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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 84 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 84/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अङ्गिरा देवता - निर्ऋतिः छन्दः - भुरिग्जगती सूक्तम् - निर्ऋतिमोचन सूक्त
    63

    यस्या॑स्त आ॒सनि॑ घो॒रे जु॒होम्ये॒षां ब॒द्धाना॑मव॒सर्ज॑नाय॒ कम्। भूमि॒रिति॑ त्वाभि॒प्रम॑न्वते॒ जना॒ निरृ॑ति॒रिति॑ त्वा॒हं परि॑ वेद स॒र्वतः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्या॑: । ते॒ । आ॒सनि॑ । घो॒रे । जु॒होमि॑ । ए॒षाम् । ब॒ध्दाना॑म् । अ॒व॒ऽसर्ज॑नाय । कम् । भूमि॑: । इत‍ि॑ । त्वा॒ । अ॒भि॒ऽप्रम॑न्वते । जना॑: । नि:ऽऋ॑ति: । इति॑। त्वा॒ । अ॒हम् । परि॑ । वे॒द॒। स॒र्वत॑: ॥८४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्यास्त आसनि घोरे जुहोम्येषां बद्धानामवसर्जनाय कम्। भूमिरिति त्वाभिप्रमन्वते जना निरृतिरिति त्वाहं परि वेद सर्वतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्या: । ते । आसनि । घोरे । जुहोमि । एषाम् । बध्दानाम् । अवऽसर्जनाय । कम् । भूमि: । इत‍ि । त्वा । अभिऽप्रमन्वते । जना: । नि:ऽऋति: । इति। त्वा । अहम् । परि । वेद। सर्वत: ॥८४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 84; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    पाप से मुक्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यस्याः) जिस (ते) तेरे (घोरे) भयानक (आसनि) मुख में (एषाम्) इन (बद्धानाम्) बँधे हुए प्राणियों के (अवसर्जनाय) छुड़ाने के लिये (कम्) कमनीय व्यवहार को (जुहोमि) मैं देता हूँ। (त्वा) उस तुझको (जनाः) पामर लोग (भूमिः इति) यह भूमि अर्थात् आश्रय देनेवाली है (अभिप्रमन्वते) मानते हैं। (अहम्) मैं (त्वा) तुझको (निर्ऋतिः इति) यह अलक्ष्मी है (सर्वतः) सब प्रकार से (परि वेद) भलीभाँति जानता हूँ ॥१॥

    भावार्थ

    अज्ञानी मनुष्य दुष्क्रिया को अपनी उन्नति की (भूमि) आश्रय समझते हैं, और बुद्धिमान् मनुष्य उसको (निर्ऋति) अलक्ष्मी अर्थात् अवनति का कारण जानते हैं, इसलिये विद्वान् मनुष्य अज्ञानबन्धन में फँसे हुए प्राणियों के छुड़ाने के लिये अलक्ष्मी के कारणों को जताकर उत्तम व्यवहार का उपदेश करें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(यस्याः) निर्ऋतेः (ते) तव (आसनि) आस्ये। मुखे (घोरे) घुर भीमभावे−अच्। भयानके (जुहोमि) ददामि (एषाम्) प्राणिनाम् (बद्धानाम्) बन्धगतानाम् (अवसर्जनाय) दुःखाद् विमोचनाय (कम्) अ० २।१।५। कः कमनो वा क्रमणं वा सुखो वा। निरु० १०।२२। कमनीयं व्यवहारम् (भूमिः) आश्रयभूता (इति) वाक्यसमाप्तौ (त्वा) तां त्वाम् (अभिप्रमन्वते) मनु अवबोधने। अभितः प्रबुद्धयन्ते (जनाः) पामरलोकाः (निर्ऋतिः) अ० २।१०।१। निर्ऋतिः−कृच्छापत्तिः−निरु० २।७। अलक्ष्मीः (इति) (त्वा) निर्ऋतिम् (अहम्) तत्त्वज्ञानी पुरुषः (परि) परितः (वेद) जानामि (सर्वतः) सर्वस्मात्कारणात् ॥

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    विषय

    निर्ऋति, नकि भूमि

    पदार्थ

    १. हे निव्रते [दुराचरण]! (यस्याः) = जिस (ते) = तेरे (घोरे आसनि) = भयंकर मुख में (जूहोमि) = मैं अपने को आहुत कर बैठता हूँ-मेरी सब इन्द्रियाँ विषयों से जकड़ी जाकर मेरे पतन का कारण बनती हैं, (एषाम्) = इन (बद्धानाम्) = विषयों से बद्ध इन्द्रियों के (अवसर्जनाय) = छुड़ाने के लिए (कम्) = उस आनन्दमय प्रभु को [जहोमि] मैं अपना अपर्ण करता हूँ। प्रभु ही मुझे इस निर्ऋति के बन्धन से मुक्त करेंगे। २. हे निते! (जना:) = समान्य लोग (त्वा) = तुझे (भूमिः इति) = [भवन्ति भूतानि यस्याम्] उत्तम निवास स्थान के रूप में (अभिप्रमन्वते) = मानते हैं-समझते हैं, परन्तु (अहम) = मैं (त्वा) = तुझे (सर्वत:) सब दृष्टिकोणों से (निर्ऋति: इति) = दुर्गति के कारणभूत दुराचार के रूप में (परिवेद) = जानता हूँ।

