अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 109/ मन्त्र 6
ऋषिः - बादरायणिः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्रभृत सूक्त
45
संव॑सव॒ इति॑ वो नाम॒धेय॑मुग्रंप॒श्या रा॑ष्ट्र॒भृतो॒ ह्यक्षाः। तेभ्यो॑ व इन्दवो ह॒विषा॑ विधेम व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽव॑सव: । इति॑ । व॒: । ना॒म॒ऽधेय॑म् । उ॒ग्र॒म्ऽप॒श्या: । रा॒ष्ट्र॒ऽभृत॑: । हि । अ॒क्षा: । तेभ्य॑: । व॒: । इ॒न्द॒व॒: । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ । व॒यम् । स्या॒म॒ । पत॑य: । र॒यी॒णाम्॥११४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
संवसव इति वो नामधेयमुग्रंपश्या राष्ट्रभृतो ह्यक्षाः। तेभ्यो व इन्दवो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽवसव: । इति । व: । नामऽधेयम् । उग्रम्ऽपश्या: । राष्ट्रऽभृत: । हि । अक्षा: । तेभ्य: । व: । इन्दव: । हविषा । विधेम । वयम् । स्याम । पतय: । रयीणाम्॥११४.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
व्यवहारसिद्धि का उपदेश।
पदार्थ
[हे विद्वानो !] (संवसवः) “सम्यक् धनवाले, वा मिल के रहनेवाले” (इति) यह (वः) तुम्हारा (नामधेयम्) नाम है, (हि) क्योंकि [तुम] (उग्रंपश्याः) उग्रदर्शी [बड़े तेजस्वी] (राष्ट्रभृतः) राज्यपोषक और (अक्षाः) व्यवहारकुशल हो। (इन्दवः) हे बड़े ऐश्वर्यवालो ! (तेभ्यः वः) उन तुमको (हविषा) आत्मदान से (विधेम) हम पूजें, (वयम्) हम (रयीणाम्) अनेक धनों के (पतयः) स्वामी (स्याम) होवें ॥६॥
भावार्थ
मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग और सत्कार से अनेक धन प्राप्त करें ॥६॥
टिप्पणी
६−(संवसवः) सम्यग् वसूनि धनानि येषां ते यद्वा, सम्यग् वासयितारः (इति) एवं प्रकारेण (वः) युष्माकम् (नामधेयम्) नाम (उग्रंपश्याः) उग्रंपश्येरंमदपाणिंधमाश्च। पा० ३।२।३७। उग्र+दृशिर् प्रेक्षणे-खश्। उग्रदर्शिनः। महातेजस्विनः (राष्ट्रभृतः) राज्यपोषकाः (हि) यस्मात्कारणात् (अक्षाः) अक्ष-अर्शआद्यच्। व्यवहारवन्तः (तेभ्यः) तथाभूतेभ्यः (वः) युष्मभ्यम् (इन्दवः) अ० ६।२।२। हे परमैश्वर्यवन्तः (हविषा) आत्मदानेन (विधेम) परिचरणं कुर्याम (वयम्) (स्याम) (पतयः) (रयीणाम्) विविधधनानाम् ॥
विषय
गन्धर्वो का लक्षण
पदार्थ
१. गतमन्त्र के गन्धर्वो को सम्बोधित करते हुए कहते है कि ('संवसवः' इति वः नामधेयम्) ृ 'संवसवः' यह आपका नाम है, आप उत्तमरूप से मिलकर रहनेवाले या राष्ट्र में प्रजा को बसानेवाले, (उग्रंपश्या:) ृ तेजस्वी दिखनेवाले, (राष्ट्रभृत:) ृ राष्ट्र का धारण करनेवाले तथा (हि) ृ निश्चय से (अक्षा:) ृ [अक्ष पचाद्यच्] व्यवहारकुशल हो। २. हे (इन्दवः) ृ शक्तिशाली गन्धवों! (तेभ्यः वः) = उन आपके लिए हम हविषा (विधेम) = हवि के द्वारा-उचित कर-प्रदान द्वारा आदर प्रकट करें और (वयम्) = हम (रयीणां पतयः स्याम्) = धनों के स्वामी हों। इन गन्धवों से रक्षित हुए हुए हम धनस्वामी बन पाएँ। [गां भूमि धारयन्ति] ये गन्धर्व राष्ट्रभूमि का रक्षण करते हैं। रक्षित राष्ट्र में प्रजाएँ उत्तमता से धनार्जन कर पाती हैं।
भावार्थ
राष्ट्र का धारण करनेवाले गन्धर्व प्रजा को उत्तम निवास प्राप्त कराते हैं, तेजस्वी होते हैं, व्यवहार-कुशल होते हैं। ये प्रजाओं से उचित कर प्रास करते हुए राष्ट्र की ऐसी उत्तम व्यवस्था करते हैं कि राष्ट्र में सभी धन-स्वामी बनते हैं।
भाषार्थ
(अक्षाः) न्यायालय के अध्यक्ष, (उग्रंपश्याः) कठोरतापूर्वक [कितवों पर] दृष्टि रखते हैं, और इस प्रकार (हि) निश्चय से (राष्ट्रभृतः) राष्ट्र का भरण-पोषण करते हैं, (वः) हे अध्यक्षो! तुम्हारा (नामधेयम्) नाम है (संवसवः१ इति) सम्यक् वसाने वाले, प्रजाओं को राष्ट्र में सम्यक्-वसाने वाले (इन्दवः) हे चन्द्रसम शीतल हृदयों वाले अध्यक्षो! (तेभ्यः वः) उन प्रसिद्ध तुम्हारे लिये (हविषा) सात्विक अन्न द्वारा (विधेम) हम परिचर्या करें, सेवा करें, (वयम्) हम [आपकी अध्यक्षता में] (रयीणाम्) सम्पत्तियों के (पतयः) स्वामी (स्याम) हों।
