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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 41/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - सरस्वती छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
    42

    अ॑पा॒नाय॑ व्या॒नाय॑ प्रा॒णाय॒ भूरि॑धायसे। सर॑स्वत्या उरु॒व्यचे॑ वि॒धेम॑ ह॒विषा॑ व॒यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पा॒नाय॑ । वि॒ऽआ॒नाय॑ । प्रा॒णाय॑ । भूरि॑ऽधायसे । सर॑स्वत्यै । उ॒रु॒ऽव्यचे॑ । वि॒धेम॑ । ह॒विषा॑ । व॒यम् ॥४१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपानाय व्यानाय प्राणाय भूरिधायसे। सरस्वत्या उरुव्यचे विधेम हविषा वयम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपानाय । विऽआनाय । प्राणाय । भूरिऽधायसे । सरस्वत्यै । उरुऽव्यचे । विधेम । हविषा । वयम् ॥४१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 41; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आत्मा की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (अपानाय) बाहिर निकलनेवाले अपानवायु के लिये, (व्यानाय) शरीर में व्यापक व्यान वायु के लिये, (भूरिधायसे) अनेक प्रकार से धारण करनेवाले (प्राणाय) जीवनवायु प्राण के लिये और (उरुव्यचे) दूर-दूर तक फैलनेवाले (सरस्वत्यै) विज्ञानवती सरस्वती [विद्या] के लिये (वयम्) हम लोग (हविषा) भक्ति से [परमेश्वर को (विधेम) पूजें ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर को आत्मसमर्पण करके आत्मा और शरीर से स्वस्थ रहकर अनेक प्रकार से विज्ञान प्राप्त करें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(अपानाय) शरीराद्बहिर्गन्त्रे वायवे (व्यानाय) शरीरव्यापकाय पवनाय (प्राणाय) जीवनसाधनाय समीराय (भूरिधायसे) अ० १।२।१। बहुपोषकाय (सरस्वत्यै) विज्ञानवत्यै विद्यायै (उरुव्यचे) अ० ५।३।८। उरु+वि+अच गतौ−विच्। बहुलं व्याप्नुवत्यै। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    सरस्वत्या-उरुव्यचे

    पदार्थ

    १. (अपानाय) = मुख-नासिका से बहिर् विनिर्गत वायु का फिर अन्त:प्रवेश अपानन व्यापार कहलाता है, इस अपान के लिए, (व्यानाय) = ऊर्ध्व व अधोवृत्ति के त्याग से उस वायु का शरीर में ठहरना 'व्यान' कहलाता है, उस व्यान के लिए तथा शरीरस्थ वायु का मुख-नासिका से बहिर् निर्गमन प्राण कहलाता है, उस (भूरिधायसे) = बहुत प्रकार से-खूब ही धारण करनेवाले (प्राणाय) = प्राण के लिए (वयम्) = हम (हविषा) = दानपूर्वक अदन के द्वारा (विधेम) = प्रभु का पूजन करते हैं। (सरस्वत्यै) = ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता के लिए तथा (उरुव्यचे) = हृदय की खूब व्यापकता के लिए भी हम हवि के द्वारा प्रभुपूजन करते हैं।

    भावार्थ

    यज्ञशेष के सेवन तथा प्रभुपूजन से हमारे 'प्राण, अपान, व्यान' ठीक कार्य करेंगे, हमारा ज्ञान बढ़ेगा और हृदय विशाल होगा।

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    भाषार्थ

    (अपानाय) अपान के स्वास्थ्य के लिये, (व्यानाय) व्यान के स्वास्थ्य के लिये, (भूरिधायसे) महाधारक तथा पोषक (प्राणाय) प्राण के स्वास्थ्य के लिये, (उरुव्यचे) महाविस्तार वाली (सरस्वत्यै) विज्ञान युक्ता वेदवाणी की प्राप्ति के लिये, (वयम्) हम (हविषा) हवि द्वारा ( विधेम ) यज्ञ करें या इन सब की परिचर्या करें।

    टिप्पणी

    [अपानाय आदि में तादर्थ्य चतुर्थी है। प्राण का विशेषण है भूरिधायसे"। वस्तुतः श्वास-प्रश्वास रूपी प्राण, अपानादि तथा समग्र शरीर और इन्द्रियों तथा मानसिक शक्तियों का धारक तथा पोषक है। अपान है अधोवायु, गुदास्थ। व्यान है सर्व शरीरगत वायु, जिस द्वारा रक्त संचार समग्र शरीर में होता है। सरस्वती का विस्तार महान् है, वेद, वेदाङ्ग, उपवेद तथा भाष्यों आदि के रूपों में वेदवाणी फैली हुई है। व्यचस्= विस्तार।

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    विषय

    अध्यात्म शक्तियों की साधना।

    भावार्थ

    (अपानाय) अपान, (वि-आनाय) व्यान और (भूरिधायसे) बहुत बलों को धारण करने वाले (प्राणाय) प्राण और (उरु-व्यचे) विशाल आत्मा में व्यापक या नाना लोकों में व्यापक (सरस्वत्यै) ज्ञानधारा की प्राप्ति के लिये (वयम्) हम (हविषा) हवि अर्थात् जीव, मस्तिष्क शक्ति या मन से (विधेम) उद्योग करें। अपान = मुख नासिका से बाहर के वायु को पुनः भीतर लेना। प्राण = भीतर की वायु को नासिका से बाहर फेंकना। व्यान = ऊपर नीचे दोनों ओर की गति न करके प्राण का स्थिर रहना। अथवा कण्ठ से ऊर्ध्वगत शक्ति प्राण, कण्ठ से नाभि तक की शक्ति व्यान, नाभि से गुदा तक की शक्ति अपान है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। बहवः उत चन्द्रमा देवता। १ भुरिगनुष्टुप्, २ अनुष्टुप्, ३ त्रिष्टुप्, तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-Expansion

    Meaning

    For the vitality of apana, vyana, all sustaining prana, and for wide ranging knowledge, we worship Agni, light of life with offers of havi in yajna.

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    Translation

    For out-breath, for through-breath, for in-breath, the plentiful nourisher, and for the leaming divine (sarasvatya) of vast dimensions, we perform sacrifice with offerings.

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    Translation

    Let us attain vitality through performance of yajna for our expiration, vital air and breath which amply preserve us. Let us attain vitality through performance of yajna for our speech organ whose range is wide.

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    Translation

    For expiration, vital air, and breath that amply nourishes, and for acquiring vast knowledge, let us adore God with devotion.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(अपानाय) शरीराद्बहिर्गन्त्रे वायवे (व्यानाय) शरीरव्यापकाय पवनाय (प्राणाय) जीवनसाधनाय समीराय (भूरिधायसे) अ० १।२।१। बहुपोषकाय (सरस्वत्यै) विज्ञानवत्यै विद्यायै (उरुव्यचे) अ० ५।३।८। उरु+वि+अच गतौ−विच्। बहुलं व्याप्नुवत्यै। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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