Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 43 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 43/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भृग्वङ्गिरा देवता - मन्युशमनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मन्युशमन सूक्त
    63

    वि ते॑ हन॒व्यां श॒रणिं॒ वि ते॒ मुख्यां॑ नयामसि। यथा॑व॒शो न वादि॑षो॒ मम॑ चि॒त्तमु॒पाय॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । ते॒ । ह॒न॒व्या᳡म् । श॒रणि॑म् । वि । ते॒ । मुख्या॑म् । न॒या॒म॒सि॒ । यथा॑ । अ॒व॒श: । न ।‍ वादि॑ष: । मम॑ । चि॒त्तम् । उ॒प॒ऽआय॑सि ॥४३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि ते हनव्यां शरणिं वि ते मुख्यां नयामसि। यथावशो न वादिषो मम चित्तमुपायसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । ते । हनव्याम् । शरणिम् । वि । ते । मुख्याम् । नयामसि । यथा । अवश: । न ।‍ वादिष: । मम । चित्तम् । उपऽआयसि ॥४३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 43; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    क्रोध की शान्ति के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (ते) तेरे (हनव्याम्) ठोड़ी में वर्त्तमान और (ते) तेरे (मुख्याम्) मुख पर वर्त्तमान (शरणिम्) हिंसा के चिह्न को (वि वि नयामसि) सर्वथा हम हटाते हैं। (यथा) जिससे (अवशः) परवश (न=न भूत्वा) न होकर (वादिषः) तू बातचीत करे, (मम) मेरे (चित्तम्) चित्त में (उप आयसि) तू पहुँच करता है ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य अपने शरीर के सब अङ्गों से सुचेष्टा करके सबका प्रिय रहे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(ते) तव (हनव्याम्) शरीरावयवाच्च। पा० ४।३।५५। इति हनु−यत्। ओर्गुणः। पा० ६।४।१४६। इति गुणः। वान्तो यि प्रत्यये। पा० ६।१।७९। इति अवादेशः। हनौ वर्तमानाम् (शरणिम्) अर्त्तिसृधृ०। उ० २।१०२। इति शॄ हिंसायाम्−अनि। हिंसालक्षणम् (मुख्याम्) मुख−यत् पूर्ववत्। मुखे वर्त्तमानाम् (वि वि नयामसि) सर्वथा विनयामः। अपगमयामः। अन्यद् गतम्−सू० ४२। म० ३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    हनव्या मुख्यां शरणिं विनयामसि

    पदार्थ

    १. हे क्रोधाविष्ट पुरुष! (ते हनव्याम्) = तेरी हनु सम्बन्धी (शरणिम्) = हिंसा-हेतुभूत क्रोधा भिव्यञ्जक धमनि को (विनयामसि) = विनीत करते हैं-दूर करते हैं, तथा (ते) = तेरी (मुख्याम्) = मुख पर उत्पन्न होनेवाली, क्रोधवश उत्पन्न नाड़ी को भी (वि) = विनीत करते हैं, २. (यथा) = जिससे (अवश:) = क्रोध के परवश हुआ-हुआ तू (न वादिष:) = व्यर्थ नहीं बोलता और (मम चित्तम् उपायसि) = मेरे मन को समीपता से प्रास होता है।

    भावार्थ

    दर्भ के प्रयोग से हम क्रोधाविष्ट के क्रोध को शान्त करें, जिससे यह व्यर्थ न बोलता हुआ अनुकूल मनवाला हो।

    विशेष

    क्रोधशून्य जीवनवाला यह व्यक्ति सबका मित्र 'विश्वामित्र' बनता है। इसका शरीर भी नीरोग है। यही अगले सूक्त का ऋषि है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    [हे पति !] (ते) तेरी (हनव्याम्) हनु-सम्बन्धी (शरणिम्) हिंसा अर्थात् क्रोधमयी वाणी को (विनयामसि) हम विनययुक्त अर्थात् विनीत करते हैं, (ते) तेरी (मुख्याम्) मुख सम्बन्धी (शरणिम्) हिंसा अर्थात् क्रोधमयी वाणी को (विनयामसि) हम विनययुक्त अर्थात् विनीत करते हैं। (यथा) जिस प्रकार कि (अवशः) निज वश में न रहा, अर्थात् मुझ पत्नी के वश में हुआ तू (न वादिषः) क्रोधमयी वाणी न बोले, और (मम चित्तम्) मेरे चित्त के (उप) समीप (आ आयसि) तू आ जाय, मेरे अनुकूल हो जाय।

    टिप्पणी

    [बोलते समय आवाज मुख से बोली जाती है और निचली हनु साथ-साथ हिलती है। अतः वोलने का सम्बन्ध दांतों के साथ है, मुख के साथ तथा हनु के साथ। शरणिम्= शॄ हिंसायाम् (क्र्यादिः)]।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    क्रोधशान्ति के उपाय।

    भावार्थ

    हे पुरुष (ते) तेरी (हनव्याम्) ठोढ़ी में विद्यमान और (ते मुख्यां) तेरे मुख में विद्यमान (शरणिम्) हिंसा और क्रोध के भाव को उत्पन्न करने वाली वाणी को (वि नयामसि) विनीत शिक्षित कर लें। (यथा) जिससे (अवशः) लाचार होकर (न वादिपः) तू अधिक क्रोध के वचन न बोल सके और (मम चित्तम् उप आयसि) मेरे चित्त के अति समीप मित्र होकर रहे। अर्थात् परस्पर का क्रोध शान्त करने के लिए वाणी पर वश करना चाहिए। इससे भी दोनों के चित्त परस्पर मिल जायेंगे। यदीच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा। परापवादसस्येभ्यो गां चरन्तीं निवारय॥ अथवा वाणी को सभ्य शिक्षा देनी चाहिए जिससे गाली आदि मुँह पर न आवे।

    टिप्पणी

    ‘मुख्ये’ इति क्वचित्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परस्परैकचित्तकरणे भृग्वङ्गिरा ऋधिः। मन्युशमनं देवता। अनुष्टुप् छन्दः। तृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Calmness of Anger

    Meaning

    We remove the angry distortions on your chin and face so that your mind is equal and tranquil with mine and you would not talk like one possessed.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    We remove the trace of anger, set in your chain and, set in your face (mouth), so that may not talk uncontrolled and be accordant with my heart.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Whatever spirit of contumacy remain in your chin and whatever ts in your mouth, O man! I draw away from you, so that you do yield you to my will to speak no more in anger.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O man, we control thy tongue, which creates the feeling of violence and anger in thy chin or mouth, so that being helpless thou utterest not angry words, and becomest subservient to my will.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(ते) तव (हनव्याम्) शरीरावयवाच्च। पा० ४।३।५५। इति हनु−यत्। ओर्गुणः। पा० ६।४।१४६। इति गुणः। वान्तो यि प्रत्यये। पा० ६।१।७९। इति अवादेशः। हनौ वर्तमानाम् (शरणिम्) अर्त्तिसृधृ०। उ० २।१०२। इति शॄ हिंसायाम्−अनि। हिंसालक्षणम् (मुख्याम्) मुख−यत् पूर्ववत्। मुखे वर्त्तमानाम् (वि वि नयामसि) सर्वथा विनयामः। अपगमयामः। अन्यद् गतम्−सू० ४२। म० ३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top