अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 40/ मन्त्र 2
अ॒स्मै ग्रामा॑य प्र॒दिश॒श्चत॑स्र॒ ऊर्जं॑ सुभू॒तं स्व॒स्ति स॑वि॒ता नः॑ कृणोतु। अ॑श॒त्र्विन्द्रो॒ अभ॑यं नः कृणोत्व॒न्यत्र॒ राज्ञा॑म॒भि या॑तु म॒न्युः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मै । ग्रामा॑य । प्र॒ऽदिश॑: । चत॑स्र: । ऊर्ज॑म् । सु॒ऽभू॒तम् । स्व॒स्ति । स॒वि॒ता । न॒: । कृ॒णो॒तु॒ । अ॒श॒त्रु॒ । इन्द्र॑: । अभ॑यम् । न॒: । कृ॒णो॒तु॒ । अ॒न्यत्र॑ । राज्ञा॑म् । अ॒भि । या॒तु॒ । म॒न्यु:॥४०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मै ग्रामाय प्रदिशश्चतस्र ऊर्जं सुभूतं स्वस्ति सविता नः कृणोतु। अशत्र्विन्द्रो अभयं नः कृणोत्वन्यत्र राज्ञामभि यातु मन्युः ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै । ग्रामाय । प्रऽदिश: । चतस्र: । ऊर्जम् । सुऽभूतम् । स्वस्ति । सविता । न: । कृणोतु । अशत्रु । इन्द्र: । अभयम् । न: । कृणोतु । अन्यत्र । राज्ञाम् । अभि । यातु । मन्यु:॥४०.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रुओं से रक्षा के लिये उपदेश।
पदार्थ
(सविता) सबका चलानेवाला परमेश्वर (अस्मै) इस (ग्रामाय) गाँव के लिये और (नः) हमारे लिये (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) दिशाओं में (ऊर्जम्) पराक्रम, (सुभूतम्) बहुत धन और (स्वस्ति) कल्याण (कृणोतु) करे। (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला परमात्मा (नः) हमारे लिये (अशत्रु) निर्वैर (अभयम्) अभय (कृणोतु) करे, (राज्ञाम्) राजाओं का (मन्युः) क्रोध (अन्यत्र) औरों पर (अभि यातु) चला जावे ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य धर्मपूर्वक उत्तम-उत्तम पदार्थ प्राप्त करके शान्तचित्त रहें और ऐसे शुभ कर्म करें, जिससे राजपुरुष उनसे सदा प्रसन्न रहें ॥२॥
टिप्पणी
२−(अस्मै) समीपस्थाय (ग्रामाय) जनसमूहाय (प्रदिशः) अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। प्राच्यादिदिशाः प्रति (चतस्रः) चतुःसंख्यकाः (ऊर्जम्) पराक्रमम् (सुभूतम्) अ० १।३१।३। सुभूतिम्। प्रभूतं धनम् (स्वस्ति) क्षेमम् (सविता) सर्वप्रेरकः परमेश्वरः (नः) अस्मभ्यं च (कृणोतु) करोतु (अशत्रु) शत्रुरहितम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (अभयम्) भयराहित्यम्। शान्तिम् (नः) (कृणोतु) (अन्यत्र) अन्येषु शत्रुषु (राज्ञाम्) शासकानाम् (अभि) (यातु) प्राप्नोतु (मन्युः) क्रोधः ॥
विषय
सवितः इन्द्रः
पदार्थ
१. (नः अस्मै ग्रामाय) = हमारे निवासस्थानभूत इस ग्राम के लिए (सविता) = सबका उत्पादक वह प्रभु (प्रदिश: चतस्त्र:) = चारों दिशाओं में (सुभूतम्) = सुष्टु उत्पन्न-उत्तमता से उत्पन्न हुए-हुए (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति देनेवाले अन्न को और उसके द्वारा (स्वस्ति) = कल्याण को (कृणोत) = करे। हमारे राष्ट्र में पौष्टिक अन्न की कमी न हो। २. (इन्द्रः) = शत्र-विद्रावक प्रभु (नः) = हमारे लिए (अशत्रु:) = शत्रुओं के आक्रमण-भय से शून्य (अभयम्) = निर्भयता को (कृणोतु) = करे । (राज्ञाम्) = शत्रुभूत राजाओं का (मन्यु:) = क्रोध अन्यत्र (यातु) = हमसे भिन्न स्थान में ही प्राप्त हो। कोई भी राजा हमारे राष्ट्र पर आक्रमण न कर पाए।
भावार्थ
सवितादेव के अनुग्रह से हमारे राष्ट्र में पौष्टिक अन्न की कमी न हो तथा इन्द्र की कृपा से हमारा राष्ट्र शत्रुओं के आक्रमण के भय से रहित हो।
भाषार्थ
