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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
    ऋषिः - उपरिबभ्रव देवता - गौः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - गौ सूक्त
    51

    त्रिं॒शद्धामा॒ वि रा॑जति॒ वाक्प॑त॒ङ्गो अ॑शि॒श्रिय॑त्। प्रति॒ वस्तो॒रह॒र्द्युभिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रिं॒शत् । धाम॑ । व‍ि । रा॒ज॒ति॒ । वाक् । प॒त॒ङ्ग: । अ॒शि॒श्रि॒य॒त् । प्रति॑ । वस्तो॑: । अह॑: । द्युऽभि॑: ॥३१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रिंशद्धामा वि राजति वाक्पतङ्गो अशिश्रियत्। प्रति वस्तोरहर्द्युभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रिंशत् । धाम । व‍ि । राजति । वाक् । पतङ्ग: । अशिश्रियत् । प्रति । वस्तो: । अह: । द्युऽभि: ॥३१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 31; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (5)

    विषय

    सूर्य वा भूमि के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (पतङ्गः) चलनेवाला वा ऐश्वर्यवाला सूर्य (त्रिंशत् धामा) तीस धामों पर [दिन रात्रि के तीस मुहूर्तों पर] (वस्तोः, अहः) दिन-दिन (द्युभिः) अपनी किरणों और गतियों के साथ (प्रति) प्रत्यक्षरूप से (वि) विविध प्रकार (राजति) राज करता वा चमकता है, (वाक्) इस वचन ने [उस सूर्य में] (अशिश्रियत्) आश्रय लिया है ॥३॥

    भावार्थ

    यह बात स्वयं सिद्ध है कि यह सूर्य सर्वदा सब ओर चमकता रह कर अपनी परिधि के लोकों को गमन, आकर्षण, विकर्षण, वृष्टि, शीत, ताप आदि द्वारा स्थिर रखता है ॥३॥ दिन रात्रि के तीस मुहूर्त भगवान् मनु ने भी माने हैं−अ० १ श्लोक ६४ ॥ निमेषा दश चाष्टौ च काष्ठा त्रिंशत्तु ताः कला। त्रिंशत्कला मुहूर्तः स्यादहोरात्रं तु तावतः ॥१॥ १८ पलक की १ काष्ठा, ३० काष्ठा की १ कला, ३० कला का १ मुहूर्त, और उतने ही, ३० मुहूर्त का दिन रात होता है ॥ महर्षि दयानन्दकृत भाष्य यजुर्वेद ३।८॥− (द्युभिः) प्रकाश आदि गुणों से (प्रति वस्तोः, अहः) प्रतिदिन (त्रिंशत्) अन्तरिक्ष, आदित्य और अग्नि को छोड़ के पृथिवी आदि तीस (धाम) स्थानों को (पतङ्गः) चलनेवाला अग्नि (वि राजति) प्रकाशित करता है−(वाक्) इस वचन ने [उस अग्नि में] (अशिश्रियत्) आश्रय लिया है ॥३॥ जो वाणी प्राणयुक्त शरीर में रहनेवाले बिजुली नाम अग्नि से प्रकाशित होती है विद्वान् लोग उसका गुण प्रकाश करने के लिये उसका नित्य उपदेश और श्रवण करें ॥३॥ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ ६८ वेदविषय में तैंतीस देवता इस प्रकार लिखे हैं−८ वसु अर्थात् अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौ, चन्द्रमा और नक्षत्र, ११ ग्यारह रुद्र अर्थात् शरीरस्थ दश प्राण अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाम, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय और ग्यारहवाँ जीवात्मा, १२ आदित्य वा महीने, १ इन्द्र अर्थात् बिजुली, और १ प्रजापति अर्थात् यज्ञ। उक्त मन्त्र में उनमें से ऊपर लिखे तीन को छोड़ कर तीस देवताओं का ग्रहण है ॥ इति तृतीयोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    ३−(त्रिंशत् धामा) अहोरात्रस्य त्रिशन्मुहूर्ताख्यानि धामानि स्थानानि (वि) विविधम् (राजति) अन्तर्गतण्यर्थः। राजयति शास्ति दीपयति वा (वाक्) वेदवाणी (पतङ्गः) पतेरङ्गच् पक्षिणि। उ० १।११९। इति पत गतौ ऐश्वर्ये च−अङ्गच्। गतिशीलः। ऐश्वर्यवान् (अशिश्रियत्) णिश्रिद्रुस्रुभ्यः०। पा० ३।१।४८। इति श्रिञ् सेवायाम्−लुङि च्लेश्चङ्। आश्रितवती (प्रति) प्रत्यक्षम् (वस्तोः) ईश्वरे तोसुन्कसुनौ। पा० ३।४।१३। इति वस आच्छादने−कर्त्तरि तोसुन्। दिनम्−निघ० १।९। (अहः) दिनम् (द्युभिः) दिवु क्रीडाविजिगीषादिषु−क्विप्। किरणैः। गतिभिः ॥

