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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 75 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 75/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कबन्ध देवता - इन्द्रः छन्दः - षट्पदा जगती सूक्तम् - सपत्नक्षयण सूक्त
    85

    एतु॑ ति॒स्रः प॑रा॒वत॒ एतु॒ पञ्च॒ जनाँ॒ अति॑। एतु॑ ति॒स्रोऽति॑ रोच॒ना यतो॒ न पुन॒राय॑ति। श॑श्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यो॒ याव॒त्सूर्यो॒ अस॑द्दि॒वि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एतु॑ । ति॒स्र: । प॒रा॒ऽवत॑: । एतु॑ । पञ्च॑ । जना॑न् । अति॑ । एतु॑ । ति॒स्र: । अति॑ । रो॒च॒ना । यत॑: । न । पुन॑: । आ॒ऽअय॑ति । श॒श्व॒तीभ्य॑: । समा॑भ्य: । याव॑त् । सूर्य॑: । अस॑त् । दि॒वि ॥७५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतु तिस्रः परावत एतु पञ्च जनाँ अति। एतु तिस्रोऽति रोचना यतो न पुनरायति। शश्वतीभ्यः समाभ्यो यावत्सूर्यो असद्दिवि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एतु । तिस्र: । पराऽवत: । एतु । पञ्च । जनान् । अति । एतु । तिस्र: । अति । रोचना । यत: । न । पुन: । आऽअयति । शश्वतीभ्य: । समाभ्य: । यावत् । सूर्य: । असत् । दिवि ॥७५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 75; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रु के हटाने का उपदेश।

    पदार्थ

    जो पुरुष (तिस्रः) तीन [अपने मानुष स्थान, नाम और जाति रूप] (परावतः) उत्कृष्ट भूमियों [वा धामों] को (अति=अतीत्य) उलाँघ कर (एतु) चले, और (पञ्च जनान्) पाँच [ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चारों वर्ण, और पाचवें नीच योनि, पशु, पक्षी, वृक्ष आदि] प्राणियों [की मर्यादा] को [उलाँघकर] (एतु) चले। वह पुरुष (तिस्रः रोचनाः) तीन [जीव, प्रकृति और परमेश्वर की] रुचि योग्य विद्याओं को [अथवा, सूर्य, चन्द्र और अग्नि के] प्रकाशों को (अति=अतीत्य) उलाँघ कर [वहाँ] (एतु) चला जावे, (यतः) जहाँ से वह (शश्वतीभ्यः समाभ्यः) बहुत बरसों तक (पुनः) फिर (न)(आयति) आवे, (यावत्) जब तक (सूर्यः) सूर्य (दिवि) अन्तरिक्ष में (असत्) रहे ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य मानुषी मर्यादा को छोड़ कर महाघोर पातक करते हैं, उनकी तामसी वृत्ति हो जाती है, और वे जन्म-जन्मान्तरों तक सदा दुःखसागर में डूबे रहते हैं ॥३॥ इस मन्त्र का मिलान करो−ऋग्वेद २।२७।८, ९ ॥ पदपाठ में (रोचना) पद के स्थान पर सायणभाष्य के अनुसार (रोचनाः) ऐसा पद हमने माना है ॥

    टिप्पणी

    ३−(एतु) गच्छतु। प्राप्नोतु (तिस्रः) त्रिसंख्याकाः (परावतः) म० २। परा प्राधान्ये। मानुषस्थाननामजन्मरूपा उत्कर्षगता भूमीर्धामानि वा। धामानि त्रयाणि भवन्ति स्थानानि नामानि जन्मानीति−निरू० ९।२८। (एतु) (पञ्च जनान्) पञ्च जनाः, मनुष्यनाम−निघ० ३।२। पञ्च जनाः... गन्धर्वाः पितरो देवा असुरा रक्षांसीत्येके चत्वारो वर्णा निषादः पञ्चम इत्यौपमन्यवो निषादः कस्मान्निषण्णमस्मिन् पापकमिति नैरुक्ता−निरु० ३।८। पञ्चभूतसम्बन्धिनः प्राणिनः। ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रांश्चतुरो वर्णान् नीचयोनिपशुपक्ष्यादिकं पञ्चमं च (अति) अतीत्य (एतु) (तिस्रः) त्रिसंख्याकाः (अति) उल्लङ्घ्य (रोचनाः) अनुदात्तेतश्च हलादेः। पा० ३।२।१४९। इति रुच दीप्तावभिप्रीतौ च−युच्। जीवप्रकृतिपरमेश्वराणां रोचिका विद्याः। यद्वा, सूर्यचन्द्राग्नीनां रोचमानाः प्रभाः (यावत्) यत्कालपर्यन्तम् (सूर्यः) लोकानां प्रेरक आदित्यः (असत्) भवेत् (दिवि) आकाशे ॥

