अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 2
यस्ते॒ मदो॑ऽवके॒शो वि॑के॒शो येना॑भि॒हस्यं॒ पुरु॑षं कृ॒णोषि॑। आ॒रात्त्वद॒न्या वना॑नि वृक्षि॒ त्वं श॑मि श॒तव॑ल्शा॒ वि रो॑ह ॥
स्वर सहित पद पाठय:। ते॒ । मद॑: । अ॒व॒ऽके॒श: । वि॒ऽके॒श: । येन॑ । अ॒भि॒ऽहस्य॑म् । पुरु॑षम् । कृ॒णोषि॑ । आ॒रात् । त्वत् । अ॒न्या । वना॑नि । वृ॒क्षि॒ । त्वम् । श॒मि॒ । श॒तऽव॑ल्शा । वि । रो॒ह॒ ॥३०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते मदोऽवकेशो विकेशो येनाभिहस्यं पुरुषं कृणोषि। आरात्त्वदन्या वनानि वृक्षि त्वं शमि शतवल्शा वि रोह ॥
स्वर रहित पद पाठय:। ते । मद: । अवऽकेश: । विऽकेश: । येन । अभिऽहस्यम् । पुरुषम् । कृणोषि । आरात् । त्वत् । अन्या । वनानि । वृक्षि । त्वम् । शमि । शतऽवल्शा । वि । रोह ॥३०.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्या के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(शमि) हे शान्ति करनेवाली [सरस्वती !] (यः) जो (ते) तेरा (मदः) आनन्द (अवकेशः) शुद्ध प्रकाशवाला और (विकेशः) विविध प्रकाशवाला है, (येन) जिससे (पुरुषम्) पुरुष को (अभिहस्यम्) बड़ा खिलने योग्य (कृणोषि) तू करती है। (त्वत्) तुझ से (अन्या) भिन्न [अविद्यारूप] (वनानि) माँगने के कर्मों को (आरात्) दूर (वृक्षि) मैंने छोड़ दिया है। (त्वम्) तू (शतवल्शा) सैकड़ों अङ्कुर वा शाखावाली होकर (वि) विविध प्रकार से (रोह) प्रकट हो ॥२॥
भावार्थ
योगी जन विद्या की प्राप्ति से अज्ञान को मिटा कर “ऋतम्भरा” बुद्धि द्वारा अनेक सुख पाते हैं ॥२॥
टिप्पणी
२−(यः) (ते) तव (मदः) हर्ष (अवकेशः) केशी केशा रश्मयस्तैस्तद्वान् भवति काशनाद् वा प्रकाशनाद्वा−निरु० १२।२५। शुद्धप्रकाशः (विकेशः) विविधप्रकाशः (येन) मदेन (अभिहस्यम्) हस विकशने−यत्। अभितो हसनीयं विकाशनीयम् (पुरुषम्) (कृणोषि) करोषि (आरात्) दूरे (त्वत्) त्वत्तः (अन्या) अन्यानि। विरुद्धानि। अविद्यारूपाणि (वनानि) वनु याचने−ल्युट्। याचनानि (वृक्षि) वृजी वर्जने−लुङ् अडभावः। छन्दस्युभयथा। पा० ३।४।११७। इति सार्वधातुकत्वात् इटो निषेधः। अवर्जिषि। अहं वर्जितवान् अस्मि (त्वम्) (शमि) अ० ६।११। हे शान्तिकरि सरस्वति (शतवल्शा) वल संवरणे−शक्। बह्वङ्कुरा बहुशाखा सती (वि) विविधम् (रोह) प्रादुर्भव ॥
विषय
शमी
पदार्थ
१. हे (शामि) = शमीवृक्ष! (यः) = जो (ते) = तेरा (मदः) = आनन्ददायक रस है, वह अवकेश:-बालों को बढ़ानेवाला है, प्रयोक्ता को लम्बे लटकते हुए बालोंवाला बनाता है, विकेश:-यह उसे विशिष्ट केशोंवाला बनाता है। येन-क्योंकि तू अपने रस से पुरुषम्-पुरुष को अभिहस्यम्-शरीर व बुद्धि. दोनों दृष्टिकोणों से [अभि] विकासवाला [हस] कृणोषि-करता है, अत: त्वत् अन्य:-तुझसे भिन्न वनानि-वृक्षों को आरात् वृक्षि-दूर-दूर तक काट डालता हूँ। २. हे शमि! त्वम्-तू अब शतवल्शा विरोह-सैकड़ों शाखाओंवाली होती हुई विशिष्टरूप से प्रादुर्भूत हो।
भावार्थ
शमीवृक्ष का रस मानव शक्तियों के विकास के लिए उपयोगी है, अत: शमीवृक्ष के आसपास के अन्य वृक्षों को काटकर इसके विकास के लिए यत्नशील होना चाहिए।
भाषार्थ
[शमी अर्थात् शान्त स्वभाव वाली स्त्री] (यः) जो (ते) तेरा ( मद : ) मादक स्वरूप है, (येन) जिस द्वारा (अवकेशः) जो मुण्डित केशों वाला और (विकेशः) विकीर्ण केशों वाला है उस (पुरुषम्) पुरुष को भी तू (अभिहस्यम्) हास्यास्पद (कृणोषि) कर देती है; इसलिये (त्वत् आरात्) तेरे समीवपर्ती जो (अन्या वनानि) और संभोग याचक उन को (वृक्षि) मैं छिन्न भिन्न कर देता हूं, (शमि) हे शान्त प्रकृति वाली ! (त्वम् ) तू (शतवल्शा) सैकड़ों शाखा वाली लता के सदृश (विरोह) विविध रूप में बढ़।
टिप्पणी
