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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 110 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 110/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भृगुः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    71

    याभ्या॒मज॑य॒न्त्स्वरग्र॑ ए॒व यावा॑त॒स्थतु॒र्भुव॑नानि॒ विश्वा॑। प्र च॑र्ष॒णी वृष॑णा॒ वज्र॑बाहू अ॒ग्निमिन्द्रं॑ वृत्र॒हणा॑ हुवे॒ऽहम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याभ्या॑म् । अज॑यन् । स्व᳡: । अग्रे॑ । ए॒व । यौ । आ॒ऽत॒स्थतु॑: । भुव॑नानि । विश्वा॑ । प्रच॑र्षणी॒ इति॒ प्रऽच॑र्षणी । वृष॑णा । वज्र॑बाहू॒ इति॒ वज्र॑ऽबाहू । अ॒ग्निम् । इन्द्र॑म् । वृ॒त्र॒ऽहना॑ । हु॒वे । अ॒हम् ॥११५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याभ्यामजयन्त्स्वरग्र एव यावातस्थतुर्भुवनानि विश्वा। प्र चर्षणी वृषणा वज्रबाहू अग्निमिन्द्रं वृत्रहणा हुवेऽहम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याभ्याम् । अजयन् । स्व: । अग्रे । एव । यौ । आऽतस्थतु: । भुवनानि । विश्वा । प्रचर्षणी इति प्रऽचर्षणी । वृषणा । वज्रबाहू इति वज्रऽबाहू । अग्निम् । इन्द्रम् । वृत्रऽहना । हुवे । अहम् ॥११५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 110; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और मन्त्री के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (याभ्याम्) जिन दोनों के द्वारा (एव) ही उन्होंने [महात्माओं ने] (स्वः) स्वर्ग [सुख] को (अग्रे) पहिले (अजयन्) जीता था [पाया था], (यौ) जो दोनों (विश्वा) सब (भुवनानि) प्राणियों में (आतस्थतुः) ठहर गये हैं। [उन दोनों] (प्रचर्षणी) शीघ्रगामी वा अच्छे मनुष्योंवाले, (वृषणा) शूर, (वज्रबाहू) वज्र [लोह समान दृढ़] भुजाओंवाले, (वृत्रहणा) रोकावटें नाश करनेवाले (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्यवाले राजा और (अग्निम्) तेजस्वी मन्त्री को (अहम्) मैं (हुवे) बुलाता हूँ ॥२॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार प्रजागण पहिले से राजा और मन्त्री के प्रबन्ध में सुखी रहे हैं, वैसे ही सदा रहें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(याभ्याम्) राजमन्त्रिभ्याम् (अजयन्) प्राप्तवन्तो महात्मानः (स्वः) अ० २।५।२। सुखम् (अग्रे) पूर्वकाले (एव) अवश्यम् (यौ) (आतस्थतुः) व्याप्तवन्तौ (भुवनानि) भूतजातानि (विश्वा) सर्वाणि (प्रचर्षणी) अ० ४।२४।३। शीघ्रगामिनौ। प्रकृष्टमनुष्यवन्तौ (वृषणा) इन्द्रौ। पराक्रमिणौ (वज्रबाहू) वज्रवद् लौहतुल्यौ दृढौ बाहू ययोस्तौ (अग्निम्) तेजस्विनं मन्त्रिणम् (इन्द्रम्) प्रतापिनं राजानम् (वृत्रहणा) विघ्ननाशकौ (हुवे) आह्वयामि (अहम्) प्रजागणः ॥

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    विषय

    स्वर्ग के प्रापक 'अग्नि और इन्द्र'

    पदार्थ

    १. (याभ्याम् एव) = जिन अग्नि व इन्द्र के द्वारा ही, प्रकाश व बल के द्वारा ही (स्वः) = स्वर्ग को अग्ने सर्वप्रथम (अजयन्) = जीतते हैं, (यौ) = जो अग्नि और इन्द्र (विश्वा भुवनानि आतस्थतु:) = सब प्राणियों में अधिष्ठित है, प्रकाश व बल ही प्राणियों के आधार हैं। २. ये अग्नि और इन्द्र (प्रचर्षणी) = प्रकर्षेण सबको देखनेवाले हैं, (वृषणा) = ये सुखों का सेचन करनेवाले हैं तथा (वज्रबाहू) = गतिशील व बन के समान दृढ़ भुजाओंवाले हैं। उन (वृत्रहणा) = सब बासनाओं का विनाश करनेवाले (अग्रिम् इन्द्रम्) = अग्नि और इन्द्र को, प्रकाश व बल के देवता को (अहम् हुवे) = मैं पुकारता हूँ। प्रकाश व बल की आराधना करता हुआ मैं वासनाओं से ऊपर उठता हूँ।

