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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 70/ मन्त्र 3
    ऋषिः - काङ्कायन देवता - अघ्न्या छन्दः - जगती सूक्तम् - अघ्न्या सूक्त
    59

    यथा॑ प्र॒धिर्यथो॑प॒धिर्यथा॒ नभ्यं॑ प्र॒धावधि॑। यथा॑ पुं॒सो वृ॑षण्य॒त स्त्रि॒यां नि॑ह॒न्यते॒ मनः॑। ए॒वा ते॑ अघ्न्ये॒ मनोऽधि॑ व॒त्से नि ह॑न्यताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । प्र॒ऽधि: । यथा॑ । उ॒प॒ऽधि: । यथा॑ । नभ्य॑म् । प्र॒ऽधौ । अधि॑ । यथा॑ । पुं॒स: । वृ॒ष॒ण्य॒त:। स्त्रि॒याम् । नि॒ऽह॒न्यते॑। मन॑: । ए॒व । ते॒ । अ॒घ्न्ये॒ । मन॑: । अधि॑। व॒त्से । नि । ह॒न्य॒ता॒म् ॥७०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा प्रधिर्यथोपधिर्यथा नभ्यं प्रधावधि। यथा पुंसो वृषण्यत स्त्रियां निहन्यते मनः। एवा ते अघ्न्ये मनोऽधि वत्से नि हन्यताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । प्रऽधि: । यथा । उपऽधि: । यथा । नभ्यम् । प्रऽधौ । अधि । यथा । पुंस: । वृषण्यत:। स्त्रियाम् । निऽहन्यते। मन: । एव । ते । अघ्न्ये । मन: । अधि। वत्से । नि । हन्यताम् ॥७०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 70; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमेश्वर की भक्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यथा) जैसे (प्रधिः) पहिये की पुट्ठी [अरों के जोड़ से] और (यथा) जैसे (उपधिः) अरों का जोड़ [पुट्ठों से] और (यथा) जैसे (नभ्यम्) नाभि स्थान (प्रधौ अधि) पुट्ठी के भीतर [जमा होता है], (यथा) जैसे म० १ ॥३॥

    भावार्थ

    मन्त्र एक के समान है ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(प्रधिः) उपसर्गे घोः किः। पा० ३।२।९२। इति धाञः−कि। रथचक्रस्य नेमिः (उपधिः) अराणां सन्धिः (नभ्यम्) उगवादिभ्यो यत्। पा० ५।१।२। इति नाभि−यत्। नाभये हितं रथाङ्गम्−अन्यत्पूर्ववत् ॥

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    विषय

    अध्या और वत्स

    पदार्थ

    १. (यथा) = जैसे (मांसम्) = फल का गूदा (यथा) = जैसे (सुरा) = मेघजल और (यथा) = जैसे (अधिदेवने) = [अधि परि दीव्यन्ति कितव:] द्यूत-स्थान में (अक्षा:) = पासे प्रियतम होते हैं और (यथा) = जैसे (वृषण्यतः पुंसः) = सुरतार्थी पुरुष का (मन:) = मन स्(त्रियां निहन्यते) = स्त्री के प्रति झुकाववाला होता है (एव) = उसी प्रकार हे अध्ये कभी भी नष्ट न करने योग्य वेदवाणि! (ते) = तेरा (मन:) = मन (अधिवत्से) = [वदति] इस स्वाध्यायशील व्यक्ति पर (निहन्यताम्) = प्रह्रीभूत हो। जिस प्रकार मांस आदि प्रेमास्पद होते है, इसीप्रकार मैं वत्स तेरा प्रेमास्पद बन पाऊँ, अर्थात् मैं कभी तुझसे पृथक् न होऊँ। २. (यथा) = जैसे (हस्ती) = हाथी (हस्तिन्या: पदम्) = हथिनी के पैर को (पदेन) = अपने पैर से प्रेमपूर्वक (उद्युजे) = ऊपर उठाता है, जैसे सुरतार्थी पुरुष का मन स्त्री के प्रति प्रेमवाला होता है, उसी प्रकार इस वेदवाणी का मन मेरे प्रति प्रेमवाला हो। ३. (यथा) = जैसे (प्रधि:) = लोहे का हल लकड़ी के बने भीतरी चक्र पर रहता है, (यथा) = जैसे (उपधिः) = लकड़ी का चक्र अरों के द्वारा भीतरी धुरे पर रहता है, (यथा नाभ्यम्) = जैसे बीच का धुरा (अधिप्रधौ) = क्रम से अरों और लकड़ी के चक्रसहित अरों पर आ जाता है। जैसे सुरतार्थी पुरुष का मन स्त्री पर गड़ा होता है, उसी प्रकार वेदवाणी का मन मुझ [वत्स] पर गड़ा हो।

