red and brown, the forest-fever, I bow in reverence. (Vanyay-takmane=forest fever)
Translation
I drive away that jungle-fever which aglow with heat heatens the whole body of patient and makes him see everything green and which is red and yellow.
Translation
O fever, thou, causing excruciating pain, makest all bodies pale. Thee, red, brown, prevalent in densely wooded places, I eradicate!
Footnote
I:physician.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(अयम्) निर्दिष्टः (य) तक्मा (अभिशोचयिष्णुः) णेश्छन्दसि। पा० ३।२।१३७। इति शुच शोके−इष्णुच्। सर्वत शोकमुत्पादयन् (विश्वा) सर्वाणि (रूपाणि) सौन्दर्याणि (हरिता) हृञ् हरणे−इतच्। रक्तदूषणेन नीलपीतमिश्रितवर्णानि हरिद्रावर्णानि वा (कृणोषि) करोषि। (तस्मै) तादृशाय (ते) तुभ्यम् (अरुणाय) रक्तवर्णाय (बभ्रवे) पिङ्गलवर्णाय (नमः) नमस्कारम् (कृणोमि) करोमि (वन्याय) वने भवाय (तक्मने) म० १। कृच्छजीवनकारिणे ज्वराय ॥
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