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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भृगु देवता - यमः, निर्ऋतिः छन्दः - विराड्गायत्री सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त
    42

    यौ ते॑ दू॒तौ नि॑रृत इ॒दमे॒तोऽप्र॑हितौ॒ प्रहि॑तौ वा गृ॒हं नः॑। क॑पोतोलू॒काभ्या॒मप॑दं॒ तद॑स्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यौ । ते॒ । दू॒तौ । नि॒:ऽऋ॒ते॒ । इ॒दम् । आ॒ऽइ॒त: । अप्र॑ऽहितौ । प्रऽहि॑तौ । वा॒ । गृ॒हम् । न॒: ।क॒पो॒त॒ऽउ॒लू॒काभ्या॑म् । अप॑दम् । तत् । अ॒स्तु॒ ॥ ॥२९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यौ ते दूतौ निरृत इदमेतोऽप्रहितौ प्रहितौ वा गृहं नः। कपोतोलूकाभ्यामपदं तदस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यौ । ते । दूतौ । नि:ऽऋते । इदम् । आऽइत: । अप्रऽहितौ । प्रऽहितौ । वा । गृहम् । न: ।कपोतऽउलूकाभ्याम् । अपदम् । तत् । अस्तु ॥ ॥२९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 29; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शुभ गुण ग्रहण करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (निर्ऋते) हे नित्य मङ्गल देनेवाले परमेश्वर ! (यौ) जो (अप्रहितौ) अहित करनेवाले (वा) और (प्रहितौ) हित करनेवाले (ते) तेरे (दूतौ) विज्ञान करानेवाले दोनों गुण (नः) हमारे (इदम्) इस (गृहम्) घर में (आ−इतः) आते हैं। (कपोतोलूकाभ्याम्) उन विज्ञान से स्तुति के योग्य और अज्ञान से ढकनेवाले गुणों द्वारा (तत्) विस्तृत ब्रह्म (अपदम्) न प्राप्ति योग्य दुःख को (अस्तु=अस्यतु) गिरा देवे ॥२॥

    भावार्थ

    विद्वान् पुरुष परमेश्वर की व्यवस्था से सुख और दुःख दोनों का अनुभव करके सुख के मूल सुकर्म का ग्रहण, और दुःख के कारण कुकर्म का त्याग करें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यौ) (ते) त्वदीयौ (दूतौ) दूतो विज्ञापकः−दयानन्दभाष्ये, ऋग्० १।७२।७। विज्ञापकौ गुणौ (निर्ऋते) ऋ गतौ−क्तिन्। नितरां ऋतिर्मङ्गलं कल्याणं यस्मात्सः। हे नित्यसुखप्रद परमेश्वर ! निर्ऋतिः पृथिवीनाम्−निघ० १।१। (इदम्) (एतः) आगच्छतः (अप्रहितौ) अप्रीतिकरौ (प्रहितौ) हितकारकौ (वा) समुच्चये (गृहम्) निवासम् (नः) अस्माकम् (कपोतोलूकाभ्याम्) कपोतो विज्ञानेन स्तुत्या गुणः−सू० २७।१। उलूकः, अज्ञानेनाच्छादको गुणः−म० १। ताभ्यां द्वाभ्याम् (अपदम्) अप्रापणीयं दुःखम् (तत्) त्यजितनि। उ० १।१३२। इति तनु−अदि, स च डित्। विस्तृतं ब्रह्म (अस्तु) अदादित्वं छान्दसम्। अस्यतु क्षिपतु ॥

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    विषय

    निरृति के दो दूत

    पदार्थ

    १. शरीर में 'रोग' तथा मन में 'काम-क्रोध' निति [दुर्गति] के दो दूत हैं। हे निते दुर्गते! (यौ) = जो (ते) = तेरे (दूतौ) = रोग व वासनारूप दूत (अप्रहितौ) = अत्यन्त [प्र] अहितकर हैं (वा) = और (प्रहितौ) = किन्हीं कर्मफलों के रूप में भेजे हुए ये दूत (इदं नः गृहम्) = इस हमारे घर को (एत:) = प्राप्त होते है। (कपोत+उलूकाभ्याम्) = आनन्द के पोत प्रभु के द्वारा तथा प्रभु के साथ मेल करनेवाले स्तोता के द्वारा (तत्) = वह (अपदम् अस्तु) = पैर जमालेनेवाला न हो-हमारे शरीररूप गृह में रोग व वासनाएँ दृढ़मूल न हो जाएँ। २. इसका उपाय यही है कि हम उस आनन्द के पोत प्रभु से अपना मेल बनाएँ। प्रभु कपोत हैं तो मैं उलूक बनें। बस, फिर यहाँ निति के दूतों की जड़ न जम पाएगी।

