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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 41/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - दैव्या ऋषयः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
    71

    मा नो॑ हासिषु॒रृष॑यो॒ दैव्या॒ ये त॑नू॒पा ये न॑स्त॒न्वस्तनू॒जाः। अम॑र्त्या॒ मर्त्यां॑ अ॒भि नः॑ सचध्व॒मायु॑र्धत्त प्रत॒रं जी॒वसे॑ नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । न॒: । हा॒सि॒षु॒: । ऋष॑य: । दैव्या॑: । ये । त॒नू॒ऽपा: । ये । न॒: । त॒न्व᳡: । त॒नू॒ऽजा: । अम॑र्त्या: । मर्त्या॑न् । अ॒भि । न॒: । स॒च॒ध्व॒म् । आयु॑: । ध॒त्त॒ । प्र॒ऽत॒रम् । जी॒वसे॑ । न॒:॥४१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नो हासिषुरृषयो दैव्या ये तनूपा ये नस्तन्वस्तनूजाः। अमर्त्या मर्त्यां अभि नः सचध्वमायुर्धत्त प्रतरं जीवसे नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । न: । हासिषु: । ऋषय: । दैव्या: । ये । तनूऽपा: । ये । न: । तन्व: । तनूऽजा: । अमर्त्या: । मर्त्यान् । अभि । न: । सचध्वम् । आयु: । धत्त । प्रऽतरम् । जीवसे । न:॥४१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 41; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आत्मा की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (दैव्याः) दिव्यगुणवाले (ऋषयः) व्यापनशील वा दर्शनशील [अर्थात् त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि, अथवा दो कान दो नथने, दो आँख और मुख] (नः) हमें (मा हासिषुः) न त्यागें, (ये) जो (तनूपाः) शरीर की रक्षा करने हारे और (ये) जो (नः) हमारे (तन्वः) शरीर के (तनूजाः) विस्तार के साथ उत्पन्न हुए हैं। (अमर्त्याः) हे अमर ! [नित्य उत्साहियो] (मर्त्यान्) मरते हुए [निरुत्साही] मनुष्यों के हित करनेवाले (नः) हम से (अभि) सब ओर से (सचध्वम्) मिले रहो, और (नः) हमें (प्रतरम्) अधिक श्रेष्ठ (आयुः) आयु (जीवसे) जीवन के लिये (धत्त) दान करो ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य ब्रह्मचर्य, योगाभ्यास, विद्याप्राप्ति आदि कर्मों से हृष्ट-पुष्ट रह कर संसार का उपकार करके कीर्ति पावें ॥३॥ यह मन्त्र स्वामी दयानन्द कृत “संस्कारविधि, जातकर्म” में आशीर्वाद का है ॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    ३−(मा हासिषुः) ओहाक् त्यागे−लुङ्। मा त्यजन्तु (नः) अस्मान् (ऋषयः) अ० ४।११।९। व्यापनशीलाः। दर्शनशीलाः। त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धयः। अथवा। शीर्षण्यानि सप्तच्छिद्राणि (दैव्याः) अ० २।२।२। दिव्यगुणयुक्ताः (ये) ऋषयः (तनूपाः) तन्वाः शरीरस्य पातारः (ये) (नः) अस्माकम् (तन्वः) शरीरस्य (तनूजाः) तन्वा विस्तृत्या सह जाताः (अमर्त्याः) अ० ४।३७।१२। अमराः। नित्योत्साहिनः (मर्त्यान्) अ० ४।३७।१२। मर्तेभ्यो मनुष्येभ्यो हितान् (अभि) अभितः (नः) अस्मान् (सचध्वम्) समवेत (आयुः) जीवनम् (धत्त) डुधाञ् धारणपोषणदानेषु। दत्त (प्रतरम्) प्रकृष्टतरम् (जीवसे) जीवनाय (नः) अस्मभ्यम् ॥

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    विषय

    सप्त ऋषयः

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (दैव्या:) = देवों में होनेवाले अथवा देव [प्रभु] की प्राप्ति के साधनभूत (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा सात शरीरस्थ ऋषि हैं, वे (न:) = हमें (मा) = मत (हासिषु:) = छोड़नेवाले हों। वे 'दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें, एक मुख'-सात ऋषि (ये) = जो (तनूपा:) = शरीर का रक्षण करनेवाले हैं, वे (न: तन्व:) = हमारे शरीर से ही (तनूजा:) = शरीर-सम्बन्धी इन्द्रियों के रूप में उत्पन्न होनेवाले हैं। २. हे (अमर्त्यः) = अमर्त्य ऋषियो! (मर्त्यान् न:) = मरणधर्मा हम लोगों को (अभिसचध्वम्) = अभितः प्राप्त होओ और (न: जीवसे) = हमारे प्रकृष्ट जीवन के लिए (प्रतरं आयु:) = दीर्घजीवन को (धत्त) = धारण कराओ।

    भावार्थ

    शरीरस्थ सात इन्द्रियाँ ही सप्तर्षि हैं। ये हममें स्थित हों और हमें दीर्घजीवन प्रदान करें।

