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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - वैश्वनार सूक्त
    55

    स विश्वा॒ प्रति॑ चाक्लृप ऋ॒तूंरुत्सृ॑जते व॒शी। य॒ज्ञस्य॒ वय॑ उत्ति॒रन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । विश्वा॑ । प्रति॑ । च॒क्लृ॒पे॒ । ऋ॒तून् । उत् । सृ॒ज॒ते॒ । व॒शी । य॒ज्ञस्य॑ । वय॑: । उ॒त्ऽति॒रन् ॥३६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स विश्वा प्रति चाक्लृप ऋतूंरुत्सृजते वशी। यज्ञस्य वय उत्तिरन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । विश्वा । प्रति । चक्लृपे । ऋतून् । उत् । सृजते । वशी । यज्ञस्य । वय: । उत्ऽतिरन् ॥३६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 36; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह (विश्वा प्रति) सब लोकों में व्यापकर (चक्लृषे) समर्थ हुआ है, (वशी) वह वश में रखनेवाला (यज्ञस्य) पूजनीय व्यवहार के (वयः) बल को (उत्तिरन्) बढ़ाता हुआ (ऋतून्) सब ऋतुओं को (उत्) उत्तमता से (सृजते) बनाता है ॥२॥

    भावार्थ

    जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा मनुष्य के सुख के लिये उत्तम-उत्तम पदार्थ और सब ऋतुएँ बनाता है, उसकी स्तुति सदा करनी चाहिये ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(सः) परमेश्वरः (विश्वा) सर्वाणि भुवनानि (प्रति) व्याप्य (चक्लृषे) कृपू सामर्थ्ये−लिट्। समर्थो बभूव (ऋतून्) वसन्तादिकालावयवान् (उत्) उत्कर्षेण (सृजते) निर्मिमीते (वशी) वशयिता। स्वतन्त्रः (यज्ञस्य) पूजनीयव्यवहारस्य (वयः) अ० २।१०।३। सामर्थ्यम् (उत्तिरन्) तॄ प्लवनतरणयोः−शतृ। ॠत इद्धातोः। पा० ७।१।१००। इति इकारः। प्रवर्धयन् ॥

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    विषय

    लोक, ऋतु व यज्ञ

    पदार्थ

    १. (स:) - वे प्रभु (विश्वा) = सब लोक-लोकान्तरों को (प्रतिचाक्लुपे) = बनाते हैं, (वशी) = सबको वश में करनेवाले वे प्रभु (ऋतून उत्सृजते) = ऋतुओं का उत्कृष्ट सर्जन करते हैं, अर्थात् वे प्रभु ही सब स्थानों [लोकों] व समयों [ऋतून] का निर्माण करते हैं। २. (यज्ञस्य वयः उत्तिरन्) = यज्ञ के आयुष्य का वर्धन करते हैं, यज्ञशील पुरुषों को दीर्घजीवन देते हैं।

    भावार्थ

    वे प्रभु सब लोकों व ऋतुओं का निर्माण करते हैं। इस ब्रह्माण्ड में यज्ञशील पुरुष के आयुष्य का वर्धन करते हैं।

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    भाषार्थ

    (सः) जिसने (विश्वा) [विश्व की] सब वस्तुओं को अर्थात् (प्रति ) प्रत्येक वस्तु को (चाक्लृपे) पैदा किया, (वशी) जो वशयिता (ऋतून्) ऋतुओं का (उत्सृजते) उत्कर्ष रूप में सर्जन करता है, वह ( यज्ञस्य) हमारे जीवन यज्ञ की (वयः) आयु को (उत्तिरन्) बढ़ाता है।

    टिप्पणी

    [यदि जीवन यज्ञमय हो तो आयु बढ़ जाती है। "पुरुषो वाव यज्ञः" (छान्दोग्य उप० ३।१६)]

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    विषय

    ईश्वर की प्रार्थना

    भावार्थ

    (सः) वह परमेश्वर (विश्वा) समस्त प्राणियों को, समस्त पदार्थों को (प्रति चाक्लृपे) बनाता, उनको प्रेरित करता और शक्ति देता है। वह (वशी) सब पर वश करनेहारा (यज्ञस्य) संवत्सर रूप यज्ञ-पुरुष के (वयः) काल को (उत्तिरन्) विभक्त करता हुआ या (यज्ञस्य वयः उत्तिरन्) यज्ञ = यज्ञाहुति के (वयः) अन्नों को अग्नि के समान सर्वत्र फैलाता हुआ या इस महान् सृष्टिचक्र में होने वाले भूत संघों के परस्पर संगम रूप यज्ञ के (वयः) जीवन को (उत्तिरन्) सर्वत्र प्रकट करता हुआ (ऋतून् उत् सृजते) छहों ऋतुओं का निर्माण करता है।

    टिप्पणी

    ‘य इदं प्रतिपप्रथे’ (तृ०) ‘यज्ञस्य स्वः’ इति साम०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    स्वस्त्ययनकाम अथर्वा ऋषिः। अग्निर्देवता। गायत्रं छन्दः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Sole Spirit of Life

    Meaning

    That VaishvanaraAgni, universal controller and energiser, pervades, inspires and fructifies every thing, every person and every effort in the world, and blesses all seasons with higher vitality and power, all the time raising the creative success of natural and human action for evolution and development.

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    Translation

    He has shaped all (the creatures) and He the controlling one creates the seasons, furthering the vigour of the sacrifice.

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    Translation

    He inspiring alround the knowledge of Yajna, the world resultant of integration and disintegration, accomplished the creation of the universe and ordaining as the Master over all He creates seasons,

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    Translation

    God lends sustenance to all men, He, the Controller, creates different Seasons. He produces nice corn for the yajna.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(सः) परमेश्वरः (विश्वा) सर्वाणि भुवनानि (प्रति) व्याप्य (चक्लृषे) कृपू सामर्थ्ये−लिट्। समर्थो बभूव (ऋतून्) वसन्तादिकालावयवान् (उत्) उत्कर्षेण (सृजते) निर्मिमीते (वशी) वशयिता। स्वतन्त्रः (यज्ञस्य) पूजनीयव्यवहारस्य (वयः) अ० २।१०।३। सामर्थ्यम् (उत्तिरन्) तॄ प्लवनतरणयोः−शतृ। ॠत इद्धातोः। पा० ७।१।१००। इति इकारः। प्रवर्धयन् ॥

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