    भावार्थ

    वेदवाणी का अध्ययन ही हमारा मांस हो, यही हमारी शराब वा मेघजल हो। यही हमारी द्यूतक्रीड़ा हो, यही हमारा प्रेमालिङ्गन हो। वेदवाणी हथिनी हो तो मैं उसका हाथी बनूँ। प्रधि, उपधि, नभ्य आदि जैसे परस्पर जुड़े होते हैं उसी प्रकार मैं और वेदवाणी जुड़े हुए हों। मैं कभी वेदाध्ययन का परित्याग न काँ। वेदवाणी अन्या गौ हो, मैं उसका वत्स [बछड़ा] बनें।

    विशेष

    यह वेदवाणी का वत्स 'ब्रह्मा' बनता है-ज्ञानी बनता है। यही ज्ञानी अन्नदोष व प्रतिग्रहदोष से बचने के लिए यत्नशील होता है।

     

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    भाषार्थ

    (यथा) जैसे (प्रधिः) रथचक्र की नेमि, (यथा) जैसे (उपधिः) नेमि से सम्बद्ध रथचक्र का घेरा, वलय, जिस के साथ “अरे" लगे रहते हैं; (यथा) जैसे (नभ्यम्) रथचक्र की नाभि का फलक (प्रधौ अधि) प्रधि अर्थात् नेमि देश के साथ सम्बद्ध रहता है। (यथा) जैसे (वृषण्यतः) कामाभिलाषी (पुंसः) पुरुष का (मन:) मन (स्त्रियाम्) स्त्री में (निहन्यते) प्रह्वीभूत हो जाता है. (एवा) इसी प्रकार (अघ्न्ये) हे अहन्तव्ये ! (ते मनः) तेरा मन (वत्से अधि) वत्स में (निहन्यताम्) प्रह्वीभूत हो जाय। भाव पूर्ववत् ( मन्त्र १)

    टिप्पणी

    [निहन्यताम्= नि (नितराम्) + हन् (गतौ, अदादि:), नितरां गतं भवतु, प्रह्वीभूतं भवतु। "प्रधि: प्रधीयत इति प्रधिः, रथचक्रस्य नेमिः। उपधिः उप तत्समीपे धोयत इत्युपधिः। नेमिसम्बद्धः अराणां सम्बन्धको वलयः। यथा प्रधि: उपधिना सम्बध्यते, उपधिश्च प्रधिना। यथा च नभ्यम् रथचक्रमध्यफलक [परम्परया] प्रधावधि नेमिदेशे सम्वध्यते। यथा एते परस्परं दुढ़संबन्धाः, एवं हे अघ्न्ये त्वदीयं मनः वत्से दृढसंबन्धं भवतु"१ (सायण)]। [१. अघ्न्या का मन वत्स में किस प्रकार से सम्बद्ध रहना चाहिये, इस में रथ या शकट के चक्र अर्थात् पहिये का दृष्टान्त दिया है। पहिये के केन्द्र में काष्ठ का एक गोल फलक [नभ्य] होता है, जिस के साथ अरों का एक किनारा सम्बद्ध रहता है, और दूसरा किनारा पहिये की प्रधि अर्थात् परिधि के साथ लगा रहता है। और गोलाकार परिधि [प्रधि] भी गोलाकार में झुकी हुई उपधियों अर्थात् पुट्ठियों, अवयवों के जोड़ों द्वारा बनी होकर इन पुट्ठियों [उपधियों] के साथ सम्बद्ध रहती है। पहिये के इन अवयवों का परस्पर में जिस प्रकार दृढ़ सम्बन्ध होता है, वैसा दृढ़ सम्बन्ध माता का निज वत्स [पुत्र पुत्री] के साथ होना चाहिये, यह भाव मन्त्र का है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Cow

    Meaning

    Just as the felly, the spokes, the axle and the hub, all are joined and concentrated within the circumference of the felly, as the mind of the exuberant lover is centred on his wife, so may your mind and purpose, O inviolable speech, be dedicated to the all immanent, all-comprehensive and transcendent presence of Supreme Brahma.

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    Translation

    As the felly is attached to the rim, as the rain is attached to the spokes; as the spokes are attached to the nave, as the mind of a passionate man is attachgd:to a woman; so, O inviolable one, let you mind be attached to your calf,

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    Translation

    As the felly and spok are close, as the wheel-rim are fixed on the nave, as the desire of an enamored man is set upon a woman in the same way let the mind of this cow be firmly set upon her calf.

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    Translation

    Just as iron felly is firmly attached to the wooden wheel, and the wheel rim is attached to the nave through spokes, just as a strong man's desire is firmly set upon a dame, so let thy heart and soul, O unassailable subjects be firmly set upon the All-pervading God!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(प्रधिः) उपसर्गे घोः किः। पा० ३।२।९२। इति धाञः−कि। रथचक्रस्य नेमिः (उपधिः) अराणां सन्धिः (नभ्यम्) उगवादिभ्यो यत्। पा० ५।१।२। इति नाभि−यत्। नाभये हितं रथाङ्गम्−अन्यत्पूर्ववत् ॥

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