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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 3
    ऋषिः - चातन देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    63

    यः पर॑स्याः परा॒वत॑स्ति॒रो धन्वा॑ति॒रोच॑ते। स नः॑ पर्ष॒दति॒ द्विषः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । पर॑स्या: । प॒रा॒ऽवत॑:। ति॒र: । धन्व॑ । अ॒ति॒ऽरोच॑ते । स: । न॒: । प॒र्ष॒त् । अति॑ । द्विष॑:॥३४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः परस्याः परावतस्तिरो धन्वातिरोचते। स नः पर्षदति द्विषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । परस्या: । पराऽवत:। तिर: । धन्व । अतिऽरोचते । स: । न: । पर्षत् । अति । द्विष:॥३४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 34; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो परमेश्वर (परस्याः) दूर दिशा के भी (परावतः) दूर स्थान से (धन्व) अन्तरिक्ष को (तिरः=तिरस्कृत्य) पार करके (अतिरोचते) अत्यन्त चमकता है। (सः) वह (द्विषः) वैरियों को (अति) उलाँघ कर (नः) हमें (पर्षत्) भरपूर करे ॥३॥

    भावार्थ

    परमेश्वर दूर और समीप सब स्थान में हमारी रक्षा करता है ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यः) परमेश्वरः (परस्या) दूरदिशायाः (परावतः) अ० ३।४।५। दूरगतात् स्थानात् (तिरः) तिरस्कृत्य, अन्तर्धाय (धन्व) अ० ४।४।७। अन्तरिक्षम्−निघ० १।३। (अतिरोचते) अतिशयेन दीप्यते। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    प्रभु की तीव्र ज्ञान-ज्योति में द्वेषान्धकार का विलय

    पदार्थ

    १. (य:) = जो (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु (तिग्मेन शोचिषा) = बड़ी तीव्र ज्ञानदीसि से रक्षांसि (निजूर्वति) = राक्षसीवृत्तियों को नष्ट करते है, २. (यः) = जो प्रभु (परस्याः परावतः) = अत्यन्त दूर देश से (धन्य तिर:) = [धन्व-अन्तरिक्ष-नि०१.३] अन्तरिक्ष को भी पार करके (अतिरोचते) = अतिशयेन देदीप्यमान है, ३. (य:) = जो प्रभु (विश्वा भुवना) = सब प्राणियों व लोकों को (अभि-विपश्यति) = आभिमुख्येन अलग-अलग देखता है (च) = तथा (संपश्यति) = मिलकर देखता है, अर्थात् वे प्रभु एक-एक प्राणी का अलग-अलग भी रक्षण करते हैं और समूहरूप में भी रक्षण करते हैं। ४, (य:) = जो (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु (अस्य रजस: पारे) = इस लोकसमूह से परे (शुक्रः अजायत) = देदीप्यमान शुद्धस्वरूप में प्रादुर्भूत हो रहे हैं ('पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि'), (सः) = वे प्रभु (नः) = हमें (द्विषः अतिपर्षत्) = द्वेष की सब भावनाओं से पार करें।

    भावार्थ

    हम प्रभु का स्मरण करें, सर्वत्र प्रभु की ज्योति को देखें, उसे ही सबका पालक जानें, उसे ही इस ब्रह्माण्ड से परे शुद्ध ज्योति के रूप में सोचें। यह स्मरण हमें देष की भावनाओं से ऊपर उठाएगा।

    विशेष

    द्वेष से ऊपर उठकर प्रभु का आलिङ्गन करनेवाला यह कौशिक' बनता है [कुश संश्लेषे]। यही अगले सूक्त का ऋषि है।

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    भाषार्थ

    (यः) जो अग्नि अर्थात् सर्वाग्रणी परमेश्वर (परस्याः परावतः) परे से भी परे, अर्थात् दूर से भी दूर, (धन्व तिरः ) अन्तरिक्ष को भी तीर्ण कर के, (अति रोचते) अति प्रदीप्त होता है। (सः) वह पूर्ववत्, (मन्त्र १)

    टिप्पणी

    [धन्व अन्तरिक्षनाम (निघं० १।३) । द्युलोक१ में परमेश्वराग्नि का प्रदीप्त होना अभिप्राय है।] [१. तस्य भासा सर्वमिदं विभाति (कठ० उप०)।]

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना।

    भावार्थ

    (यः) जो परमेश्वर (परस्याः परावतः) दूर से भी दूर अर्थात् (धन्व तिरः) द्युलोक और अन्तरिक्ष को भी पार कर (अतिरोचते) सब से अधिक प्रकाशमान है (सः नः द्विपः अतिपर्षत्) वह हमें हमारे शत्रुओं से पार करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। अग्निर्देवता। १-५ गायत्र्यः पंचर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Splendour of Divinity

    Meaning

    He who shines in splendour beyond the farthest of the far regions and spaces of existence, may, we pray, bless us with wealth, honour and excellence beyond the reach of all hate, jealousy and enmity.

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    Translation

    Who shines across the places remoter than remote, may He , get us past our enemics well-protected .

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    Translation

    He is the Lord who from fat-remote distance across the heaven and beyond shineth. May He remove our internal enemies — greed, aversion etc.

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    Translation

    May God, Who from distance far remote shineth across the atmosphereand sky, transport us past our foes.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यः) परमेश्वरः (परस्या) दूरदिशायाः (परावतः) अ० ३।४।५। दूरगतात् स्थानात् (तिरः) तिरस्कृत्य, अन्तर्धाय (धन्व) अ० ४।४।७। अन्तरिक्षम्−निघ० १।३। (अतिरोचते) अतिशयेन दीप्यते। अन्यद् गतम् ॥

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