अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 2
अ॒न्तश्च॑रति रोच॒ना अ॒स्य प्रा॒णाद॑पान॒तः। व्यख्यन्महि॒षः स्वः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्त: । च॒र॒ति॒ । रो॒च॒ना । अ॒स्य । प्रा॒णात् । अ॒पा॒न॒त: । वि । अ॒ख्य॒त् । म॒हि॒ष: । स्व᳡: ॥३१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तश्चरति रोचना अस्य प्राणादपानतः। व्यख्यन्महिषः स्वः ॥
स्वर रहित पद पाठअन्त: । चरति । रोचना । अस्य । प्राणात् । अपानत: । वि । अख्यत् । महिष: । स्व: ॥३१.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सूर्य वा भूमि के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(प्राणात्) भीतर की श्वास के पीछे (अपानतः) बाहर को श्वास निकालते हुए (अस्य) इस [सूर्य] की (रोचना) रोचक ज्योति (अन्तः) [जगत् के] भीतर (चरति) चलती है, और वह (महिषः) बड़ा सूर्य्य (स्वः) आकाश को (वि) विविध प्रकार (अन्यत्) प्रकाशित करता है ॥२॥
भावार्थ
जैसे सब प्राणी श्वास-प्रश्वास से जीवित रह कर चेष्टा करते हैं, वैसे ही सूर्य प्रकाश का ग्रहण और त्याग करके लोकों को प्रकाशित करता है ॥२॥ महर्षि दयानन्दकृत भाष्य, यजुर्वेद ३।७। “(प्राणात्) ब्रह्माण्ड और शरीर के बीच में ऊपर जानेवाले वायु से (अपानतः) नीचे को जानेवाले वायु को उत्पन्न करते हुए (अस्य) इस अग्नि की (रोचना) दीप्ति अर्थात् बिजुली (अन्तः) ब्रह्माण्ड और शरीर के मध्य (चरति) चलती है, वह (महिषः) अपने गुणों से बड़ा अग्नि (स्वः) सूर्य लोक को (व्यख्यत्) प्रकट करता है” ॥२॥ सब प्राणियों के भीतर रहनेवाली अग्नि की कान्ति बिजुली प्राण और अपान के साथ मिलकर सब चेष्टाओं को सिद्ध करती है ॥
टिप्पणी
२−(अन्तः) लोकमध्ये (चरति) गच्छति (रोचना) कान्तिः (अस्य) पृश्नेः−म० १। सूर्यस्य (प्राणात्) श्वासव्यापारादनन्तरम् (अपानतः) प्रश्वासं कुर्वतः (वि) विविधम् (अख्यत्) ख्या प्रकथने−लडर्थे लुङ्, अन्तर्गतण्यर्थः। ख्यापयति प्रकाशयति (महिषः) अ० २।३५।४। महान् सूर्यः (स्वः) आकाशम् ॥
विषय
महिषः
पदार्थ
१. (प्राणात्) = प्राण से और (अपानतः) = अपान से, अर्थात् प्राणापान की साधना के द्वारा (अस्य) = इस साधक के (अन्त:) = अन्दर-हदयदेश में (रोचना) = दीसि (चरति) = विचरती है। प्राणायाम द्वारा इसका अन्त:करण दीस हो उठता है। २. यह (महिष:) = प्रभुपूजन करनेवाला साधक (स्वः) = स्वयं देदीप्यमान ज्योति प्रभु को (व्यख्यत्) = देखता है। यह ज्ञानदीत हृदय में प्रभु के प्रकाश को देखनेवाला होता है।
भावार्थ
हम प्राणसाधना द्वारा दीस हृदयदेश में प्रभु की ज्योति को देखनेवाले बनें।
भाषार्थ
(महिषः) महान्, (स्वः) उत्तप्त सूर्य (व्यख्यत्) विविध ग्रह- उपग्रह आदि को प्रकाशित कर रहा है, (अस्य) इस सूर्य की ( रोचना ) दीप्ति अर्थात् प्रकाश (अन्तः ) पृथिवीलोक के भीतर (चरति) विचरती है, (प्राणात्, अपानतः) और अपान क्रिया के पश्चात् प्राण क्रिया करती है।
टिप्पणी
[व्यख्यत् = विविध लोकों को प्रख्यात कर रही है। रात्री में सूर्य के प्रकाश का न होना, अपान क्रिया है, तत्पश्चात् दिन में सूर्य के प्रकाश का पुनः आ जाना प्राणक्रिया है। प्रलयावस्था में अन्धकार था, सूर्य के प्रकाश का अभाव था, यह अपानक्रिया थी, तत्पश्चात् सर्जन काल में सूर्य के पैदा हो जाने से पुथिवी आदि में सूर्य के प्रकाश का प्रवेश होना प्राणक्रिया हुई। सूर्य का प्रकाश ही चन्द्रमा को भी प्रदीप्त करता है।]
विषय
सूर्यादि लोक-परिभ्रमण।
भावार्थ
(प्राणादपानतः) प्राण और अपान की क्रिया करने वाले प्राणियों के (अन्तः) अन्दर (अस्य) इस सूर्य का (रोचना) प्रकाश और ताप (चरति) विचरता है। (महिषः) वह महान् सूर्य (स्वः) अन्तरिक्षलोक तथा द्युलोक को भी (व्यख्यत्) प्रकाशित करता है।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘अस्य प्राणादपानती’ (तृ०) ‘महिषो दिवम्’ इति यजुः, साम०, ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उपरिबभ्रव ऋषिः। गौर्दैवता। गायत्रं छन्दः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Sun, Planets and Satellites
Meaning
The light and power of this sun actively pervades in the systemic world of life breathing in and out with prana and apana energy, thereby reflecting and proclaiming the power and presence of this potent lord of life and light.
Translation
The radiance of this fire penetrates within just as out-breath comes from in-breath. Thus the great fire illuminates the sun (Svah). (Also Yv. III.7)
Translation
The radiance and the heat of the Sun penetrate whatever exhales and inhales the breath. This enormous Sun also illuminates the firmament.
Translation
The radiance and warmth of this sun penetrate all human beings who inhale and exhale. The great sun illumines the atmosphere and sky.
Footnote
See Yajur, 3-7.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(अन्तः) लोकमध्ये (चरति) गच्छति (रोचना) कान्तिः (अस्य) पृश्नेः−म० १। सूर्यस्य (प्राणात्) श्वासव्यापारादनन्तरम् (अपानतः) प्रश्वासं कुर्वतः (वि) विविधम् (अख्यत्) ख्या प्रकथने−लडर्थे लुङ्, अन्तर्गतण्यर्थः। ख्यापयति प्रकाशयति (महिषः) अ० २।३५।४। महान् सूर्यः (स्वः) आकाशम् ॥
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