    भावार्थ

    अग्नि और इन्द्र [प्रकाश-बल] स्वर्ग को प्रास कराते हैं, ये सबके आधार बनते हैं, हमारा पालन करते हैं, सुखों का सेचन करते हैं, हमें क्रियाशील व दृढ़ बनाते हैं, हमारी वासनाओं का विनाश करते हैं।

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    भाषार्थ

    (याभ्याम्) जिन दो की सहायता द्वारा (एव) ही [प्रजाजनों ने] (अग्रे स्वः) प्रथम सुख पर (अजयन्) विजय पाई। (यौ) जो दोनों (विश्वा भुवनानि) साम्राज्य के सब प्रान्तों पर (आतस्थतुः) पूर्णतया अधिष्ठित हुए हैं। (प्रचर्षणी) जो श्रेष्ठ प्रजावाले हैं या साम्राज्य पर दृष्टि रखते हैं, (वृषणा) सुखों की वर्षा करते हैं, (वज्रंबाहू) हाथों में वज्र अर्थात् आयुध रखते, या वज्जवत् कठोर अर्थात् मजबूत बाहुओं वाले हैं; (वृत्रहणा) वृत्रघाती (अग्निम्, इन्द्रम्) सर्वाग्रणी को और सम्राट् को (अहम्) मैं (हुवे) सहायतार्थ बुलाता हूं।

    टिप्पणी

    [अहम्= बृहस्पतिः (मन्त्र ३)। प्रधानमन्त्री और सम्राट् का सर्वप्रथम कर्तव्य है प्रजा का सुखसम्पादन, और साम्राज्य के वृत्रों का हनन]।

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    विषय

    राजा और सेनापति का लक्षण।

    भावार्थ

    (याभ्याम्) जिन दोनों के बल से (अग्रे एव) पहले ही (स्वः) ऐहलौकिक सुख को (अजयन्) प्रजाजनों ने प्राप्त किया। और (यौ) जो दोनों (विश्वा) समस्त (भुवनानि) अपने राज्य के सब प्रान्तों को (आ-तस्थतुः) अपने बश किये हुए हैं, उन (प्रचर्षणी) उत्कृष्ट द्रष्टा, अतएव उत्कृष्ट कोटि के पुरुषपुंगव (वृषणा) सुखों के वर्षक, बलवान्, (वज्र-बाहू) अपने हाथों में तलवार लिये हुए, (वृत्र-हणौ) राष्ट्र को घेरनेवाले विघ्नरूप शत्रुओं का नाश करने वाले दोनों को (अग्निम् इन्द्रम्) अग्नि और इंद्र नाम से (अहम्) मैं (हुवे) स्मरण करता हूं। अध्यात्म में—अग्नि, इन्द्र ईश्वर और जीव हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषि। इन्द्राग्नि देवता । १ गायत्री, २ त्रिष्टुप, ३ अनुष्टुप छन्दः। तृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Elimination of Darkness

    Meaning

    I invoke and call upon both Agni and Indra, both highest over and ahead of humanity, potent and generous, thunder-armed destroyers of darkness and negativity, who pervade all regions of the world and by virtue of whom men of yore won the paradisal bliss of life on earth.

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    Translation

    With whose help the enlightened ones won the world of bliss in the beginning, and who two have overcome all the beings - the adorabie king and the resplendent army-chief I invoke, who are excellent observers, mighty, wielders of punitive weapon and destroyers of evil.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.115.2AS PER THE BOOK

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    Translation

    By which two the physical forces Produce light in the beginning and which two verily have made all the worlds their habitation and which two are with radiance, strong in power, equipped with lighting and dispeller of clouds. Such these two—the fire and air I, the scientist describe.

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    Translation

    I invoke the king and the Commander, foe-destroyers, carriers of arms in hand, powerful, adored by many, through whom the subjects secured peace and safety in the beginning, these who have controlled all parts of their kingdom.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(याभ्याम्) राजमन्त्रिभ्याम् (अजयन्) प्राप्तवन्तो महात्मानः (स्वः) अ० २।५।२। सुखम् (अग्रे) पूर्वकाले (एव) अवश्यम् (यौ) (आतस्थतुः) व्याप्तवन्तौ (भुवनानि) भूतजातानि (विश्वा) सर्वाणि (प्रचर्षणी) अ० ४।२४।३। शीघ्रगामिनौ। प्रकृष्टमनुष्यवन्तौ (वृषणा) इन्द्रौ। पराक्रमिणौ (वज्रबाहू) वज्रवद् लौहतुल्यौ दृढौ बाहू ययोस्तौ (अग्निम्) तेजस्विनं मन्त्रिणम् (इन्द्रम्) प्रतापिनं राजानम् (वृत्रहणा) विघ्ननाशकौ (हुवे) आह्वयामि (अहम्) प्रजागणः ॥

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