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    भाषार्थ

    (ये) जो (दैव्याः) देवों सम्बन्धी (ऋषयः) ऋषि हैं वे (नः) हमारा (हासिषुः मा) परित्याग न करें, ( ये ) जो ऋषि कि ( तनूपा:) शरीर के रक्षक हैं (ये) जो (नः) हमारे (तन्वः) शरीर से (तनूजाः) शरीर में ही पैदा होते हैं। (अमर्त्याः) हे अमरणशील ऋषियों ! (न: मर्त्यान्) हम मरणशीलों को (अभि सचध्वम् ) प्राप्त होओ, (नः) हमारे ( जीवसे ) जीवित होने के लिये (प्रतरम्) श्रेष्ठ तथा दीर्घ (आयु:) आयु (धत्त) प्रदान करो।

    टिप्पणी

    [मन्त्र से स्पष्ट प्रतीत होता है कि "ऋषि" शरीरस्थ हैं, और शरीर से उत्पन्न होते हैं। ये हैं "षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी" (निरुक्त १२।४।३७) तथा (यजु० ३४।५५)। ये ऋषि अमर्त्य हैं, शरीर की मृत्यु हो जाने पर भी ये कारण शरीर में आत्मा के साथ पुनर्जन्म में भी जाते हैं। इन का बाह्य देवों के साथ सम्बन्ध है, बाह्य देव, यथा “वायु, जल, सूर्य आदि"। इन बाह्य देवों के कारण सात ऋषियों की स्थिति शरीर में होती है।]

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    विषय

    अध्यात्म शक्तियों की साधना।

    भावार्थ

    (दैव्याः ऋषयः) दिव्य गुणसम्पन्न अथवा देव आत्मा से सम्बद्ध, अथवा देव इन्द्रियमय ऋषिगण, ज्ञनसाधन आंख, नाक, कान, मुख, त्वचा, रसना आदि ज्ञानेन्द्रियें (नः) हमें (मा हासिषुः) जीवन भर त्याग न करें। और (ये) जो (नः) हमारे (तनू-पाः) शरीर के रक्षक प्राण और (तन्वः) शरीर के ही अङ्ग और (तनू-जाः) शरीर से उत्पन्न होने वाले हाथ पांव आदि अंग हैं वे भी हमारा त्याग न करें। ये सब हमारे स्वस्थ बने रहें। हे आत्मा के (अमर्त्याः) न मरने वाले प्राणो ! तुम (नः) हम (मर्त्यान्) मर्त्य पुरुषों को (अभि सचध्वम्) प्राप्त होओ। और (नः) हमारे (जीवसे) जीवन के लिये (प्रतरं आयुः) बहुत दीर्घ जीवनकाल (धत्त) बनाये रक्खो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। बहवः उत चन्द्रमा देवता। १ भुरिगनुष्टुप्, २ अनुष्टुप्, ३ त्रिष्टुप्, तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-Expansion

    Meaning

    May the divine senses of perception and volition, those powers which nourish and sustain our body, those that are born of our body system, never forsake us. May the immortal divinities ever abide with us, the mortals. May they nourish and sustain us and give us good health and long age for a happy life.

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    Translation

    May the divine seers, who are protectors of our bodies, who are our very bodies, and who are born of or bodies, never desert us. O immortals, may you’ remain closely associated with us, the mortals. Bestow long life on us for living nobly,

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    Translation

    Let not the limbs and senses having their direct contact with our conscious self, which are the part and parcel of our bodies, which guard our bodies and which are born with our bodies, leave us throughout our lives. Let these immortals still attend us, the mortals and provide with vital to live longer.

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    Translation

    Let not the Rishis, the divine, forsake us, our own, our very selves, our lives protectors. Do ye immortal, still attend us mortals, and give us noble life to live long.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(मा हासिषुः) ओहाक् त्यागे−लुङ्। मा त्यजन्तु (नः) अस्मान् (ऋषयः) अ० ४।११।९। व्यापनशीलाः। दर्शनशीलाः। त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धयः। अथवा। शीर्षण्यानि सप्तच्छिद्राणि (दैव्याः) अ० २।२।२। दिव्यगुणयुक्ताः (ये) ऋषयः (तनूपाः) तन्वाः शरीरस्य पातारः (ये) (नः) अस्माकम् (तन्वः) शरीरस्य (तनूजाः) तन्वा विस्तृत्या सह जाताः (अमर्त्याः) अ० ४।३७।१२। अमराः। नित्योत्साहिनः (मर्त्यान्) अ० ४।३७।१२। मर्तेभ्यो मनुष्येभ्यो हितान् (अभि) अभितः (नः) अस्मान् (सचध्वम्) समवेत (आयुः) जीवनम् (धत्त) डुधाञ् धारणपोषणदानेषु। दत्त (प्रतरम्) प्रकृष्टतरम् (जीवसे) जीवनाय (नः) अस्मभ्यम् ॥

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