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    विषय

    वाक् पतङ्ग

    पदार्थ

    १. यह (वाक्) = प्रभु के नामों व स्तोत्रों का उच्चारण करनेवाला (पतङ्ग) = [पतन गच्छति] स्फूर्ति से क्रियाओं को करनेवाला साधक (अशिश्रियत्) = [श्री सेवायाम्] प्रभु का उपासन करता है और (प्रतिवस्तो:) = प्रतिदिन (अहः द्युभि:) दिन की दीतियों से, न कि रात्रि के अन्धकारों से (त्रिंशद्धाम) = तीसों धाम-आठों प्रहर (विराजति) = देदीप्यमान होता है।

    भावार्थ

    हम प्रभु का उपासन करें, क्रियाशील बनें। यही चमकने का मार्ग है। प्रकाशमय जीवन में पाप नहीं होते।

    विशेष

    यह यज्ञमय जीवनवाला पुरुष अग्निहोत्र आदि यज्ञों में प्रवृत्त हुआ-हुआ रोगकृमियों का संहार करनेवाला 'चातन' कहलाता है। स्वस्थ एवं शान्त वृत्तिवाला बनकर यह 'अथर्वा' न डॉवाडोल होता है। अगले सूक्त के प्रथम दो मन्त्रों का ऋषि 'चातन है, तीसरे का 'अथर्वा'।

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    भाषार्थ

    (प्रतिवस्तोः) प्रतिदिन (वाक्) वाणी (त्रिंशत्) तीस ( धामा =धामानि) स्थानों में (विराजति) विराजमान रहती है, प्रदीप्त होती रहती है, (पतङ्गः) पतङ्ग के सदृश उड़ने वाला सूर्य (अशिश्रियत्) वाक् का आश्रय है। (अहः) दिन (द्युभिः) द्युतिमान् सौर-रश्मियों द्वारा (अशिश्रियत्) आश्रय पाता है ।

    टिप्पणी

    [वस्तोः अहर्नाम (निघण्टु १।९) । धामा= धामानि, स्थानानि (निरुक्त "धामानि त्रयाणि भवन्ति स्थानानि नामानि जन्मानीति" ९।३।२७) । राजति = राजृ दीप्तौ (भ्वादिः)। ३० धाम हैं, ३० मुहूर्त। अहोरात्र में ३० मुहूर्त होते हैं। इक मुहूर्त में ४८ मिनिट, अतः ३० मुहूर्तों में १४४० मिनिट् अर्थात् २४ घण्टे, एक अहोरात्र। इस अहोरात्र को मन्त्र में 'अहः" द्वारा निर्दिष्ट किया है। प्रत्येक मुहूर्त काल की व्याप्ति, दिन के जितने भाग में होती है उसे एक "धाम" कहा है। इस प्रकार ३० मुहूर्तों के ३० धाम होते हैं। वाक है मनुष्यों तथा पशु पक्षियों की ध्वनियां। ये पृथिवी के ३० धामों की दृष्टि से कहीं न कहीं सदा विराजमान रहती ही हैं। इन का आश्रय है सूर्य । सूर्य भी ३० मुहूर्तों की दृष्टि से ३० धामों में कहीं न कहीं चमकता ही रहता है। "अहः" के भी दो रूप हैं, अहष्च कृष्णम्, अहरर्जनं च" (ऋ० ६।९।१)। अहः कृष्णम् =रात्री; अह: अर्जनम् = दिन। रात्री और दिन=अहः]।

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    भाषार्थ

    (प्रतिवस्तोः) प्रतिदिन (वाक्) वाणी (त्रिंशत्) तीस ( धामा =धामानि) स्थानों में (विराजति) विराजमान रहती है, प्रदीप्त होती रहती है, (पतङ्गः) पतङ्ग के सदृश उड़ने वाला सूर्य (अशिश्रियत्) वाक् का आश्रय है। (अहः) दिन (द्युभिः) द्युतिमान् सौर-रश्मियों द्वारा (अशिश्रियत्) आश्रय पाता है ।