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    विषय

    शत्रु फिर आक्रमण न कर सके

    पदार्थ

    १. इन्द्र से धकेला हुआ यह शत्रु (परावतः) = दूर वर्तिनी (तिस्त्र:) = तीनों भूमियों को (अतिएतु) = लाँधकर दूर चला जाए ['त्रयो व इमे त्रिवृतो लोकाः'-ऐत० २.१७, तिस्त्रो भूमीरियान् ऋ० २.२७.८]। यह (पञ्चजनान्) = 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद' रूप से पाँच भागों में बँटे हुए लोगों को अति-लाँघ जाए, अर्थात् समाज से इसका मेल न हो। यह (तिस्त्र: रोचना अति एतु) = सूर्य, विद्युत्, अग्निरूप तीनों ज्योतियों से अतिक्रान्त होकर गति करे-इसे उस स्थान पर कैद में रक्खा जाए, जहाँ सूर्यादि की प्रभा प्राप्त नहीं होती। २. इसे ऐसे स्थान पर बन्धन में डालकर रखा जाए कि (बत:) = जहाँ से यह (न पुन: आयति) = फिर हमपर आक्रमण नहीं कर पाता। (शश्वतीभ्य: समाभ्यः) = बहुत वर्षों तक यह हमपर आक्रमण का स्वप्र भी न ले-सके। यावत्-जब तक (सूर्यः दिवि असत्) = सूर्य धुलोक में है, तब तक यह शत्रु फिर लौटकर न आये।

    भावार्थ

    शत्रु को तीनों भूप्रदेशों से दूर किया जाए, मानव-समाज से इसे परे किया जाए, इसे अन्धकारमय स्थानों में बन्धन में रखा जाए, जिसे यह फिर हमारे राष्ट्र पर आक्रमण न कर सके।

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    भाषार्थ

    शत्रु (परावतः) दूरवर्ती (तिस्रः) तीन भूमियों को (अति एतु) अतिक्रान्त कर जाए, (पञ्च जनान्) पांच जनों को (अति एतु) अतिक्रान्त कर जाए। (तिस्रः रोचनाः) तीन प्रदीप्त लोकों का (अति एतु) अतिक्रमण कर जाय, (यतः) जहां से (न पुन: आयति) न फिर आए, न लौट कर आए (शाश्वतीभ्यः समाभ्यः) शाश्वतकालसम्बन्धी वर्षों से भी, अर्थात (यावत्) जितने वर्षों तक (सूर्यः) सूर्य (दिवि) द्यूलोक में (असद्) रहे।

    टिप्पणी

    [दूरवर्ती१ तीन भूमियां हैं-बुध, बृहस्पति, शनैश्चर। पञ्चजन हैं चार वर्णो के जन और एक निषादरूपी, इस प्रकार पांच प्रकार के मनुष्य। शत्रु जब मर कर पृथिवी से दूर चला गया तो उसका सम्पर्क पृथिवीवासी पाञ्चजनों के साथ न रहा। तीन प्रदीप्त लोक हैं द्युलोक, स्वर्गलोक तथा नाकलोक। यथा 'येन द्यौरुग्रा, येन स्वः स्तभितं, येन नाकः' (यजु० ३२।६)।] [१. और समीप की तीन भूमियां हैं, पृथिवी जो कि हमारे अत्यन्त समीप है, शुक्र तथा मंगल।]

