अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 55/ मन्त्र 3
इ॑दावत्स॒राय॑ परिवत्स॒राय॑ संवत्स॒राय॑ कृणुता बृ॒हन्नमः॑। तेषां॑ व॒यं सु॑म॒तौ य॒ज्ञिया॑ना॒मपि॑ भ॒द्रे सौ॑मन॒से स्या॑म ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दा॒व॒त्स॒राय॑ । प॒रि॒ऽव॒त्स॒राय॑ । स॒म्ऽव॒त्स॒राय॑ । कृ॒णु॒त॒ । बृ॒हत् । नम॑: । तेषा॑म् । व॒यम् । सु॒ऽम॒तौ । य॒ज्ञिया॑नाम् । अपि॑ । भ॒द्रे। सौ॒म॒न॒से । स्या॒म॒ ॥५५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इदावत्सराय परिवत्सराय संवत्सराय कृणुता बृहन्नमः। तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ॥
स्वर रहित पद पाठइदावत्सराय । परिऽवत्सराय । सम्ऽवत्सराय । कृणुत । बृहत् । नम: । तेषाम् । वयम् । सुऽमतौ । यज्ञियानाम् । अपि । भद्रे। सौमनसे । स्याम ॥५५.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब सम्पत्ति प्राप्ति के लिये उपदेश।
पदार्थ
(परिवत्सराय) सब ओर से निवास करानेवाले पिता को, (इदावत्सराय) विद्या में निवास करानेवाले आचार्य को और (संवत्सराय) यथानियम निवास करानेवाले राजा को तुम (बृहत्) बहुत-बहुत (नमः) नमस्कार (कृणुत) करो। (तेषाम्) उन (यज्ञियानाम्) उत्तम व्यवहार करने हारों के (अपि) ही (सुमतौ) सुमतिवाले और (भद्रे) कल्याणकारक (सौमनसे) हार्दिक स्नेह में (वयम्) हम लोग (स्याम) रहें ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य माता-पिता, आचार्य और राजा की आज्ञा सत्कारपूर्वक मानकर उत्तम विद्या प्राप्त करके आनन्द से रहें ॥३॥ इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध यजुर्वेद में है−अ० १९।५० ॥
टिप्पणी
३−(इदावत्सराय) इडा+वत्सराय, डस्य दः। वसेश्च। उ० ३।७१। इति वस निवासे−सरन्। सः स्यार्धधातुके। पा० ७।४।४९। इति सस्य तकारः। इडायां विद्यायां निवासकायाचार्याय (परिवत्सराय) परितो निवासकाय जनकाय (संवत्सराय) संपूर्वाच्चित्। उ० ३।७२। इति सम्+वस−सरन्, स च चित् तत्वं च। सम्यग् यथाविधि निवासकाय राज्ञे (कृणुत) कुरुत (बृहत्) प्रभूतम् (नमः) नमस्कारम् (तेषाम्) (वयम्) (सुमतौ) शोभनबुद्धियुक्ते (यज्ञियानाम्) यज्ञर्त्विग्भ्यां घखञौ। पा० ५।१।७१। इति घ प्रत्ययः। पूजार्हाणां विदुषाम् (अपि) एव (भद्रे) कल्याणकारके (सौमनसे) सुमनस्−अण्। सुमनसो भावे। हार्दिक−स्नेहे (स्याम) भवेम ॥
विषय
इदावत्सर, परिवत्सर, संवत्सर
पदार्थ
हम अपने जीवन में सर्वप्रथम अग्रगति का पाठ पढ़ें-हमारे जीवन का ध्येय 'आरोहणम्, 'आक्रमणम्' हो। फिर हम सूर्य की भाँति ज्ञान से दीप्त बनने के लिए यत्नशील हों और अपने मनों को चन्द्र की भाँति सौम्य बनाएँ। हमारे जीवन का लक्ष्य 'सुमति व भद्र सौमनस' को प्राप्त करना हो।
भावार्थ
इसप्रकार जीवन का विकास करते हुए हम 'शन्ताति' बनें-शान्ति का विस्तार करनेवाले। यह शन्ताति ही अगले दो सूक्तों का ऋषि है -
भाषार्थ
(इदावत्सराय) चन्द्रमा के लिये, (परिवत्सराय) आदित्य के लिये, (संवत्सराय) अग्नि के लिये (बृहत्) बहुत (नमः) अन्नाहुतियां (कृणुत) करो, प्रदान करो। (तेषाम्) उन (यज्ञियानाम्) यज्ञयोग्यों के सम्बन्धी (सुमतौ) सुमति में (वयम्, स्याम) हम हों, और (भद्रे) सुखप्रद तथा कल्याणमय (सौमनसे) उत्तम-मानसिक प्रसन्नता में (अपि) भी हों।
