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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 84 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 84/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अङ्गिरा देवता - निर्ऋतिः छन्दः - जगती सूक्तम् - निर्ऋतिमोचन सूक्त
    33

    ए॒वो ष्वस्मन्नि॑रृतेऽने॒हा त्वम॑य॒स्मया॒न्वि चृ॑ता बन्धपा॒शान्। य॒मो मह्यं॒ पुन॒रित्त्वां द॑दाति॒ तस्मै॑ य॒माय॒ नमो॑ अस्तु मृ॒त्यवे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒वो इति॑ । सु । अ॒स्मत् । नि॒:ऽऋ॒ते॒ । अ॒ने॒हा । त्वम् । अ॒य॒स्मया॑न् । वि । चृ॒त॒ । ब॒न्ध॒ऽपा॒शान् । य॒म: । मह्म॑म् । पुन॑: । इत् । त्वाम् । द॒दा॒ति॒ । तस्मै॑ । य॒माय॑ । नम॑: । अ॒स्तु॒ । मृ॒त्यवे॑ ॥८४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवो ष्वस्मन्निरृतेऽनेहा त्वमयस्मयान्वि चृता बन्धपाशान्। यमो मह्यं पुनरित्त्वां ददाति तस्मै यमाय नमो अस्तु मृत्यवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एवो इति । सु । अस्मत् । नि:ऽऋते । अनेहा । त्वम् । अयस्मयान् । वि । चृत । बन्धऽपाशान् । यम: । मह्मम् । पुन: । इत् । त्वाम् । ददाति । तस्मै । यमाय । नम: । अस्तु । मृत्यवे ॥८४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 84; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पाप से मुक्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (निर्ऋते) हे अलक्ष्मी ! (त्वम्) तू (अनेहा) न मारनेवाली होकर (अस्मत्) हमसे (अयस्मयान्) लोहे की बनी (बन्धपाशान्) बन्धन की बेड़ियों को (एवो) अवश्य ही (सु) भले प्रकार (वि चृत) खोल दे। (यमः) न्यायकारी परमेश्वर (मह्यम्) मेरे लिये (पुनः) बार-बार (इत्) ही (त्वाम्) तुझको (ददाति) देता है, (तस्मै) उस (यमाय) न्यायकारी परमेश्वर को (मृत्यवे) दुःखरूप मृत्यु नाश करने के लिये (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य पाप कर्मों को छोड़ कर सदा धर्म आचरण करें। परमेश्वर अपनी न्यायव्यवस्था से पापियों को सदा दण्ड देता है ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से अ० ६।६३।२। में आ चुका है ॥

    टिप्पणी

    ३−(एवो) एव−उ। अवश्यमेव (सु) सुष्ठु। यथाविधि (अस्मत्) अस्मत्तः (निर्ऋते) म० १। हे कृच्छापत्ते (अनेहा) नञि हन एह च। उ० ४।२२४। इति हन्तेर्नञ्युपपदेऽसिः, धातोरेहादेशश्च। ऋदुशनस्पुरुदंशोऽनेहसां चा पा० ७।१।९४। इति सावनङ्। अहन्त्री। अबाधमाना (त्वम्) अन्यद् गतम्−अ० ६।६३।२ ॥

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    विषय

    अयस्मय बन्धपाशों का विभेदन

    पदार्थ

    १. हे निर्ऋते-पापदेवते! एव उ-इसप्रकार ही, अर्थात् गतमन्त्र के अनुसार त्यागवृत्ति के होने पर ही त्वम् अनेहा-तू हमारे लिए निष्पाप जीवनवाली होती है। तू अस्मत्-हमसे अयस्मयान्-लोहनिर्मित, अर्थात् अतिदृढ़ बन्धपाशान्-बन्धन-जालों को सुविचूत-सम्यक् छिन्न कर डाल । २. यमः सर्वनियन्ता प्रभु मह्यम्-मेरे लिए पुनः इत्-फिर भी-त्याग के अभाव में त्वां ददाति-तुझे दे देता है। जब हम त्यागवृत्ति को छोड़कर भोग-वृत्ति में चलते हैं तब प्रभु हमें फिर निर्जति में ले जाता है। तस्मै-उस यमाय-सर्वनियन्ता मृत्यवे-मृत्यु प्राप्त करानेवाले प्रभु के लिए नमः अस्तु-हमारा नमस्कार हो। हम प्रभु-स्मरण करते हुए भोगवृत्ति से बचे रहें।

    भावार्थ

    त्यागवृत्ति होने पर ऐश्वर्य हमारे लिए निर्ऋति बनकर पापमय जीवन का कारण नहीं बनता। 'यम' का स्मरण हमें पाप से बचाता है।