    टिप्पणी

    [वस्तोः अहर्नाम (निघण्टु १।९) । धामा= धामानि, स्थानानि (निरुक्त "धामानि त्रयाणि भवन्ति स्थानानि नामानि जन्मानीति" ९।३।२७) । राजति = राजृ दीप्तौ (भ्वादिः)। ३० धाम हैं, ३० मुहूर्त। अहोरात्र में ३० मुहूर्त होते हैं। इक मुहूर्त में ४८ मिनिट, अतः ३० मुहूर्तों में १४४० मिनिट् अर्थात् २४ घण्टे, एक अहोरात्र। इस अहोरात्र को मन्त्र में 'अहः" द्वारा निर्दिष्ट किया है। प्रत्येक मुहूर्त काल की व्याप्ति, दिन के जितने भाग में होती है उसे एक "धाम" कहा है। इस प्रकार ३० मुहूर्तों के ३० धाम होते हैं। वाक है मनुष्यों तथा पशु पक्षियों की ध्वनियां। ये पृथिवी के ३० धामों की दृष्टि से कहीं न कहीं सदा विराजमान रहती ही हैं। इन का आश्रय है सूर्य । सूर्य भी ३० मुहूर्तों की दृष्टि से ३० धामों में कहीं न कहीं चमकता ही रहता है। "अहः" के भी दो रूप हैं, अहश्च कृष्णम्, अहरर्जुनं च" (ऋ० ६।९।१)। अहः कृष्णम् =रात्री; अह: अर्जनम् = दिन। रात्री और दिन=अहः]।

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    विषय

    सूर्यादि लोक-परिभ्रमण।

    भावार्थ

    (प्रतिवस्तोः) प्रतिदिन (अहर्द्युभिः) दिन के उत्पादक सूर्य की किरणों के द्वारा (वाक्) उत्पन्न हुई हुई वाणी (त्रिंशत् धाम) दिन और रात के ३० मुहूर्तों में लगातार (विराजति) विराजमान रहती है, (पतंगः अशिश्रियत्) और सूर्य ही इस वाणी का मुख्य आश्रय या आधार है। अर्थात् वायुमण्डल में दिन रात नाना प्रकार की आवाजें तथा गूँज हो रही है जो कि हमें स्थूल कानों से सुनाई नहीं देती और जिनकी विद्यमानता का कारण सूर्य की किरणें हैं। इति तृतीयोनुवाकः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उपरिबभ्रव ऋषिः। गौर्दैवता। गायत्रं छन्दः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Sun, Planets and Satellites

    Meaning

    Thirty solar hours (muhuratas) of day and of night does the sun constantly shine and illuminate the planets and satellites, and the holy tongue of the sages consonant with it celebrates this cosmic bird of life. (This sukta gives a vision of this world of stars, planets and satellites. There is nothing static, everything is on the move. Reference may also be made to Rgveda 5, 51, 15 where the sun and moon move in harmony, earth implied, for the good of humanity. They all move in order, each according to its own power. The sun being the highest in power is the centre. But what is the centre of all the solar systems and galaxies? Can it be physical? No, because if that physical object were the centre, what is it that sustains that? Hence the centre has to be non¬ physical and yet most powerful, more powerful than any and all things physical. The Veda and Upanishad say that that centre is the cosmic spirit, smaller than the smallest and greater than the greatest: Anoraniyan mahato mahiyan (Kathopanishad 1, 2, 20), just a dimensionless point and yet the infinite transcendant. Reference may also be made to Yajurveda 23, 60, and Rgveda 1, 104, 4 and 9, 114, 3. It is that at the centre which spins this wheel of existence around and yet within itself (Shvetashvatara Upanishad 6, 1.)

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    Translation

    He resides in thirty places. Praise goes to the fire divine every day in the festive moning. (Also Yv. III.8) .

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    Translation

    The speech (vibration in either) every day caused by the rays of the sun which creates day, spreads throughout the thirty muhurtas of the night and day. The Sun is the centre of this speech.

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    Translation

    Thirty divisions of the day and night are illumined by the rays of the sun. Sun alone is the shelter and support of our speech.

    Footnote

    Voice is carried from one place to the other by the rays of Sun, hence the Sun is spoken of as the shelter and support of our speech.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(त्रिंशत् धामा) अहोरात्रस्य त्रिशन्मुहूर्ताख्यानि धामानि स्थानानि (वि) विविधम् (राजति) अन्तर्गतण्यर्थः। राजयति शास्ति दीपयति वा (वाक्) वेदवाणी (पतङ्गः) पतेरङ्गच् पक्षिणि। उ० १।११९। इति पत गतौ ऐश्वर्ये च−अङ्गच्। गतिशीलः। ऐश्वर्यवान् (अशिश्रियत्) णिश्रिद्रुस्रुभ्यः०। पा० ३।१।४८। इति श्रिञ् सेवायाम्−लुङि च्लेश्चङ्। आश्रितवती (प्रति) प्रत्यक्षम् (वस्तोः) ईश्वरे तोसुन्कसुनौ। पा० ३।४।१३। इति वस आच्छादने−कर्त्तरि तोसुन्। दिनम्−निघ० १।९। (अहः) दिनम् (द्युभिः) दिवु क्रीडाविजिगीषादिषु−क्विप्। किरणैः। गतिभिः ॥

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