टिप्पणी
["अग्निर्वाव संवत्सरः, आदित्यः परिवरत्सर:, चन्द्रमा इदावत्सरः, वायुरनुवत्सरः" (ते० ब्रा० १।४।१०॥१)। वत्सर का अर्थ है "वर्ष", यथा "वसन्त्यस्मिन्निति वत्सरः१ वर्षो वा" (उणा० ३॥७१)। अग्नि, चन्द्रमा, आदित्य, वायु, सुखपूर्वक वास के लिये हो सकें, इस उद्देश से अग्नि में बहुतायत में अन्नादि की आहुतियां होनी चाहिये। नमः अन्ननाम (निघं० २॥७)। उचित पदार्थों की आहुतियां से वायु आदि शुद्ध हो कर मति अर्थात मनन शक्ति को सात्त्विक करते और मानसिक सुप्रसन्नता बढ़ाते हैं। यथा 'आयुयज्ञेन कल्पतां प्राणो यज्ञेन कल्पता चक्षुर्यज्ञेन कल्पतां श्रोत्रं यज्ञेन कल्पतां वाक् यज्ञेन कल्पतां मनो यज्ञेन कल्पताम्...." (यजु० १८॥२९) में "मन:" आदि की शक्ति का सम्बन्ध यज्ञकर्म के साथ दर्शाया है। यजुर्वेद (३०।१५) में निम्नलिखित वत्सरों का कथन हुआ है। यथा 'संवत्सराय, परिवत्सराय, इदावत्सराय, इद्वत्सराय, वत्सराय, संवत्सराय"]। [अथवा १.-व्याख्येय सूक्त के प्रकरणानुसार मन्त्रार्थ निम्नलिखित हैं–प्रकरण है अन्तरिक्षीय वायुयानों द्वारा व्यापार। इसके लिये नव व्यापारियों को शिक्षित करना है। एतदर्थ उन्हें वायुयानों को चला सकने, उनकी मुरम्मत कर सकने, तथा वायुयानों के भिन्न-भिन्न अन्तरिक्षीय मार्गों के परिज्ञान की आवश्यकता है। इस के लिये त्रिवर्षीय शिक्षा का कथन मन्त्र (३) में हुआ है। मन्त्र (३) में तीन वर्षों के नामों का भी कथन हुआ है, जिस से कि भिन्न-भिन्न वर्ष की पहिचान सुगमता से हो सके। इस अर्थ में "तेषां यज्ञियानाम् सुमतौ" आदि का अर्थ है कि– "उन गुरुओं,-जो कि व्यापार-यज्ञ कराने की योग्यता रखते हैं,-की सुमति तथा सौमनस में हम शिष्य रहें। मन्त्र (३) में तीन वत्सरों का वर्णन हुआ है,-इदावत्सर, परिवत्सर, और संवत्सर। परन्तु यजुर्वेद में संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर और वत्सर ये नाम पठित हैं। इन के अभिप्राय हैं- संवत्सर= सम्यक्-वत्सर, जिस का व्यवहार में सम्यक् प्रयोग होता है, वह है पृथिवी की सौर-परिक्रमा का काल। परिवत्सर है व्यापी वत्सर, बृहस्पति या शनैश्चर का सौर-परिक्रमा का काल। इदा = इडा =अन्न (निघं० २-७); अतः इदावत्सर है अन्न-वत्सर, अर्थात् अन्नबीज बोने पर वह जितने काल में परिपक्व हो जाता है वह काल। इद्वत्सर में इद् है इन्दु अर्थात् चन्द्रमा। चन्द्रमा जितने काल में पृथिवी की परिक्रमा करता है वह काल। वत्सर है नक्षत्र के उदय होने से अगले दिन में उस के उदय होने तक का काल, इसे नाक्षत्र दिन कहते हैं, ऐसे ३६० दिन होते हैं, नाक्षत्र वर्ष में। इन कालों या वत्सरों का यथार्थ ज्ञान वायुयानों के संचालकों के लिये आवश्यक है। विशेष रूप में इदावत्सर, परिवत्सर और संवत्सर का परिज्ञान।]
विषय
उत्तम मार्गों से जाने और सुख से जीवन व्यतीत करने का उपदेश।
भावार्थ
