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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 110 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 110/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भृगुः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    47

    उप॑ त्वा दे॒वो अ॑ग्रभीच्चम॒सेन॒ बृह॒स्पतिः॑। इन्द्र॑ गी॒र्भिर्न॒ आ वि॑श॒ यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । त्वा॒ । दे॒व: । अ॒ग्र॒भी॒त् । च॒म॒सेन॑ । बृ॒ह॒स्पति॑: । इन्द्र॑ । गी॒:ऽभि: । न॒: । आ । वि॒श॒ । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥११५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप त्वा देवो अग्रभीच्चमसेन बृहस्पतिः। इन्द्र गीर्भिर्न आ विश यजमानाय सुन्वते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । त्वा । देव: । अग्रभीत् । चमसेन । बृहस्पति: । इन्द्र । गी:ऽभि: । न: । आ । विश । यजमानाय । सुन्वते ॥११५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 110; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और मन्त्री के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे राजन् ! (त्वा) तुझे (देवः) प्रकाशमान, (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े लोकों के रक्षक परमेश्वर ने (चमसेन) अन्न के साथ (उप अग्रभीत्) सहारा दिया है। तू (गीर्भिः) वाणियों [स्तुतियों] के साथ (यजमानाय) संयोग-वियोग करनेवाले (सुन्वते) तत्त्वमथन करनेवाले पुरुष के लिये (नः) हम में (आ विश) प्रवेश कर ॥३॥

    भावार्थ

    राजा को उचित है कि परमेश्वर के दिये सामर्थ्य से विवेकी धर्मात्माओं का सहाय करे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(उप) समीपे (त्वा) त्वां राजानम् (देवः) प्रकाशमानः (अग्रभीत्) अग्रहीत्। गृहीतवान् (चमसेन) अ० ६।४७।३। अन्नेन (बृहस्पतिः) बृहतां लोकानां पालकः परमेश्वरः (इन्द्र) प्रतापिन् राजन् (गीर्भिः) वाणीभिः। स्तुतिभिः (नः) अस्मान् (आ विश) प्रविश। प्राप्नुहि (यजमानाय) पदार्थानां संयोजकवियोजकाय (सुन्वते) तत्त्वमथनशीलाय ॥

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    विषय

    बृहस्पति+इन्द्र

    पदार्थ

    १. (त्वा) = तुझे (बृहस्पति:) = ब्रह्मणस्पति, ज्ञान का स्वामी (देव:) = प्रकाशमय प्रभु (चमसेन) = [तिर्यग् बिलश्चमस ऊर्ध्वबुधः तस्मिन् यशो निहितं विश्वरूपम्] ज्ञान के आधारभूत मस्तिष्क के द्वारा (उपाग्रभीत्) = उपगृहीत करता है। प्रभु हमें ज्ञानपरिपूर्ण मस्तिष्क [चमस] प्रास कराके अपने समीप प्राप्त कराते हैं। २. हे (इन्द्रः) = सर्वशक्तिमान् प्रभो! (न:) = हमारी (गीर्भिः स्तुति) = वाणियों के द्वारा (यजमानाय) = यज्ञशील (सुन्वते) = सोमाभिषव करनेवाले, शरीर में सोम-शक्ति का सम्पादन करनेवाले, पुरुष के लिए (आविश) = प्राप्त होओ।

    भावार्थ

    बृहस्पति का आराधन हमें ज्ञानपूर्ण मस्तिष्क प्राप्त कराता है। इन्द्र का स्तवन हमें शक्तिशाली बनाता है, इन्द्र बनकर हम सोम [शक्ति] का पान करते हुए शक्तिसम्पन्न बनते हैं। इस शक्ति का विनियोग हम यज्ञादि उत्तम कर्मों के करने में ही करते हैं।