[शमी द्वारा शान्त स्वभाव वाली गृहिणी का भी वर्णन होता है (अथर्व ६।११।१)। अवकेश है संन्यासी, ओर विकर्णकेश है मुनि, सम्भवतः बानप्रस्थी। पूर्णसंयमी न होने की अवस्था में ये भी ऐन्द्रियिक भोग के वशीभूत हो जाते हैं। ऐसी अवस्था में संभोग-याचकों का छेदन आवश्यक ही होता है। वनानि= वनु याचने (तनादिः)। ऐसे लोग अवाञ्छतीय वनों के सदृश उच्छिन्न करने योग्य होते हैं । ऐसे लोगों के सम्बन्ध में कहा है कि "बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कषति" (मनु० २।२१५)] अथवा मन्त्र (३) से ज्ञात होता है कि शमी-लता या वृक्ष केशवर्धक है। यह केशवर्धन भी एक प्रकार का मद है जिसका सम्बन्ध शमी के साथ है । केशों को बढ़ा कर यदि पुरुष अवकेश हो जाता है, अर्थात् केशों को नीचे की ओर लटकाए रखता है, या विकेश रूप में केशों को विकीर्ण रूप में रखता है तो सर्वसाधारण की दृष्टि में वह उपहास-योग्य हो जाता है। वैदिक दृष्टि में मुण्डित केशों वाला मुख शोभा योग्य होता है। यथा– यत् क्षुरेण मर्चयता सुतेजसा वप्ता वपसि केशश्मश्रु। शुभं मुखं मा न आयुः प्र मोषीः॥ (अथर्व० ८।२।१७) [मन्त्र उपनयन-कर्म सम्बन्धी है]।
विषय
राजा के कर्त्तव्य
भावार्थ
शमी वृक्ष के दृष्टान्त से राजा के कर्त्तव्यों का उपदेश करते हैं। हे शमि ! शत्रुओं को शमन करने हारी शक्ति ! शमी के मद या रस के समान (ते) तेरा (यः) जो (मदः) हर्ष या उन्माद (अव-केशः) बालों को खोलने वाला (वि-केशः) या बालों को विकृत कर देने वाला है जिससे तू (पुरुषं अभिहस्यं कृणोषि) पुरुष को उपहास का पात्र बना देती है हे शमि ! उस मद से (शत-वल्शा) सैकड़ों शाखावाली होकर (त्वं) तू शमी वृक्ष के समान ही (विरोह) बढ़। (त्वत् आरात्) तेरे पास से (अन्या वनानि) और वृक्षों के समान उच्छेद करने योग्य विरोधी राजाओं को (वृक्षि) काट डालता हूं। राजा का मद अपने अधीन आए शत्रु की चाहे तो इतनी दुर्दशा करे उसके बाल खुलवादे या मूंड दे और उसको सबका उपहासका पात्र बनादे। मन्त्री आस पास के और राजाओं का नाश कर राजा को मुख्य बनाता है और सब राज्य प्रबन्ध को, राजा को मूल में रखकर, उसके शाखा रूप में रख देता है। इससे राज्य की शक्ति बढ़ती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उपरिबभ्रव ऋषिः। शमी देवता। १ जगती। २ त्रिष्टुप्। ३ चतुष्पदा ककुम्मती अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Shami the Sanative
Meaning
O Shami, exhilarating is your juice which gives a man long loose hanging and dishevelled hair by which you make the man smile with pleasure. I remove the plants growing close around so that you grow luxuriant with a hundred branches.
Translation
The intoxication is yours, which: makes hair grow and increase and which enables a man to smile. I-cut off other trees from your proximity. O Sami, (Mimosa Suma), may you grow up with hundreds of branches.
Translation
Let the tree of Shhmi (Prosopis spicigera or Acacia Suma), whose juice scatters the hair or makes the hair fall and subjects a man to laughter (if used) grow up with hundred of branches and to this end I, the student of botany axe down all other trees which are growing in its nearest vicinity.
Translation
O solace-bestowing Vedic knowledge, thy joy is explicit and manifold in luster, wherewith thou fillest a man with laughter and pleasure I keep away far from thee suppliant acts of unwisdom. May thou, O Vedic knowledge, grow up with a hundred branches!
Footnote
Hundred branches: Different sorts of sciences and branches of knowledge. Yogis attain happiness by spreading knowledge and dispelling ignorance.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(यः) (ते) तव (मदः) हर्ष (अवकेशः) केशी केशा रश्मयस्तैस्तद्वान् भवति काशनाद् वा प्रकाशनाद्वा−निरु० १२।२५। शुद्धप्रकाशः (विकेशः) विविधप्रकाशः (येन) मदेन (अभिहस्यम्) हस विकशने−यत्। अभितो हसनीयं विकाशनीयम् (पुरुषम्) (कृणोषि) करोषि (आरात्) दूरे (त्वत्) त्वत्तः (अन्या) अन्यानि। विरुद्धानि। अविद्यारूपाणि (वनानि) वनु याचने−ल्युट्। याचनानि (वृक्षि) वृजी वर्जने−लुङ् अडभावः। छन्दस्युभयथा। पा० ३।४।११७। इति सार्वधातुकत्वात् इटो निषेधः। अवर्जिषि। अहं वर्जितवान् अस्मि (त्वम्) (शमि) अ० ६।११। हे शान्तिकरि सरस्वति (शतवल्शा) वल संवरणे−शक्। बह्वङ्कुरा बहुशाखा सती (वि) विविधम् (रोह) प्रादुर्भव ॥
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