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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 40/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अभय सूक्त
    55

    अ॑नमि॒त्रं नो॑ अध॒राद॑नमि॒त्रं न॑ उत्त॒रात्। इन्द्रा॑नमि॒त्रं नः॑ प॒श्चाद॑नमि॒त्रं पु॒रस्कृ॑धि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न॒मि॒त्रम् । न॒: । अ॒ध॒रात् । अ॒न॒मि॒त्रम् । न॒: । उ॒त्त॒रात् । इन्द्र॑ । अ॒न॒मि॒त्रम् । न॒: । प॒श्चात् । अ॒न॒मि॒त्रम् । पु॒र: । कृ॒धि॒ ॥४०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनमित्रं नो अधरादनमित्रं न उत्तरात्। इन्द्रानमित्रं नः पश्चादनमित्रं पुरस्कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनमित्रम् । न: । अधरात् । अनमित्रम् । न: । उत्तरात् । इन्द्र । अनमित्रम् । न: । पश्चात् । अनमित्रम् । पुर: । कृधि ॥४०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 40; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं से रक्षा के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे महाप्रतापी परमेश्वर ! (नः) हमारे लिये (अधरात्) नाचे से (अनमित्रम्) निर्वैरता, (नः) हमारे लिये (उत्तरात्) ऊपर से (अनमित्रम्) निर्वैरता, (नः) हमारे लिये (पश्चात्) पीछे से (अनमित्रम्) निर्वैरता और (पुरः) आगे से (अनमित्रम्) निर्वैरता (कृधि) तू कर ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य सब स्थान और सब काल में शान्तिदायक कर्म करें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(अनमित्रम्) अमेर्द्विषति चित्। उ० ४।१७४। इति अम पीडने−भावे इत्रच्। निर्वैरत्वम् (नः) अस्मभ्यम् (अधरात्) अधस्तात् (उत्तरात्) उपरिदेशात् (इन्द्र) हे महाप्रतापिन् जगदीश्वर (पश्चात्) अ० ४।४०।३। पृष्ठतो देशात् (पुरः) अग्रदेशात् (कृधि) कुरु। अन्यद्गतम् ॥

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    विषय

    अनमित्रम्

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = शत्रु-विद्गावक प्रभो! (न:) = हमारे लिए (अथरात्) = दक्षिण दिशा में (अनमित्रम्) = शत्रुराहित्य (कृधि) = कीजिए, (न:) = हमारे लिए (उत्तरात्) = उत्तर दिशा से (अनमित्रम्) = शत्रुराहित्य करने का अनुग्रह कीजिए। २. हे इन्द्र ! (न:) = हमारे लिए (पश्चात्) = पश्चिम दिशा से (अनमित्रम्) = शत्रुराहित्य करनेवाले होओ तथा (पुर:) = सामने से-पूर्व दिशा से भी (अनमित्रम्) = अशत्रुता करने का अनुग्रह (कृधि) = कीजिए।

    भावार्थ

    इन्द्र के अनुग्रह से हमें सब दिशाओं से निर्भयता व अशत्रुता प्राप्त हो। किसी भी दिशा में हमारा कोई शत्रु न हो।

    विशेष

    सब दिशाओं में अशत्रु बना हुआ यह व्यक्ति 'ब्रह्मा' बनता है और प्रार्थना करता है कि --

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे सम्राट् ! (नः) हमें (अधरात्) दक्षिण दिशा से (अनमित्रम्) शत्रुरहित (कृधि) कर, (नः) हमें (उत्तरात्) उत्तरदिशा से (अनमित्रम्) शत्रुरहित कर। (नः) हमें (पश्चात्) पश्चिम दिशा से (अनमित्रम्) शत्रु रहित कर, (पुरः) पूर्वदिशा से (अनमित्रम् ) शत्रुरहित कर।

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    विषय

    अभय और कल्याण की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन् अथवा राजन् ! (नः) हमारे, (अधरात्) नीचे की ओर (अनमित्रं) कोई शत्रु न रहे, (उत्तरात् नः अनमिनं) ऊपर की ओर भी कोई शत्रु न रहे। (पश्चात् नः अनमित्रं) पीछे की ओर भी शत्रु न रहे और (पुरः नः अनमित्रं कृधि) ऐसा कीजिये जिससे आगे की ओर भी हमारा कोई शत्रु न रहे।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘मे अधराग्’ (द्वि०) ‘उदक् कृधि’ इति का० यजु०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १, २ अभयकामः, ३ स्वस्त्ययनकामश्वाथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवताः। १, २ जगत्यौ, ३ ऐन्द्री अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Fearlessness

    Meaning

    May Indra create for us love and freedom from enemies from down below on earth, love and freedom from enmity from above, love and freedom from enemies from behind, and love with freedom from fear, opposition, conflict and enmity upfront.

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    Subject

    Indrah

    Translation

    May there be foe-lessness (anamitram) for us from below, foe-lessness for us from above. O resplendent Lord, may you make us foe-less from behind, as well as foe-less from the front.

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    Translation

    O Almighty Lord! make us free from enemies both from above and from below. O Lord! make us free from foes from behind and from front side.

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    Translation

    O God, make Thou us free from enemies from the South, from the North, from the West and from the East.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(अनमित्रम्) अमेर्द्विषति चित्। उ० ४।१७४। इति अम पीडने−भावे इत्रच्। निर्वैरत्वम् (नः) अस्मभ्यम् (अधरात्) अधस्तात् (उत्तरात्) उपरिदेशात् (इन्द्र) हे महाप्रतापिन् जगदीश्वर (पश्चात्) अ० ४।४०।३। पृष्ठतो देशात् (पुरः) अग्रदेशात् (कृधि) कुरु। अन्यद्गतम् ॥

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