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    विषय

    शत्रु को मार भगाने का उपदेश।

    भावार्थ

    हमारे से मार भगाया हुआ शत्रु (तिस्रः परावतः अति एतु) तीन दूरस्थ सीमाओं को पार कर जाय। और (पञ्च जनान् प्रति एतु) पांचों प्रकार की प्रजाओं को लांघ जाय। अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, निषाद् इन पांचों प्रकार की प्रजा में भी स्थान न पा सके। (तिस्रः रोचना अति एतु) तीनों प्रकाशमान ज्योतियों से भी वंचित हो अर्थात् वह न सूर्य का प्रकाश पा सके, न दीपक का और न चन्द्र का, प्रत्युत अंधेरी कोठड़ी में मारे भय के छिपा रहे। ऐसी जगह और ऐसी दुरवस्था में रहे कि (यतः) जहां से (पुनः) फिर (शश्वतीभ्यः समाभ्यः) अनन्त वर्षो तक (यावत् दिवि सूर्यः) जब तक आकाश में यह सूर्य (असत्) विद्यमान है तब तक (न आयति) वह लौटकर न आवे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सपत्नक्षयकामः कबन्ध ऋषिः। मन्त्रोक्ता इन्द्रश्च देवताः। १-२ अनुष्टुभौ, ३ षट्पदा जगती। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Drive off the Enemy

    Meaning

    Let the enemy go off beyond the three, his name, place and position, beyond the five peoples, beyond the three lights of sun, moon and knowledge, so that from there he never comes back for all times to come as long as the sun shines in heaven.

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    Translation

    Let him go beyond three remotest places; let him go beyond five races of minkind. Let him go beyond three shining lights, wherefrom he shall never come back, ever in years to come, as long as the sun is in the sky

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    Translation

    Let this enemy go to three distances (beyond The earth firmament and heaven), let him go beyond the five division of mankind (according to merit), let him go beyond three lights (light of the sun, light of the moon and light of the stars), whence he shall never return in all the years that are to come and as long as the sun is in heaven.

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    Translation

    Beyond the three distances, beyond mankind's five races, let the enemy go. Beyond the three lights let him go, whence he shall never come again, in all the years that are to be, long as the sun is in heaven.

    Footnote

    Three distances: Beyond earth, firmament and heaven. Five races: Brahman, Kshatriya, Vaisha, Shudra, Nishada or animals, birds, trees of low birth. Three lights: Sun, Moon Fire. The enemy be deprived of any kind of light, to pass his days in darkness, hidden in his cell.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(एतु) गच्छतु। प्राप्नोतु (तिस्रः) त्रिसंख्याकाः (परावतः) म० २। परा प्राधान्ये। मानुषस्थाननामजन्मरूपा उत्कर्षगता भूमीर्धामानि वा। धामानि त्रयाणि भवन्ति स्थानानि नामानि जन्मानीति−निरू० ९।२८। (एतु) (पञ्च जनान्) पञ्च जनाः, मनुष्यनाम−निघ० ३।२। पञ्च जनाः... गन्धर्वाः पितरो देवा असुरा रक्षांसीत्येके चत्वारो वर्णा निषादः पञ्चम इत्यौपमन्यवो निषादः कस्मान्निषण्णमस्मिन् पापकमिति नैरुक्ता−निरु० ३।८। पञ्चभूतसम्बन्धिनः प्राणिनः। ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रांश्चतुरो वर्णान् नीचयोनिपशुपक्ष्यादिकं पञ्चमं च (अति) अतीत्य (एतु) (तिस्रः) त्रिसंख्याकाः (अति) उल्लङ्घ्य (रोचनाः) अनुदात्तेतश्च हलादेः। पा० ३।२।१४९। इति रुच दीप्तावभिप्रीतौ च−युच्। जीवप्रकृतिपरमेश्वराणां रोचिका विद्याः। यद्वा, सूर्यचन्द्राग्नीनां रोचमानाः प्रभाः (यावत्) यत्कालपर्यन्तम् (सूर्यः) लोकानां प्रेरक आदित्यः (असत्) भवेत् (दिवि) आकाशे ॥

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