    ज्ञान व शक्ति के समन्वय से बढ़ा हुआ 'ब्रह्मा' अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे सम्राट् ! (बृहस्पतिः देवः) बृहती सेना के पति देव ने (उप) तेरे समीप होकर (चमसेन) सोमपान द्वारा (त्वा अग्रभीत्) तेरा ग्रहण किया है, सत्कार किया है, तू (सुन्वते) सोमयाग आदि करने वाले (यजमानाय) यज्ञशील प्रजाजन की रक्षा के लिये, (नः) हमारी (गीर्भिः) स्तुतिवाणियों द्वारा स्तूयमान हुआ, (आविश) सिंहासन में प्रवेश कर।

    टिप्पणी

    [बृहस्पति है साम्राज्य की बड़ी सेना का अधिपति। इसका सेना के साथ सम्बन्ध है। यथा-"बृहस्पतिर्दक्षिणा यज्ञः पुर एतु सोमः” (यजु० १७।४०)। इन्द्र=सम्राट् (यजु० ८।३७)। प्रजाएं तो सम्राट् का चुनाव करती हैं। परन्तु सम्राट के चुनाव में साम्राज्य की सेना का अधिकार होना चाहिये। सेना द्वारा सम्राट् स्वीकृत हुआ है, इसे "उप अग्रभीत्" द्वारा सूचित किया है। इस स्वीकृति में बृहस्पति, सम्राट् को, पेयरूप में, सोमपात्र द्वारा, सोमरस भेंट करता है]।

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    विषय

    राजा और सेनापति का लक्षण।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) राजन् ! (त्वा) तुझको (बृहस्पतिः) वेद ज्ञानका स्वामी (देवः) देव विद्वान् पुरोहित (चमसेन) चमसरूप से (उप-अग्रभीत्) तेरा आदर करता है, सोमपात्र तुझे प्रदान करता है। तू (सुन्वते) सोमसवन करनेवाले (यजमानाय) यजमान, तेरी संगति करनेहारे पुरुष के निमित्त (गीर्भिः) स्तुति, वाणियों सहित, (नः) हम प्रजाओं के भीतर (आ-विश) आ, प्रवेश कर। अध्यात्म में—बृहस्पति प्रभु ने इस आत्मा को शीर्ष कपाल में सोम रस पान करने का सौभाग्य दिया है। जो साधक उसकी साधना करे उसके लिये ही वह इन्द्र अर्थात् आत्मा (नः) हम इन्द्रिय रूप प्रजाओं के भीतर अध्यात्म स्तुतियों सहित प्रवेश करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषि। इन्द्राग्नि देवता । १ गायत्री, २ त्रिष्टुप, ३ अनुष्टुप छन्दः। तृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Elimination of Darkness

    Meaning

    Indra, ruler of the world, divine Brhaspati, lord of the expansive universe, master of the boundless Word of knowledge, took you over by the yajnic ladle of oblation and sanctified you as dedicated to the fire of social discipline and governance of the order. Come, invited by our collective voice, and take over this dominion for this community of people, the yajamana of the soma yajna of the nation.

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    Translation

    The Lord supreme has won you over with a bowl of devotional bliss. O resplendent Lord, invoked with hymns, may you come unto us for the sake of this sacrificer, offering his devotional bliss.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.115.3AS PER THE BOOK

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    Translation

    Brihaspati, the master of Vedic science grasps this air or fire by Chamasa, the cloud. Let this air with its tremor communicating powers pervade the atmosphere for the man who is concerned with constructive genius.

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    Translation

    O King, the Refulgent God, hath supported thee with food. Full of eulogies by us, come unto us for a discriminating worshipper!

    Footnote

    ‘Us’ refers to the subjects.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(उप) समीपे (त्वा) त्वां राजानम् (देवः) प्रकाशमानः (अग्रभीत्) अग्रहीत्। गृहीतवान् (चमसेन) अ० ६।४७।३। अन्नेन (बृहस्पतिः) बृहतां लोकानां पालकः परमेश्वरः (इन्द्र) प्रतापिन् राजन् (गीर्भिः) वाणीभिः। स्तुतिभिः (नः) अस्मान् (आ विश) प्रविश। प्राप्नुहि (यजमानाय) पदार्थानां संयोजकवियोजकाय (सुन्वते) तत्त्वमथनशीलाय ॥

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