(इदावत्सराय परिवत्सराय संवत्सराय) इदावत्सर, परिवत्सर और संवत्सर के लिये (बृहत् नमः कृणुत) बहुत प्रचुर अन्न उत्पन्न करो। (तेषाम्) उन (यज्ञियानाम्) यज्ञ करने वाले पुरुष की (सुमतौ) शुभ कल्याणकारिणी बुद्धि में और (सौमनसे) उत्तम मनः-संकल्प से उत्पन्न होनेवाले (भद्रे अपि) कल्याण सुख में (स्याम) सदा रहें। प्रभव से आदि लेकर प्रत्येक पंचयुगी के वर्षों में क्रम से संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर और उदावत्सर ये पांच संज्ञाएं होती हैं। अथवा—अग्निर्वा संवत्सरः। आदित्यः परिवत्सरः। चन्द्रमा इदावत्सरः। वायुरनुवत्सरः। तै० ब्रा० १। ४। १०। १॥ अग्नि, आदित्य और चन्द्रमा इनके लिये हम नमः करते हैं अर्थात् इनका सदा ध्यान रखते हैं। जिससे ठीक ठीक काल का ज्ञान हो और ठीक ठीक समय पर उचित यज्ञों का विधान कर सकें और विद्वानों की शुभ मति और उत्तम कल्याणकारी सुख में हम सदा रहें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। १ विश्वेदेवा देवताः, २, ३ रुद्रः। १, ३ जगत्यौ, २ त्रिष्टुप्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Highest Path to Follow
Meaning
For the first, second, and indeed for every year throughout the twelve months and three hundred and sixty days of every year in a planned cycle of five years, produce ample food and wealth and do honour to the parent, the teacher, and the ruling order of law and peace, and let us live in their love and goodwill and enjoy the blessings of people dedicated to creative and developmental yajna of the nation.
Translation
Grow abundant food-grains for the third year, the second and the first year. May we ever be held in good grace and benign friendship of those, who are engaged in selfless actions. (yajniyanam = yajnika = people engaged in public service i.e., in selfless actions.)
Translation
Let us produce plenty of corn for the period of Idavatsara, Parivatasara and Samvatasara. May we abide in the auspicious favor and gracious guidance of those learned ones who perform yajnas.
Translation
Pay lofty adoration to the teacher who makes us dwell in knowledge, to the father who affords us shelter, to the king who grants us residence. May we abide in the auspicious favor and gracious love of these who claim our worship.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(इदावत्सराय) इडा+वत्सराय, डस्य दः। वसेश्च। उ० ३।७१। इति वस निवासे−सरन्। सः स्यार्धधातुके। पा० ७।४।४९। इति सस्य तकारः। इडायां विद्यायां निवासकायाचार्याय (परिवत्सराय) परितो निवासकाय जनकाय (संवत्सराय) संपूर्वाच्चित्। उ० ३।७२। इति सम्+वस−सरन्, स च चित् तत्वं च। सम्यग् यथाविधि निवासकाय राज्ञे (कृणुत) कुरुत (बृहत्) प्रभूतम् (नमः) नमस्कारम् (तेषाम्) (वयम्) (सुमतौ) शोभनबुद्धियुक्ते (यज्ञियानाम्) यज्ञर्त्विग्भ्यां घखञौ। पा० ५।१।७१। इति घ प्रत्ययः। पूजार्हाणां विदुषाम् (अपि) एव (भद्रे) कल्याणकारके (सौमनसे) सुमनस्−अण्। सुमनसो भावे। हार्दिक−स्नेहे (स्याम) भवेम ॥
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