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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 93 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 93/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शन्ताति देवता - भवः, शर्वः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वस्त्ययन सूक्त
    43

    मन॑सा॒ होमै॒र्हर॑सा घृ॒तेन॑ श॒र्वायास्त्र॑ उ॒त राज्ञे॑ भ॒वाय॑। न॑म॒स्येभ्यो॒ नम॑ एभ्यः कृणोम्य॒न्यत्रा॒स्मद॒घवि॑षा नयन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मन॑सा । होमै॑: । हर॑सा । घृ॒तेन॑ । श॒र्वाय॑ । अस्त्रे॑ । उ॒त ।राज्ञे॑ । भ॒वाय॑ । न॒म॒स्ये᳡भ्य: । नम॑: । ए॒भ्य॒: । कृ॒णो॒मि॒ । अ॒न्यत्र॑ । अ॒स्मत् । अ॒घऽवि॑षा: । न॒य॒न्तु॒ ॥९३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मनसा होमैर्हरसा घृतेन शर्वायास्त्र उत राज्ञे भवाय। नमस्येभ्यो नम एभ्यः कृणोम्यन्यत्रास्मदघविषा नयन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मनसा । होमै: । हरसा । घृतेन । शर्वाय । अस्त्रे । उत ।राज्ञे । भवाय । नमस्येभ्य: । नम: । एभ्य: । कृणोमि । अन्यत्र । अस्मत् । अघऽविषा: । नयन्तु ॥९३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 93; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सत्सङ्ग के लाभ का उपदेश।

    पदार्थ

    (मनसा) विज्ञान के साथ, (होमैः) देने और लेने योग्य व्यवहारों के साथ, (हरसा) अन्धकार हरनेवाले (घृतेन) प्रकाश के साथ वर्तमान (शर्वाय) [धर्मात्माओं के] कष्टनाशक, (अस्त्रे) ग्रहण करनेवाले (उत) और (भवाय) सुख देनेवाले (राज्ञे) राजा परमेश्वर को, और (एभ्यः) इन (नमस्येभ्यः) नमस्कार योग्य महात्माओं को (नमः) विनति (कृणोमि) करता हूँ। वे सब (अस्मत्) हम से (अन्यत्र) दूसरों पर [दुष्कर्मियों पर] (अघविषाः) पाप रूप विषवाली पीड़ाओं को (नयन्तु) ले जावें ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर के और विद्वानों के वेदविहित उपदेशों को मान कर दुराचारों को छोड़ कर धार्मिक होकर आनन्दित होवें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(मनसा) मन ज्ञाने−असुन्। विज्ञानेन सह (होमैः) अ० ४।३८।५। हु दानादानयोः−मन्। दातव्यग्राह्यव्यवहारैः (हरसा) अन्धकारेण हारकेण (घृतेन) घृ भासे−क्त। प्रकाशेन (शर्वाय) अ० ४।२८।१। कष्टनाशकाय (अस्त्रे) म० १। ग्रहीत्रे (उत) अपि च (राज्ञे) शासकाय (भवाय) अ० ४।˜२८।१। सुखोत्पादकाय परमेश्वराय (नमस्येभ्यः) नमस्कारार्हेभ्यो विद्वद्भ्यः (नमः) विनतिम् (एभ्यः) (कृणोमि) करोमि (अन्यत्र) अन्येषु दुष्कर्मिषु (अस्मत्) धार्मिकेभ्यः (अघविषाः) अघं पापमेव विषं विषवन्मृत्युकरं यासु ताः पीडाः (नयन्तु) प्रापयन्तु ॥

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    विषय

    शर्वाय, अस्त्र, राजे, भवाय

    पदार्थ

    १. (मनसा) = मानस संकल्प से (होमैः) = यज्ञों से हरसा-तेजस्विता के सम्पादन से (पतेन) = [घृ दीसि] ज्ञान-दीति से क्रमश: (शर्वाय) = काम आदि शत्रुओं का संहार करनेवाले, (अस्त्रे) = रोगों को परे फेंकनेवाले (उत) = और (राजे) = तेजस्विता से दीप्त (भवाय) = सर्वमहान् ऐश्वर्यशाली प्रभु के लिए तथा (नमस्येभ्यः एभ्यः) = नमस्कार के योग्य इन देवजनों के लिए (नमः कृणोमि) = नमस्कार करता हूँ। २. ये सब (अस्मत्) = हमारे लिए प्रीणित होकर (अघविषा:) = पापरूप विषवाली क्रियाओं को (अन्यत्र) = दूसरे स्थान पर-दूर (नयन्तु) = ले-जाएँ। उस प्रभु का हम 'शर्व, अला, राजा व भव' के रूप में स्मरण करते हुए पापों से बचें।