    भावार्थ

    प्रभु-स्मरण करते हुए हम रोगों व वासनाओं से अपने को बचा पाएँ।

     

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    भाषार्थ

    (निर्ऋते) हे कृच्छ्रापत्ति ! (ते) तेरे ( यौ) जो दो ( दूतौ) उपतापी दूत (प्रहितौ) शन्नु द्वारा प्रेषित, (वा) या (अप्रहितौ) स्वयमागत हुए, (नः) हमारे (इदम्) इस (गृहम् ) घर अर्थात् राष्ट्र के प्रति ( एतः ) आए हैं, उन (कपोतोलूकाभ्याम् ) वायुयान और उस के सञ्चालक के लिये (तद्) वह हमारा राष्ट्र (अपदम्) अनाश्रयभूत (अस्तु) हो। अपदम् = अ+पद गतौ= आने-जाने का स्थान न हो।

    टिप्पणी

    [कृच्छ्रापत्ति है युद्धावस्था। इस अवस्था के कारण शत्रुराष्ट्र द्वारा भेजे गए, या स्वयमेव भेद लेने के लिए आए, वायुयान और उसके सञ्चालक को निज राष्ट्र में आश्रय न देना चाहिये। वायुयान के सञ्चालक को उल्लू कहा है। क्योंकि हमारी शक्ति को जाने विना वह हमारे राष्ट्र में आया है। हमारी शक्ति का कथन (मन्त्र ३) में हुआ है। निर्ऋतिः= निरम्णात्, ऋच्छतेः कृच्छ्रापत्तिः (निरुक्त २।२।८)। दूतौ = टुदु उपतापे (स्वादिः)।

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    विषय

    राजदूतों के व्यवहार

    भावार्थ

    हे (निर्ऋते) विपत्ते ! (ते) तेरे (यौ दूतौ) जो दो प्रकार के दूत (इदम् नः गृहं) इस हमारे घर पर (अप्रहितौ) बिना भेजे या (प्र-हितौ) भेजे हुए (एतः) आते हैं (तत्) तब, उस समय जब कि पूर्वोक्त प्रकार से सेना का आक्रमण हो जाय तब हमारा गृह (कपोत-उलूकाभ्याम्) मूर्ख और बुद्धिमान् दोनों प्रकार के दूत पुरुषों के लिए (अपदम् अस्तु) आश्रय के लिये न हो। अर्थात् उस समय हम शत्रु के भले बुरे किसी भी प्रकार के राजदूत को आश्रय नहीं दें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। यमो निर्ऋतिश्च देवते। १-२ विराड् नामगायत्री। ३ त्र्यवसाना सप्तपदा विराडष्टिः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Response to Adversaries

    Meaning

    O Nir-rti, adversity of will and intelligence, when those two messengers of yours, the one authorized and directed and the other unauthorized and undirected, one the Kapota, clever master of ambiguity, the other Uluka, master of darkness and camouflage, come to our land, our home would not be for them, beyond their reach.

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    Translation

    These two messenger of yours, O perdition (nir-rti), whether sent or not sent by you, Come to our house, may that house remain free from the tracks of the pigeon and the owl.

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    Translation

    Let not our home be the resort of the misery brought by the pigeon and owl which are the messenger of the destruction and are sent or not sent to our house.

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    Translation

    O ever-gladdening God, Thy powers of punishment and reward, visit this dwelling of ours, May the Vast God throw away our unsavory affliction, through His praiseworthy knowledge and power of preservation from ignorance!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यौ) (ते) त्वदीयौ (दूतौ) दूतो विज्ञापकः−दयानन्दभाष्ये, ऋग्० १।७२।७। विज्ञापकौ गुणौ (निर्ऋते) ऋ गतौ−क्तिन्। नितरां ऋतिर्मङ्गलं कल्याणं यस्मात्सः। हे नित्यसुखप्रद परमेश्वर ! निर्ऋतिः पृथिवीनाम्−निघ० १।१। (इदम्) (एतः) आगच्छतः (अप्रहितौ) अप्रीतिकरौ (प्रहितौ) हितकारकौ (वा) समुच्चये (गृहम्) निवासम् (नः) अस्माकम् (कपोतोलूकाभ्याम्) कपोतो विज्ञानेन स्तुत्या गुणः−सू० २७।१। उलूकः, अज्ञानेनाच्छादको गुणः−म० १। ताभ्यां द्वाभ्याम् (अपदम्) अप्रापणीयं दुःखम् (तत्) त्यजितनि। उ० १।१३२। इति तनु−अदि, स च डित्। विस्तृतं ब्रह्म (अस्तु) अदादित्वं छान्दसम्। अस्यतु क्षिपतु ॥

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