    भावार्थ

    इन्द्रियाँ दुराचार का शिकार होकर विषयों से बद्ध हो जाती हैं, प्रभु-स्मरण से हम इन्हें विषयों से मुक्त करें। विषयों को आनन्द का स्थान न मानकर हम इन्हें कष्ट [दुर्गति] का मूल जानें।

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    भाषार्थ

    (एषाम् बद्धानाम ) इन बद्ध शिष्यों के (अवसर्जनाय) बन्ध से छुटकारे के लिये (कम् अभि) और मोक्षसुख की प्राप्ति को लक्ष्य कर, (यस्याः ते) जिस तुझ के (आसनि) मुख में (जुहोमि) मैं आहुतियां देता हूं, (त्वा) उस तुझ को (जना:) सर्वसाधारण जन (भूमिः इति प्रमन्वते) भूमि मानते हैं, (अहम्) मैं (त्वा) तुझे (सर्वतः) सब ओर विद्यमान (निर्ऋतिः इति) कष्टापत्तिरूप (परिवेद) ठीक प्रकार से जानता हूं।

    टिप्पणी

    [कृच्छापत्ति अर्थात् कष्टापत्ति एक उपाय है, जो कि व्यक्ति को संसार से विरक्त कर परमेश्वर की ओर प्रेरित करता है। इस निमित्त शिष्य सद्गुरु का आश्रय लेता है, और परमेश्वरनिमित्त यज्ञविधि द्वारा सद्गुरु उसे शरणागत कर लेता है। वर्णन कविताशैली में मन्त्र में हुआ है। आहुतियां तो यज्ञाग्नि के मुख में ही देनी हैं।१ कम्= यथा 'कमिति सुखनाम, तत्प्रतिषिद्धं प्रतिषिध्येत' (निरुक्त २।४।१४)। भूमिरिति=प्रकृतिवादी यह मानते हैं कि हम भूमि से ही पैदा हुए, भूमि से ही पलते, भूमि में ही रहते, अतः भूमि ही 'निर्ऋति' है। 'निर्ऋति' वस्तुतः कृच्छ्रापत्ति है, कष्टापत्ति है, जो कि व्यक्ति और जनता अर्थात् जनसमुदाय के दुष्कर्मों का परिणाम है, फलरूप है]। [१. मोक्षाभिलाषी शिष्यों के सद्गुरु का कथन सूक्त ८४ में है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Adversity or Destiny

    Meaning

    O cruel Adversity, Nir-rti, into your fiery mouth I offer the sacrifice of my endeavour and comfort for for the freedom of these unfortunates who are bound down to slavery into your snares. Although these unfortunates believe that adversity is their destiny by birth, please know full well that I know full well that you are Nir-rti, adversity, slavery and the call of death because of sheer want of will, intelligence and action, you are not the destiny.

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    Subject

    Nir-rti (Perdition)

    Translation

    O you, in whose horrible mouth I sacrifice my happiness for the release of these bound ones - people consider you to be the earth but I know you thoroughly to be the distress (perdition) (Nir-rti).

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    Translation

    The worldly people absorbed in worldly luster’s know as the mine of pleasure this misery of ignorance in whose dreadful mouth I, the emancipated soul, lay down everything for the happy freedom of the bodies, limbs etc. but I thoroughly know that this is destructive misery of ignorance.

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    Translation

    O sinful idleness, in thy dreadful mouth, I sacrifice my joy, that these organs, thy bound victims, may obtain their freedom. Ignorant, ease-loving people deem that thou art their shelter and support: I know thee thoroughly and I say thou art Destruction, calamity and dissolution!

    Footnote

    Ignorant persons engaged in sensual pleasures consider idleness their support and stay, but a learned person considers it an evil and calamity. I: A learned person see Yajur, 12-64.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(यस्याः) निर्ऋतेः (ते) तव (आसनि) आस्ये। मुखे (घोरे) घुर भीमभावे−अच्। भयानके (जुहोमि) ददामि (एषाम्) प्राणिनाम् (बद्धानाम्) बन्धगतानाम् (अवसर्जनाय) दुःखाद् विमोचनाय (कम्) अ० २।१।५। कः कमनो वा क्रमणं वा सुखो वा। निरु० १०।२२। कमनीयं व्यवहारम् (भूमिः) आश्रयभूता (इति) वाक्यसमाप्तौ (त्वा) तां त्वाम् (अभिप्रमन्वते) मनु अवबोधने। अभितः प्रबुद्धयन्ते (जनाः) पामरलोकाः (निर्ऋतिः) अ० २।१०।१। निर्ऋतिः−कृच्छापत्तिः−निरु० २।७। अलक्ष्मीः (इति) (त्वा) निर्ऋतिम् (अहम्) तत्त्वज्ञानी पुरुषः (परि) परितः (वेद) जानामि (सर्वतः) सर्वस्मात्कारणात् ॥

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