    भावार्थ

    हम दृढ़ मानस संकल्प द्वारा काम-क्रोध आदि का संहार करें, यज्ञों द्वारा रोगों को दूर करें, तेजस्विता से अपने जीवन को दीस बनाएँ तथा ज्ञानदौति द्वारा सर्वोत्तम ऐश्वर्यसम्पन्न बनें। देवजनों का आदर करते हुए पापरूप विषवाली क्रियाओं को अपने जीवन से दूर रक्खें।

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    भाषार्थ

    (शर्वाय) शत्रुसेना के हिंसक के लिये, (अस्त्रे) तामसास्त्र फैंकनेवाले के लिये, (उत) तथा (भवाय राज्ञे) सुखसम्पत्ति के उत्पादक राजा के निये, और (नमस्येभ्यः) नमस्कारयोग्य (एभ्यः) इन देवजनों के लिये (नमः कृणोमि) मैं नमस्कार करता हूं, वे (मनसा) मननपूर्वक (होमैः) सैनिकों की आत्माहुतियों द्वारा (हरसा) शत्रुहारी (घृतेन) वीर्यशक्तिद्वारा (अघविषाः) घातक विष के प्रयोक्ताओं की सेना को (अस्मदन्यत्र) हम से भिन्न स्थानों में (नयन्तु) ले जायं, प्राप्त करा दें; णीञ् प्रापणे (भ्वादिः) पहुंचा दें।

    टिप्पणी

    [घृतेन= रेतः कृत्वाज्यं देवाः पुरुषमाविशन् (अथर्व० ११‌।८।२९)। अघविषाः= अघम् 'आहन्ति'+ विषम्; जो कि घातक विषवाली हैं]।

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    विषय

    सेनाओं से रक्षा।

    भावार्थ

    (शर्वाय) शत्रुहिंसक, (अस्त्रे) शत्रुओं पर बाणों को फेंकने वाले, और (राज्ञे) राजा और (भवाय) सामर्थ्यवान् सब कार्यों के उत्पादक पुरुषों के लिये, (मनसा) अपने चित्त से, (होमैः) दानों, धन-राशियों से, (हरसा) अपनी शक्ति से (घृतेन) और अपने तेज या स्नेहमय पुष्टिकारक पदार्थों से हम सहायता करें। (एभ्यः) इन (नमस्येभ्यः) आदरयोग्य पुरुषों के लिये (नमः) मैं आदर (कृणोमि) करता हूँ। और चाहता हूँ कि ये लोग (अघ-विषाः) पापों के ज़हर या विष से पूर्ण, या पापों से पूर्ण, नीच व्यक्तियों को (अस्मत् अन्यत्र) हम से अलग (नयन्तु) करें, हम में पापियों को न रहने दें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंतातिर्ऋषिः। रुद्रो देवता। १-३ त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Energy, Action, Achievement

    Meaning

    generosity, all those arising and marching with armies, may all these spare and protect our brave. With honest mind and offers of oblations of all my might and ghrta, I do homage to the unfailing archer, the protective arrow, lord ruler of the universe and the giver of peace, and to all those who are worthy of homage and pray that they may ward off all our negativities of sin and evil.

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    Translation

    To the tearer and the shooter, and to their great promising (bhava) king, worthy of homage. I pay my homage to them all with thought, with offerings and with purified butter. May wey turn the poisonous sinners (agha-visa) away from us.

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    Translation

    I utilize the precautionary and prophylactive measure against these resistible forces— brilliant fire, disease-spready Sharva, the fire with mind, with the offering of oblation in the yajna, with our defensive power and with ghee. Let them turn elsewhere things full of deadly venom.

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    Translation

    With mind, stores of wealth, courage and strength of character, let us help the foe-killer, the thrower of arrows on the enemy, and the joy-bestowing king. To these the worshipful I pay my homage: may they keep away from us the low, ignoble persons full of sin.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(मनसा) मन ज्ञाने−असुन्। विज्ञानेन सह (होमैः) अ० ४।३८।५। हु दानादानयोः−मन्। दातव्यग्राह्यव्यवहारैः (हरसा) अन्धकारेण हारकेण (घृतेन) घृ भासे−क्त। प्रकाशेन (शर्वाय) अ० ४।२८।१। कष्टनाशकाय (अस्त्रे) म० १। ग्रहीत्रे (उत) अपि च (राज्ञे) शासकाय (भवाय) अ० ४।˜२८।१। सुखोत्पादकाय परमेश्वराय (नमस्येभ्यः) नमस्कारार्हेभ्यो विद्वद्भ्यः (नमः) विनतिम् (एभ्यः) (कृणोमि) करोमि (अन्यत्र) अन्येषु दुष्कर्मिषु (अस्मत्) धार्मिकेभ्यः (अघविषाः) अघं पापमेव विषं विषवन्मृत्युकरं यासु ताः पीडाः (नयन्तु) प्रापयन्तु ॥

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