टिप्पणी
[अक्षः= Legal procedure, a law-suit (आप्टे), अर्थात् न्याय सम्बन्धी प्रक्रिया; तथा न्यायालय में किया अभियोग, मुकदमा। न्यायाध्यक्ष, राष्ट्रकर्म विरोधियों पर उग्रंपश्याः होकर, वस्तुतः राष्ट्र का भरण-पोषण करते हैं। वे उग्रंपश्याः होते हुए भी "इन्दवः” चन्द्रसम शीतल हृदयों वाले होते हैं। राष्ट्र के भरण-पोषण से राष्ट्र में सम्पत्तियों की वृद्धि होती है। ऐसे अध्यक्षों का सत्कार करना चाहिये]। [१. अथवा तुम मिलकर राष्ट्र के वसुरूप हो, रत्नरूप हो। संवसवः=संभूय बसवः।
विषय
ब्रह्मचारी का इन्द्रियजय और राजा का अपने चरों पर वशीकरण।
भावार्थ
हे (अक्षाः) राजा के आंख स्वरूप चर लोगो, सुभटो ! (वः) तुम्हारा (नामधेयम्) नाम (सं वसवः) ‘सं-वसु’ है. तुम एकत्र, सेना और संस्था बनाकर, संगठित होकर छावनियों, सेनादलों या संस्थाओं में रहने से ‘संवसु’ कहाते हो। तुम (राष्ट्र-भृतः) राष्ट्र को धारण करने वाले राजा के या स्वयं राष्ट्र धारक (उग्र पश्याः) उग्रता से शत्रु पर देखने वाले, या देखने में भयानक (अक्षाः) ‘अक्ष’ राजा के इन्द्रियरूप हो। हे (इन्दवः) तेजस्वी पुरुषो ! हम (तेभ्यः) उन (वः) आप लोगों का (हविषा) आदि द्रव्यों से (विधेम) सत्कार करें और आप द्वारा राष्ट्ररक्षा के सम्पादन होने के कारण (वयं) हम प्रजागण (रयीशाम्) धनों और बलों के (पतयः) स्वामी (स्याम) हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बादरायणिर्ऋषिः। अग्निमन्त्रोक्ताश्च देवताः। १ विराट् पुरस्ताद् बृहती अनुष्टुप्, ४, ७ अनुष्टुभौ, २, ३, ५, ६ त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Management
Meaning
O Vasus, ‘sustainers of life on earth and elsewhere, happy and generous givers of wealth, honour and excellence’, that’s your name. Awful and daring in mien, brilliant and blazing in sight, be undoubtedly so in action and performance. O leaders of light, be sustainers of the social order in all fields of activity, thought and policy. May we serve you with our offers of homage with men and materials, and may we too be masters of wealth, honour and excellence.
Translation
Bestowers of wealth (samvasavah) is your name; O senseorgans, you are severe in watching and are sustainers of the domain. To you as such (idam vo), we offer these oblations. May we become masters of the riches.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.114.6AS PER THE BOOK
Translation
O learned men! fellow-inhabitants is you title, you are the guardian of the dominion and you are sharp-visioned and well behaving. O ye ones effulgent in knowledge! may we approach and please those of you with food and water and may we be the master of rich possessions.
Translation
O learned person, your name is ‘Containers of wealth, as you are farsighted, dominion supporters, and men of practical wisdom. O exalted persons, may we worship you with devotion, and become lords of wealth.
Footnote
संवसव: may also mean ‘Fellow-inhabitants.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(संवसवः) सम्यग् वसूनि धनानि येषां ते यद्वा, सम्यग् वासयितारः (इति) एवं प्रकारेण (वः) युष्माकम् (नामधेयम्) नाम (उग्रंपश्याः) उग्रंपश्येरंमदपाणिंधमाश्च। पा० ३।२।३७। उग्र+दृशिर् प्रेक्षणे-खश्। उग्रदर्शिनः। महातेजस्विनः (राष्ट्रभृतः) राज्यपोषकाः (हि) यस्मात्कारणात् (अक्षाः) अक्ष-अर्शआद्यच्। व्यवहारवन्तः (तेभ्यः) तथाभूतेभ्यः (वः) युष्मभ्यम् (इन्दवः) अ० ६।२।२। हे परमैश्वर्यवन्तः (हविषा) आत्मदानेन (विधेम) परिचरणं कुर्याम (वयम्) (स्याम) (पतयः) (रयीणाम्) विविधधनानाम् ॥
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