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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 83 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 83/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अङ्गिरा देवता - सूर्यः, चन्द्रः छन्दः - एकावसाना द्विपदा निचृदार्ची सूक्तम् - भैषज्य सूक्त
    43

    वी॒हि स्वामाहु॑तिं जुषा॒णो मन॑सा॒ स्वाहा॒ मन॑सा॒ यदि॒दं जु॒होमि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वी॒हि । स्वाम् । आऽहु॑तिम् । जु॒षा॒ण: । मन॑सा । स्वाहा॑ । मन॑सा । यत् । इ॒दम् । जु॒होमि॑ ॥८३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वीहि स्वामाहुतिं जुषाणो मनसा स्वाहा मनसा यदिदं जुहोमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वीहि । स्वाम् । आऽहुतिम् । जुषाण: । मनसा । स्वाहा । मनसा । यत् । इदम् । जुहोमि ॥८३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 83; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    रोग नाश करने का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (मनसा) मन से (जुषाणः) प्रीति करता हुआ तू (स्वाम्) अपनी (आहुतिम्) धर्म से देने लेने योग्य क्रिया को (वीहि) प्राप्त हो, (यत्) क्योंकि (स्वाहा) सुन्दर वाणी से और (मनसा) उत्तम विचार से (इदम्) ऐश्वर्य का कारण ज्ञान (जुहोमि) मैं देता हूँ ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्य ईश्वर और विद्वानों के उपदेश अनुसार विचारपूर्वक पुरुषार्थ के साथ अपना कर्तव्य पालन करके प्रसन्न होवे ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(वीहि) प्राप्नुहि (स्वाम्) स्वकीयाम्। पौरुषेण प्राप्ताम् (आहुतिम्) हु दानादनयोः−क्तिन्। समन्ताद् दातव्यग्राह्यक्रियाम् (जुषाणः) प्रीयमाणः (मनसा) अन्तःकरणेन सुविचारेण (स्वाहा) सुवाण्या (मनसा) (यत्) यस्मात्कारणात् (इदम्) इन्देः कमिन् नलोश्च। उ० ४।१५७। इदि परमेश्वर्ये−कमिन्। ऐश्वर्यहेतु ज्ञानम् (जुहोमि) ददामि। उपदिशामि ॥

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    विषय

    प्रेमपूर्वक यज्ञशेष का सेवन

    पदार्थ

    १. हे रुग्णपुरुष! तू (स्वाम् आहुतिम्) = यज्ञशेष के रूप में ली गई अपनी इस भोज्य द्रव्य की आहुति को (मनसा जुषाण:) = मन से प्रीतिपूर्वक सेवन करता हुआ (वीहि) = खा। यजशेष का प्रीतिपूर्वक सेवन तुझे नीरोगता प्रदान करेगा। २. (यत् इदं जुहोमि) = यह जो मैं तुझे देता हूँ, उसे तू (मनसा) = मन के साथ-पूरे ध्यान के साथ (स्वाहा) = आहुत करनेवाला बन । तू यज्ञशेष ही खाना। यज्ञ करके बचे हुए को खाना ही अमृतभोजन है।

     

    भावार्थ

    प्रीतिपूर्वक यज्ञशेष का सेवन करने से गण्डमाला आदि रोग उत्पन्न ही नहीं होते। उत्पन्न हुए-हुए भी नष्ट हो जाते हैं। एवं, औषध के साथ पथ्य-सेवन आवश्यक है।

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    भाषार्थ

    [हे अपचित्१-रोगी!] (मनसा) मन से (जुषाणः) प्रीतिपूर्वक तू (स्वाम् आहुति) अपने भोज्यान्न को आहुतिरूप में (वीहि) खाया कर, [और संकल्प कर कि] (यद् इदम्) जो यह भोज्यान्न (जुहोमि) मैं जाठराग्नि में आहुतिरूप में देता हूं उसे (मनसा) विचारपूर्वक (स्वाहा) और स्वाहोच्वारणपूर्वक देता हूं।

    टिप्पणी

    [मन्त्र २ में निर्दिष्ट किया है कि अपचित्-रोग निर्बलों का हनन करता है, यतः यह क्षय का ही रूप है, तदर्थ पौष्टिक अन्न का सेवन करना चाहिये। मन्त्र ४ में अतः निर्देश किया है कि भोज्यान्न को आहुतिरूप में जाठराग्नि में आहुत करना चाहिये, और दृढ़संकल्पपूर्वक भोज्यान्न का चुनाव करना चाहिये। अपचित् है 'गले के scrofulous glands का सूजन'। गण्डमाला के लिये देखो (अथर्व० ६।२५।१-३)]। [१. अथर्व० ६॥२५॥१-३ में "अपचितामिव" द्वारा अपचितों और गण्डमालाओं में उपासनोपमेय भाव दर्शाने से इन दोनों में अर्थ भेद ज्ञात होता है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cure of Scrofulous Inflammation

    Meaning

    Take your share of the medicinal dose and go from the root. Take your share at the root from what I offer in the holy fire and go. (The remedy suggested, apart from the medicines, is sun light, moon light and fumes and aroma of the herbal offerings into the fire.)

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    Translation

    O disease, may you flee away, heartily enjoying the oblation offered to you, which I heartily offer. Svaha.

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    Translation

    O man! whatever medicine I, the physician prescribe carefully, and your own diet you eat very precautiously bearing pros and cons in your mind. Whatever is uttered herein is true.

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    Translation

    O Patient, with a happy mind, eat thy prescribed food. Accept gladly the efficacious, pungent medicine I give you to eradicate the disease.

    Footnote

    The verse can be translated thus also Gladly take your food. Accept reflectively whatever I (God) bestow on you. Don't use or eat anything without discrimination and thorough examination.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(वीहि) प्राप्नुहि (स्वाम्) स्वकीयाम्। पौरुषेण प्राप्ताम् (आहुतिम्) हु दानादनयोः−क्तिन्। समन्ताद् दातव्यग्राह्यक्रियाम् (जुषाणः) प्रीयमाणः (मनसा) अन्तःकरणेन सुविचारेण (स्वाहा) सुवाण्या (मनसा) (यत्) यस्मात्कारणात् (इदम्) इन्देः कमिन् नलोश्च। उ० ४।१५७। इदि परमेश्वर्ये−कमिन्। ऐश्वर्यहेतु ज्ञानम् (जुहोमि) ददामि। उपदिशामि ॥

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