(नः) हमारे (अस्मै ग्रामाय) इस ग्राम के लिये (चतस्रः प्रदिशः) चारों व्याप्त दिशाएं (सविता) और सर्वोत्पादक परमेश्वर (सुभूतम्) प्रभूत (ऊर्जम्) बल और प्राण के प्रदाता अन्न को, तथा (स्वस्ति ) उत्तम रिथिति और कल्याण को (कृणोतु) करे । (इन्द्रः) सम्राट् (अशत्रु अभयम् ) शत्रु रहित अभय (नः) हमारे लिये (कृणोतु) करे, ( राज्ञाम् ) राजाओं का (मन्युः) मननपूर्वक किया गया क्रोध, (अन्यत्र) हम शान्तिप्रिय प्रजाजनों से भिन्नों के (अभि) प्रति ( यातु) जाय।
टिप्पणी
[चतस्रः प्रदिशः =अर्थात् ग्राम के चारों ओर फैली दिशाओं में कृषिकर्म द्वारा ऊर्जाप्रद अन्न उत्पन्न हो]।
विषय
अभय और कल्याण की प्रार्थना।
भावार्थ
(नः) हमारे (अस्मै ग्रामाय) इस ग्राम की (चतस्त्रः प्रदिशः) चारों दिशाओं में (सविता) सविता, धन-धान्य का उत्पादक, एवं नाना प्रकार के पदार्थों को उत्पन्न और नाना कारखानों के चलाने की प्रेरणा करने वाला अधिकारी शासक अथवा परमात्मा (सुभूतम्) उत्तम रीति से उत्पन्न होने वाला (ऊर्जम् कृणोतु) अन्न आदि पदार्थ उत्पन्न कराए और इस प्रकार (नः स्वस्ति कृणोतु) हमारा कल्याण करें। (इन्द्रः) राजा (नः) हमारे लिए (अशत्रु अभयं) शत्रुत्रों से रहित, अभय (कृणोतु) करे और (राज्ञां) राजाओं का (मन्युः) क्रोध और उससे प्रेरित सेनाबल भी (अन्यत्र) अन्य स्थान में (यातु) चला जाय। राजा ग्रामों का ऐसा प्रबन्ध करे कि उनके बाहर की भूमियों में अन्न आदि प्रभूत तथा उत्तम उत्पन्न हो और उनकी ऐसी रक्षा करे कि योद्धाराजा की सेनाएं उनके खेतों को खराब न करें और ग्रामों को न उजाड़े।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१, २ अभयकामः, ३ स्वस्त्ययनकामश्वाथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवताः। १, २ जगत्यौ, ३ ऐन्द्री अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Fearlessness
Meaning
For this community of ours, in all the four quarters of space, may Savita create energy, ample wealth and well being and may Indra, the ruler, create fearlessness and freedom from enemies. The fear and anger of the rulers, then, may go elsewhere (where lawlessness might be prevailing).
Translation
For this village of ours, may the four mid-quarters provide goodly sustenance (urjam). May the inspirer Lord look after our well-being. May the resplendent Lord arrange for us freedom from fear with no enemies whatsoever. May the wrath (manyu) of the kings be turned to some where else.
Translation
May the All-creating Lord bestow upon us the well-produced grain and vigor around the four quarters of our village. May He make us happy. May the foeless King give us safety and may the wrath of King be turned to other directions.
Translation
May God grant prosperity, wealth and bliss, in all the four quarters of this village of ours. May God make us free from foes and danger; may wrath of kings be turned to other places.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(अस्मै) समीपस्थाय (ग्रामाय) जनसमूहाय (प्रदिशः) अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। प्राच्यादिदिशाः प्रति (चतस्रः) चतुःसंख्यकाः (ऊर्जम्) पराक्रमम् (सुभूतम्) अ० १।३१।३। सुभूतिम्। प्रभूतं धनम् (स्वस्ति) क्षेमम् (सविता) सर्वप्रेरकः परमेश्वरः (नः) अस्मभ्यं च (कृणोतु) करोतु (अशत्रु) शत्रुरहितम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (अभयम्) भयराहित्यम्। शान्तिम् (नः) (कृणोतु) (अन्यत्र) अन्येषु शत्रुषु (राज्ञाम्) शासकानाम् (अभि) (यातु) प्राप्नोतु (मन्युः) क्रोधः ॥
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