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    भाषार्थ

    (निर्ऋते) हे कृच्छ्रापत्ति ! (अनेहा) पाप से छुड़ानेवाली (त्वम्) तू (एव उ) ही (सु) सुष्ठु प्रकार से (अस्मत्) हम से (अयस्मयान्) लोहे सदृश सुदृढ़ (बन्धपाशान्) वान्धने वाले फन्दों को (विचृत) खोल दे, या काट दे। (यमः) नियन्ता परमेश्वर (पुनः इत्) पुनः (त्वाम्) तुझ को (मह्यम्) मुझे (ददाति) देता है (तस्मै) उस (यमाय मृत्यवे) मृत्यु नामक नियन्ता के लिये (नमः) नमस्कार (अस्तु) हो।

    टिप्पणी

    [कृच्छ्रापत्ति पापों से छुड़ाती है एतदर्थ देखो मन्त्र (१) की व्याख्या। अनेहा यथा अनेहसम्= अपापाम् (सायण अथर्व० ७।७।१)। पाशान् ये फन्दे त्रिविध हैं, स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक। इन फन्दों में जीवात्मा बन्धा हुआ है। यम और मृत्यु परमेश्वर के नाम हैं। यथा 'स महायमः, स एव मृत्युः (अथर्व० काण्ड १३ । अनुवाक ४ । पर्याय १ । मन्त्र ५); तथा (अथर्व० काण्ड १३।४।३। मन्त्र ४ [२५])। ददाति=तुझे फन्दों से छुड़ा कर पुनः मुझ गुरु को देता है]।

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    विषय

    आपत्ति और कष्टों के पापों से मुक्त होने की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (निर्ऋते) दुष्प्रवृत्ते ज्ञानशून्ये ! अविद्ये ! दुःखकारिणि ! (अनेहा) निश्चेष्ट अथवा आघातरहित होकर (एव उ) ही (त्वम्) तू हमारे (अय:-मयान्) आवागमन के बने हुए, मानो लोहे से बने (बन्धपाशान्) कर्मबन्धन के फन्दों को (अस्मत्) हमसे (विचृत) खोल दें, दूर कर। (यमः) सर्वनियन्ता प्रभु (पुनः इत्) फिर भी (वा) तुझको (मह्यम्) भोगनिमित्त मुझे (ददाति) प्रदान करता है। मैं (तस्मै) उस (यमाय) सर्व नियन्ता को (नमः) नमस्कार करता हूँ (मृत्यवे) जो देह को आत्मा से और आत्मा को बन्धनों से मुक्त करता है।

    टिप्पणी

    भोगापवर्गार्थं दृश्यम्। सांख्य०। प्रकृति का बना संसार ‘भोग’ के लिये है और यही तत्वज्ञानी के लिये ‘अपवर्ग’ का कारण होता है। (तृ० च०) ‘ये त्वाजनो भूमिरिति प्रमन्दते निर्ऋति त्वाह परिवेद विश्वतः’ इति यजु०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अङ्गिरा ऋषिः। निर्ऋतिर्देवता। १ भुरिक् जगती। २ त्रिपदा आर्ची बृहती। ३ जगती। ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। चतृऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Adversity or Destiny

    Meaning

    O Nir-rti, neither wholly cruel nor revengeful for sure, pray break the iron chains of bondage off from us. Yama, lord of karmic justice, ordains you unto me again and again. Homage to the lord of justice over birth and death with oblations of fresh and free karma in this life.

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    Translation

    O distress (perdition), not obstructing us, do loosen the iron fetters (ankusa), that bind us fast. The controller (death) verily gives, O man, back to me. Our homage be to that controller, the death. (Also Rg. VI.63.2)

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    Translation

    Let this misery of ignorance without mortifying anyone break the iron bonds which bind us first. God, the ordainor of destiny give this misery to us again and again and we pay our homage to Him who is the controller of all and the death of all.

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    Translation

    O poverty, trouble us not, release us from the iron bonds of sin that bind us. To me doth God verily restore thee. Homage be to that God, who releases the body from the soul, and the soul from the fetters of birth and rebirth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(एवो) एव−उ। अवश्यमेव (सु) सुष्ठु। यथाविधि (अस्मत्) अस्मत्तः (निर्ऋते) म० १। हे कृच्छापत्ते (अनेहा) नञि हन एह च। उ० ४।२२४। इति हन्तेर्नञ्युपपदेऽसिः, धातोरेहादेशश्च। ऋदुशनस्पुरुदंशोऽनेहसां चा पा० ७।१।९४। इति सावनङ्। अहन्त्री। अबाधमाना (त्वम्) अन्यद् गतम्−अ० ६।६३।२ ॥

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